कल कानन कुंडल मोर पखा उर पै | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | रसखान |
कल कानन कुंडल मोर पखा उर पै बनमाल बिराजति है।
मुरली कर मैं अधरा मुसकानि तरंग महा छवि छजति है ।।
रसखानि लखें तन पीत पटा सत दामिनि की दुनि लाजति है ।
वहि बाँसुरी की धुनि कान परे कुलकानि हियो तजि भाजति है ।।
कल कानन कुंडल मोर पखा
संदर्भ : यह सवैया भी रसखान की प्रसिद्ध रचना ‘सुजान रसखान‘ से उद्धृत है। इसमें रसखान ने श्रीकृष्ण के आकर्षक रूप-सौन्दर्य के प्रति गोपियों की उत्सर्ग-भावना का चित्रण किया है।
व्याख्या : कोई गोपी अपनी सखि से कहती है कि हे सखि! देखो, श्रीकृष्ण के कानों में कुंडल, सिर पर मोरमुकुट और हृदय पर बैजन्ती माला बहुत सुन्दर लग रही है। उनके हाथों में मुरली विराजमान है और होठों पर मुस्कान की लहर तरंगित है जिससे उनके मुखमण्डल की शोभा बहुत बढ़ गयी है। उनके शरीर पर जो पीताम्बर शोभायमान है, उसके समक्ष तो सैकड़ों बिजलियों की शोभा भी तुच्छ हो जाती है। उनकी मुरली की आवाज़ तो इतनी मीठी है कि जब वह कान में पड़ती है तब कुल-मर्यादा हमारे हृदय से निकल कर भाग जाती है, अर्थात् कानों में मुरली की ध्वनि के पड़ने पर मैं कुल-मर्यादा को तिलांजलि देकर श्रीकृष्ण से मिलने के लिए विवश और बेचैन हो जाती हूँ।
विशेष
1) इसमें श्रीकृष्ण के रूप-सौन्दर्य की आकर्षण-शक्ति का वर्णन हुआ है।
2) इसके साथ ही गोपियों की रूप-लिप्सा और मुरली- -प्रभाव को चित्रित करना भी रसखान का उद्देश्य है।
3) तीसरी पंक्ति में प्रतीप और चौथी में मानवीकरण अलंकार का अच्छा प्रयोग हुआ है। A a a aa a a s s s s s
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