चंडी चरित्र को आप भक्ति काव्य मानते हैं या 'वीरकाव्य'? - Rajasthan Result

चंडी चरित्र को आप भक्ति काव्य मानते हैं या ‘वीरकाव्य’?

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चंडी चरित्र को आप भक्ति काव्य या वीरकाव्य ‘प्रबन्धकाव्य’ अथवा ‘चरितकाव्य’ नामक काव्यरूप के अन्तर्गत ‘चंडीचरित्र उक्तिविलास’ का परिगणन होते हुए भी, इसकी मूल संवेदना की दृष्टि से, इसके काव्यरूप की दो अन्य संभावनाएँ स्वाभाविक हैं।

चंडी चरित्र को आप भक्ति काव्य

एक इसे ‘भक्तिकाव्य’ अथवा ‘भक्तिमूलक’ चरिकाव्य कहा जा सकता है। दूसरे-यह एक वीरकाव्य है, अर्थात् इसे ‘वीररसात्मक चरितकाव्य’ अथवा ‘वीरगाथात्मक भक्तिकाव्य’ कहा जाना चाहिए। विषयवस्तु और मूल संवेदना ही दृष्टि से ही ‘रासो’ नामक प्रबन्धकाव्य ‘वीरकाव्य’ कहलाते हैं तथा पूर्व मध्यकालीन ‘मानस’ या ‘पद्मावत’ सरीखे प्रबन्धकाव्य ‘भक्तिकाव्य’ की कोटि में रखे जाते हैं।

‘चंडी चरित्र उक्ति विलास’ के मूल स्रोत ‘दुर्गासप्तशती‘ तथा केन्द्रीय चरित्र ‘चंडी’ के नाम के आधार पर इसे ‘भक्तिकाव्य’ की कोटि में रखे जाने की संभावना हो सकती है। रचनाकार ने इस काव्यकृति में यत्र-तत्र भक्ति-भाव की व्यंजना बड़ी तन्मयता से की है। यथा

(क) ज्योति जगमग जगत मैं, चंडि चमुंड प्रचंड। भुजदंदन दंडनि असुर, मंडन भुव नवखंड।।3।।

ख) तारिनि लोक उधारिनि….

परंतु ऐसे अंश विरल हैं और वे भी केवल ‘मंगलाचरण’ के शास्त्रीय विधान के अन्तर्गत, एक औपचारिकता का आभास लिये हुए हैं। दैत्य-संहार के उपरांत, देवों का उल्लास भी वाद्य-संगीत के माध्यम से अधिक व्यक्त होता है अथवा औपचारिक आभार प्रदर्शन के रूप में। देवों द्वारा चंडी-स्तुति का ऐसा स्वरूप ‘चंडी-चरित्र’ में नहीं मिलता जिसके माध्यम से पाठक या श्रोता देवी दुर्गा अथवा चंडी के ध्यान में तन्मय हो, आत्मविनय की मनस्थिति में निमग्न हो जाएँ।

डॉ० ओमप्रकाश का यह अभिमत सर्वथा सटीक है कि इसमें प्रतिपादित भक्ति वस्तुतः कर्मण्यता का सोपान है, जिसमें विरक्ति की अपेक्षा अनुरक्ति और सहन (दैन्य, असहायता, आत्मपीड़न) की अपेक्षा संगठन को अधिक महत्त्व दिया गया है। मन में ध्यान, वाणी में गुणगान एवं कर्म में बलिदान-ये तीनों गुरु गोविंद सिंह के व्यावहारिक दर्शन में केंद्रित हो जाते हैं।” ( चंडी चरित्र उक्ति विलास, भूमिका, पृष्ठ-२०) कवि समाज में जप-तप, धर्म-कर्म के पालन की ऐसी मर्यादा का अभिलाषी है जिसमें शुभत्व का समावेश हो और भय-दैन्य का निषेध

(क) यज्ञ करै, इक वेद, ररै, भव-ताप हरै, मिलि ध्यानहिं लावें। (चंडी चरित्र-५४) 7 1

(ख) वर देहि सिवा नित मोहिं इहै, सुभ कर्मन तें कबहूँ न टरौं। (चंडी चरित्र-231)

इससे स्पष्ट है कि गुरु गोविंद सिंह अपने वैयक्तिक जीवन में भले ही एक महान संत एवं कट्टर देवी भक्त थे (जैसा कि उनके समस्त काव्य, खालसा पंथ की अरदास तथा सर्वदा कार्यारम्भ में ‘श्री गणेशाय नमः’ की बजाय ‘भगवती स्मरण’ की नियम परंपरा से प्रमाणित है), तथापि ‘चंडी चरित्र उक्ति विलास’ में उनके भक्त-रूप की अपेक्षा लोक-मंगल हित जूझ-मरने वाले वीर योद्धा का रूप ही अधिक झलकता है

जब आयु की औधि निदान बनै अति ही तब रन मैं जूझ मरौं। (चंडी चरित्र-231) 

