जिंदगी के … कमरों में अँधेरे । कविता की संदर्भ सहित व्याख्या। गजानन माधव मुक्तिबोध।
जिंदगी के कमरों में अँधेरे लगाता है चक्कर कोई एक लगातार; आवाज पैरों की देती है सुनाई बार-बार… बार-बार, वह नहीं दीखता… नहीं ही दीखता, किंतु वह रहा घूम तिलस्मी खोह में गिरफ्तार कोई एक, भीत-पार आती हुई पास से, गहन रहस्यमय अंधकार ध्वनि-सा अस्तित्व जनाता
अनिवार कोई एक, और मेरे हृदय की धक्-धक् पूछती है – वह कौन सुनाई जो देता, पर नहीं देता दिखाई ! इतने में अकस्मात गिरते हैं भीतर से
फूले हुए पलस्तर, खिरती है चूने-भरी रेत
खिसकती हैं पपड़ियाँ इस तरह – खुद-ब-खुद
कोई बड़ा चेहरा बन जाता है, स्वयमपि
मुख बन जाता है दिवाल पर, नुकीली नाक और
भव्य ललाट है, दृढ़ हनु
कोई अनजानी अन-पहचानी आकृति ।
कौन वह दिखाई जो देता, पर
नहीं जाना जाता है !
कौन मनु ?
जिंदगी के कमरों में
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ मुक्तिबोध की ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ शीर्षक काव्य-संकलन की ‘अंधेरे में’ शीर्षक कविता से उद्धृत की गई हैं। इन पंक्तियों में कवि ने नाटकीय और प्रश्नवाचक शैली में इस कविता के नायक का परिचय देने का प्रयास किया है। इस कविता के सम्बन्ध में यह तथ्य अवधारणीय है कि उसमें मुक्तिबोध के नागपुर – निवास के अनेक संकेत सूत्र विद्यमान हैं।
व्याख्या : किसी रहस्यमयी आकृति को जीवन के अन्धकार पूर्ण कक्ष में अर्थात् अपने अर्द्धचेतन मस्तिष्क में चक्कर लगाते हुए अनुभव करता हुआ कवि कहता है कि मुझे निरंतर ऐसी अनुभूति होती रहती है कि मेरे जीवन रूपी अंधकार पूर्ण कक्ष में अर्थात् मेरे अर्द्धचेतन मस्तिष्कमें कोई रहस्यमयी आकृति सदैव चहलकदमी करती रहती है। भाव यह है कि वह कवि के चेतन और अर्द्धचेतन मस्तिष्क के मध्य आंखमिचौली खेलती रहती है। जिंदगी के जिंदगी के जिंदगी के जिंदगी के जिंदगी के
कवि का इंगित इस ओर है कि उसके अर्द्धचेतन में विद्यमान भाव- विचार बार-बार उसके चेतन मस्तिष्क में उभरने का प्रयास करते रहते हैं। कवि आगे कहता है कि मुझे इस रहस्यपूर्ण और अज्ञात आकृति के चलने की ध्वनि तो बार-बार सुनाई पड़ती रहती है किन्तु वह आकृति मुझे कभी भी दिखाई नहीं पड़ती ह । हाँ, दिखाई न देने पर भी मुझको वह अनुभूति सदैव होती रहती है कि वह मेरी जिन्दगी के अंधेरे कमरे की तिलस्मी खोह में निरन्तर चक्कर काटता रहता है।
उसके अस्तित्व का उसी प्रकार बोध होता हरता है जैसे किसी अंधकाराच्छन्न दीवार की दूसरी ओर से आवाज आ रही हो । अर्थात् जैसे अंधकार में डूबी हुई दीवार की दूसरी ओर का व्यक्ति दिखाई तो नहीं देता है किन्तु उसकी फुसफुसाहट से उसके मस्तिष्क में कौन कुलबुला रहा है।
