अति सूधो सनेह को मारग है | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | घनानंद | - Rajasthan Result

अति सूधो सनेह को मारग है | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | घनानंद |

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अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं। 

तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौ झझकें कपटी जे निसांक नहीं। 

घनआनंद प्यारे सुजान सुनौ यहाँ एक तें दूसरो आँक नहीं।

तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ कहौ मन लेहु पै देहु छटांक नहीं॥ ॥23॥

अति सूधो सनेह को

प्रसंग : प्रस्तुत छंद के रचयिता कवि घनानंद हैं। घनानंद स्वच्छंद काव्यधारा के आधार स्तंभ हैं। इन्होंने अपने काव्य में स्वच्छंद प्रेम के गीत गाये हैं। अपने व्यक्तिगत जीवन में इन्होंने जो कुछ देखा, जो कुछ भोगा उसी को अपने काव्य में वर्णित किया है। यहाँ प्रेम – मार्ग की सरलता और निश्छलता का वर्णन किया गया है। कवि अपनी निष्ठुर प्रेयसी को उपालंभ देता है कि उसका मन तो एकनिष्ठ भाव से उसका (प्रेयसी) हो गया, लेकिन उसने अभी तक अपने सौंदर्य की एक झलक भी नहीं दिखाई।

 

व्याख्या : कवि घनानंद अपने प्रिय को प्रेम – मार्ग की शिक्षा देते हुए कहते हैं कि हे प्रिय, प्रेम का मार्ग अत्यंत सरल और सीधा है। इसमें टेढ़ेपन अर्थात् चतुराई के लिए कोई स्थान नहीं है। क्योंकि चतुराई से चलने वाला प्रेम के मार्ग पर चलने में सफल नहीं हो सकता।

प्रेम का मार्ग सच्चे लोगों के लिए है जो अपना अहंभाव त्यागकर इस मार्ग पर चलते हैं और अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैं। जिनके हृदय में थोड़ा-सा भी छल कपट है वे इस मार्ग पर निडर होकर नहीं चल पाते। कपटी लोग इस मार्ग पर चलने में झिझकते हैं।

कवि कहता है कि हे सुजान ! सच्चा प्रेमी तो वह होता है जो प्रेम मार्ग पर सीधी रेखा की तरह चल पड़ता है। इधर-उधर नहीं देखता है। अपने मार्ग से विचलित नहीं होता है । वह ही इस मार्ग पर बिना किसी असुविधा के बढ़ सकते हैं। अपने प्रेम की एकनिष्ठता को निरूपित करते हुए कवि कहता है कि घने आनंद को अर्थात् अत्यधिक आनंद को देने वाले प्रियतम सुजान सुनो मेरे मन में केवल तुम्हारे प्रति अनन्य प्रेम और निष्ठा है।

मेरे हृदय पर केवल तुम्हारे प्रेम की छाप है। मैंने तुम्हारे सिवा किसी और से प्रेम नहीं किया है जिसकी छाप मेरे हृदय पर पड़ती है। मेरे लिए तो प्रियतम के रूप में केवल तुम्हारा अस्तित्व है। मैं आज तक यह नहीं समझ सका कि हे निष्ठुर और निर्दयी प्रिय तुमने किस पाठशाला से शिक्षा ग्रहण की है।

तुम लेना तो मनभर (40 सेर) चाहते हो परन्तु देने के लिए एक छटाँक (सेर का सोलहवाँ भाग) भी तैयार नहीं हो अर्थात् तुम दूसरे का मन तो बड़ी चतुराई से मोह लेते हो पर बदले में अपना मन जरा भी किसी को नहीं देते हो ।

विशेष : 

1. प्रेम के पथ में बुद्धि और तर्कशीलता के लिए कोई स्थान नहीं है।

2. प्रेम के वास्तविक स्वरूप का निरूपण बड़े सुंदर ढंग से किया है।

3. मुहावरों का प्रयोग हुआ है। एकतें दूसरी आँक नहीं, पारी पढ़े हो, मन लेहु पैदेहु छटाँक नहीं।

4. अनुप्रास, श्लेष, यमक, रूपक अलंकार का प्रयोग हुआ है।

5. छन्द सवैया है।

6. ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।

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