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तात्पर्य यह है कि ‘चंडी चरित्र’ के काव्यरूप. का निर्धारण करते समय, इसे ‘भक्तिकाव्य’ की संज्ञा देना उपर्युक्त न होगा।

वीरकाव्य की समृद्ध परंपरा गुरु गोविंद सिंह को दाय-रूप में प्राप्त थी। हिंदी-साहित्य के आदिकाल (वीरगाथाकाल) से लेकर उत्तरमध्यकाल (रीतिकाल) तक अनेक कवियों ने श्रेष्ठ वीरकाव्यों की रचना की। परंतु ‘चंडी चरित्र उक्ति विलास’ उन सब में विलक्षण है। आदिकालीन वीरगाथाकाव्य अधिकांशतः प्रशस्तिमूलक, अतिशयोक्तिपूर्ण और शृंगार-संवलित थे।

भक्तिकाल में वीर-व्यंजना प्रासंगिक रूप से ही हुई। शुद्ध वीरकाव्य केवल रीतिकाल में ही रचे गये। (विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, भूषण, पृष्ठ-२४) ‘शुद्ध’ से अभिप्राय है- भौतिक आश्रयदाताओं की प्रशस्ति एवं शृंगार के समावेश आदि से सर्वथा मुक्त। भूषण (शिवराजभूषण), गोरेलाल (छत्र प्रकाश), सूदन (सुजान चरित्र) चंद्रशेखर बाजपेयी (हम्मीरहठ), ग्वाल (हम्मीरहठ और विजयविनोद), आचार्य अमीरदास (शेर सिंह प्रकाश) आदि सभी ऐतिहासिक वीरकाव्य हैं। केशवदास (वीरदेवसिंह चरित), मतिराम (ललित ललाम) और पद्माकर (प्रतापसिंह विरुदावली) आदि वीरकाव्यों में शृंगार का भी पुट है। चंडी चरित्र को आप भक्ति चंडी चरित्र को आप भक्ति

 

उत्तरमध्यकाल अर्थात् रीतिकाल में रचित वीरकाव्यों में से केवल गुरु गोविंद सिंह-कृत ‘चंडी चरित्र उक्ति विलास’ ही ऐसा प्रबन्धकाव्य और चरितकाव्य हैं जिसकी रचना किसी लौकिक वीर की अतिशयोक्तिपूर्व प्रशस्ति के रूप में नहीं हुई। न ही इस में ऐतिहासिक घटनाओं का अतिशयोक्तिपूर्ण ताना-बाना है। इसकी मूल संवेदना सर्वसाधारण भारतीय जन-मानस से जुड़ी है। सामान्य लोकमानस में ‘सत्कर्म’-प्रतिपादन तथा ‘संद्धर्भ-रक्षण’ हेतु ‘बलिदानी उत्साह’ की प्रेरणा जगाना ही इस काव्यकृति का लक्ष्य है।

आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने हिन्दी-वीरकाव्यों का वर्गीकरण करते हुए ‘शुद्ध वीरकाव्य’ को प्रथम स्थान दिया है। अन्य वर्गों में उन्होंने रासो-पद्धति के शृंगार मिश्रित वीरकाव्य, वीरदेवकाव्य या भक्तिभावित वीरकाव्य गिनाये हैं। इनमें से ‘चंडी चरित्र’ प्रथम कोटि का ‘शुद्ध वीरकाव्य’ है। इसे ‘वीर देवकाव्य’ अथवा ‘भक्तिभावित वीरकाव्य’ भी कहा जा सकता है, जैसा कि इसके प्रतिपाद्य से स्पष्ट हो चुका है। ,चंडी चरित्र को आप भक्ति चंडी चरित्र को आप भक्ति

‘चंडी चरित्र उक्ति विलास’ के प्रबन्ध-विन्यास का विवेचन करते हुए उसके युद्ध अभियान, सैन्यसंचालन, उत्साह-व्यंजना, शस्त्रास्त्र वर्णन और योद्धाओं के दुर्धर्ण संघर्ष के प्रभावी चित्रांकन की सोदाहरण व्याख्या पीछे की जा चुकी है। ये सभी विशेषताएँ एक उत्कृष्ट वीरकाव्य सिद्ध करती है। ‘वीरकाव्योचित छंदों का चयन, उत्साहपूर्ण गतिमय दृश्यों का चित्रांकन तथा ओजगुणयुक्त शब्दावली का प्रयोग’ किसी वीरकाव्य की सफलता के ये प्रमुख प्रतिनाम हैं (द्रष्टयः डॉ० राम प्रकाश कृत ‘आचार्य अमीरदास और उनका साहित्य’, अध्याय-6, पृष्ठ-260)।

‘चंडी चरित्र उक्ति विलास’ में इनका सम्यक् निर्वाह हुआ है, अतः काव्यरूप के निकट पर इसे ‘वीरकाव्य‘ कहना सर्वथा उपयुक्त है। चंडी चरित्र को आप भक्ति चंडी चरित्र को आप भक्ति

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