उसको यह अनुभूति होती रहती है कि उसका कोई-भाव विचार अचेतन से युक्त होकर चेतन में आने के लिए कुलबला रहा है। उसके रहस्यमय अस्तित्व की अनुभूति होते रहने पर भी उसके वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ होने के कारण उसके सम्बन्ध में जिज्ञासु हुए कवि के हृदय की धड़कन तीव्र हो जाती है और वह जिज्ञासु – भाव से प्रश्न कर उठता है कि वह कौन है? वह रहस्यमय आकृति किसकी है, जिसके अस्तित्व का मुझे आभास मिल रहा है, तथापि मैं उसको देख नहीं पा रहा हूँ।
तदन्तर जैसे किसी पुराने मकान या खण्डहर की दीवारों का पलस्तर समय की धूप-वर्षा-सर्दी की मार के कारण भुरभुरा होकर स्वतः ही झड़ने लगा करता है, उसकी चूना मिश्रित रेत शनैः शनैः स्वतः झड़ने लगा करती है और इस दीवारों पर चित्र विचित्र आकृतियाँ उभर आया करती हैं, उसी प्रकार कवि के अन्तर्मनसे भी पुरानी और विगत घटनाओं का रेत चूना मिश्रित पलास्टर झड़ने लगा है और उसके मानस असुरों के सम्मुख स्वतः ही एक बड़ा सा चेहरा उभरने लगता है।
अभिप्राय यह है कि जब कवि अपने उन भावों और विचारों के सम्बन्ध में जिन्हें उसने जमाने के विधि निषेधों के कारण दबा दिया था अनवरत चिन्तन-मनन करता है तो उसके अवचेतन रूपी अंधेरी गुफा में पड़े हुए वे भाव-विचार शनैः शनैः उभरने लगते हैं। उसको अनुभूति होती है कि उसकी आँखों के सम्मुख एक ऐसा सुहावना चेहरा उभर रहा है
जिसकी नाक नुकीली है, जिसका मस्तक अत्यधिक भव्य है और ठोड़ी बड़ी सुदृढ़ है। उस आकृति को देखकर विस्मय – विमुग्ध हुआ कवि सोचता है कि वह किसी आकृति है? यह मेरी पहचान में न आने वाला व्यक्ति कहीं मनु तो नहीं है? अभिप्राय यह है कि यह आकृति कहीं हमारे आदि पूर्वज मनु की तो नहीं है ?
विशेष
1. मनुष्य की बहुत-सी इच्छाएँ और विचार सामाजिक प्रतिबन्धों के कारण अभिव्यक्त नहीं हो पाते और उनका दमन किए जाने पर वे व्यक्ति के अर्द्धचेतन मस्तिष्क में और वहाँ से अचेतन मस्तिष्क में सोई पड़ी रहती है और उचित अवसर आने पर सक्रिय होने का प्रयास करती रहती है। मुक्तिबोध चूँकि दीन-दलित वर्ग की हिमायत करना चाहते थे, अतः यह कल्पना की जा सकती है कि सरकार के आतंक के कारण उनकी ये भावनाएँ उनके अर्द्धचेतन मस्तिष्क में चली गयी होगी। ‘इतने में…. इस तरह’ इन पंक्तियों में यही भाव व्यंजित हुआ है।
2. मुक्तिबोध फेटेसियों की रचना में अत्यधिक कुशल रहे और आलोच्य पंक्तियों में भी ऐसे ही रहस्यमय एवं फंतासीपरक वातावरण की सृष्टि की गई है।
3. ‘बार-बार’, ‘धक् धक्’, और ‘खुद-ब-खुद’ में पुनरुक्ति अलंकार होने के साथ-साथ, इन शब्दों के प्रयोग से अर्थाभिव्यंजना में भी सहायता मिलती है।
4. काव्य भाषा की दृष्टि से इन पंक्तियों में बोल-चाल की आम भाषा का प्रयोग किया गया है। अंग्रेजी के पलास्टर शब्द का कवि ने पलस्टर के रूप में हिन्दीकरण कर लिया है।
5. स्पर्श्य, श्रव्य एवं दृश्य बिम्बों की सुन्दर नियोजना की गई है।
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