आड़ न मानति चाड-भरे घरी ही रहे | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद |
आड़ न मानति चाड-भरे घरी ही रहे अति लाग-लपेटी |
ढीठि भई मिलि ईठि सुजान न देहि क्यौं मीठि जु दीठि सहेटी ।
मेरी स्वै मोहि कुचैन करै घनआनन्द रोगिनि लौं रहे लेटी ।
ओटी बड़ी इतराति लगी मुंह नैकौ अघाति न आँखि निपेटी || ३५ ।।
आड़ न मानति चाड-भरे
प्रसंग : यह पद्य कविवर घनानन्द विरचित ‘सुजानहित’ नामक रचना से लिया गया है। इसमें आँखों के स्वभाव का नंगापन या लालसा के कारण भुक्खड़ों को अनेक प्रकार से चितारा गया हैं। केवल प्रिय-दर्शन के लिए चारों ओर भटक रही आँखों की गति दिशा का वर्णन करते हुए कवि कह रहा है
व्याख्या : प्रिय-दर्शन की भूखी आँखें किसी भी प्रकार के पर्दे को नहीं मानती या पर्दो की परवाह नहीं करती। प्रियतम के दर्शन की उत्कट अभिलाषा से भरकर उसकी लगन में लगी हमेशा उघड़ी अर्थात् खुली ही रहती हैं। एक पल के लिए भी कभी बन्द नहीं होती या मुँदना स्वीकार नहीं करतीं ।
जो दृष्टि को इतना घुमक्कड़ बनाया था तो सुजान ने इनको पीठ ही क्यों दी अर्थात् मुँह को मोड़कर प्रेम सम्बन्ध क्यों तोड़ दिया। यह तो उससे मिलकर अब इतनी ढीठ हो चुकी हैं कि किसी की भी कोई बात मानती ही नहीं।
कविवर घनानन्द प्रेमी-मन की स्थिति की ओर संकेत करते हुए आगे फिर कहते हैं कि ये आँखें मेरी होकर भी मुझे परेशान करती रहती हैं, कभी चैन नहीं लेने देती। हर समय रोगी बनकर लेटी रहती हैं अर्थात् प्रिय- दर्शन के अभाव ने मेरी इन आँखों को रोगी और परेशान कर दिया हैं। प्रिय-दर्शन की भूखी आँखें अब इतनी भुक्खड़ और विवश हो गई हैं कि उसे देख-देख कर जरा भी तृप्त नहीं होती।
ओछी इतनी हैं कि उससे दुत्कारी जाकर भर बड़ी इतरा- इतरा कर बार -बार उसके मुंह लगने का प्रयास करती है। अर्थात् प्रिय परवाह करे न करे, पर मेरी आँखें बार-बार उसके दर्शन की अमिट भूख से भरकर उधर ही लग जाती हैं। इस प्रकार इनका व्यवहार ओछों और भुक्खड़ों जैसा हो गया है।
विशेष
1. कवि ने प्रिय- दर्शन की इच्छा से शर्मन्ध्या या लोक-लाज से ऊपर उठी आँखों का यथार्थ एवं प्रभावी वर्णन किया है।
2. वर्णन में अनुभूत स्वाभाविकता देखी – परखी जा सकती है।
3. पद्य में उल्लेख, वर्णन, उपमा आदि कई अलंकार हैं। अनुप्रास तो है ही।
4. भाषा प्रसाद गुण से युक्त, मुहावरेदार, सानुप्रासिक एवं गत्यात्मक है। उसमें सहज लयात्कता भी देखी जा सकती है।
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