बीती विभावरी जाग री | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | जयशंकर प्रसाद | - Rajasthan Result

बीती विभावरी जाग री | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | जयशंकर प्रसाद |

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बीती विभावरी जाग री ।

अम्बर पनघट में डुबो रहीतारा-घट उषा नागरी।

खग-कुल कुल कुल सा बोल रहा,

किसलय का अंचल डोल रहा,

लो यह लतिका भी भर लाई।

मधु मुकुल नवल रस गागरी।

अधरों में राग अमन्द पिये,

अलकों में मलयज बन्द किये।

तू अब तक सोई है आली

आँखों में भरे विहाग री।

बीती विभावरी जाग री

यही कवि प्रसाद की हार्दिक इच्छा है। गुलामी के युग में प्रसाद ने इस स्फूर्ति जागरण एवं स्वतंत्रता बोध के गीत से समग्र भारत में विजय भाव की अदा भावना भर स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया था।

प्रसंग एवं संदर्भ : प्रस्तुत कविता छायावाद के प्रमुख आधार स्तम्भ तथा वैविध्यमयी सृजन प्रतिभा के धनी महाकवि जयशंकर प्रसाद की शक्तिमयी लेखनी से सृजित हुई है। प्रसाद जी के अत्यंत प्रसिद्ध काव्य कृति “लहर” से ली गई इस कविता में प्रकृति की मनोरम एवं मनोहारी छ का छायावादी शैली में अत्यंत प्रभावी अंकन किया गया है।

प्रकृति के मानवीकरण का अन्यतम उदाहरण बनने वाली इस कविता में रात्रि के व्यतीत होने और प्रातःकालीन उषा नागरी को जागृत करने का अद्भुत वर्णन किया गया है। प्रकृति, शृंगार और राष्ट्रीय चेतना के अर्थों को ए साथ संजोकर चलने वाली यह कविता कवि प्रसाद की अलौकिक प्रतिभा की परिचायक भी बन है।

रात्रि के समाप्त होने की वेला पर अम्बर के सभी तारे धीरे-धीरे लुप्त होने लगते हैं और सूर्य के प्रथम रश्मियाँ उषा के आगमन का संदेश देने लगती हैं। चारों ओर एक मोहक एवं मनोहारी वेला होती है।

पक्षियों की चहकन, भँवरों की गुंजन, तितलियों की उड़ान, वृक्षों के पत्तों की मधु ध्वनि और पुष्पों की मीठी मुस्कान सभी प्रकृति की आभा को अलंकृत करते हैं। ऐसे में एक सर्ख दूसरी सखी से कहती है।

व्याख्या : हे सखि रात्रि बीत चुकी है। तू अब तक सो रही है? रात्रि के सभी व्यापार समाप्त हो रहे हैं। सारा संसार जागने लगा है और तू अभी तक सोई है। उठ। जाग सखि। यह सोने की वेर नहीं। यह तो जागृति का समय है।

उषा काल की इस वेला में, देख तारे भी विलीन होने लगे हैं ऐसा जान पड़ता है जैसे उषा रूपी नायिका (युवति) अम्बर रूपी पनघट में तारे रूपी घड़ों को एक-एक कर डुबोती जा रही है। अर्थात मबह के इस अवसर पर तारे भी छुपते जा रहे हैं। इसी ज्ञात होता है कि रात्रि बीत रही है और सवेरा हो रहा है।

प्रातःकालीन इस वेला में पक्षियों के समूह कुला-कुल की ध्वनि से पूरे वातावरण को मोहक बना रहे हैं। चहचहाते इन पक्षियों के स्वर भी जागरण का मंत्र दे रहे हैं। सुबह की मंद शीतल और सुगंधित हवा नव-पल्लवों को हिला-डुला रही है। हवा के हिडोले में झूलते-खेलते ये पत्ते धरती को हिला-डुला रही है।

हवा के हिडोले में झूलते-खेलते ये पत्ते धरती के लहराते आँचल से जान पड़ रहे हैं। ऐसे में लता पर सुशोभित हो रही पुष्प कलियों की रीति गागर भी मधु और परागरं भर गई है। कलियाँ अपने पुरे यौवन पर आ गई हैं। अतः हे सखि। तुम्हारे रतनार होठों से भरा यह राग क्यों शांत है?

तुम्हारे केशों में समायी चन्दन की सुगंध वातावरण में अभी तकं विकीर्ण क्यों नहीं ह? तेरी आँखों में अभी तक वियोग का विहाग राग भरा है। अर्थात तेरे प्रियतम से ते संयोग नहीं है और इसीलिए तू होठों का राग एवं केशों की सुगंध संजोए सो रही है। प्रसाद य सम्पूर्ण सृष्टि में रात्रि की जड़ता के अन्त और नवीन-स्फूर्ति के आगमन का मंत्र बाँटते हैं।

अलसाई और थकी हुई प्रियतमा को जगाना पूरे भारत को जगाना है। गुलामी के अंधकार की रात्रि बीत रही है और स्वतंत्रता के रक्षक अभी तक सी रहें हैं।

कवि का यह कहना कि “लो यह सुकमार लतिका भी अपनी कलिका रूपी गगरिया में नवल मधु के रस कण भर लाई और तुम अभी तक सो रहे हो? उत्साह का संचार कर गुलागी की नींद से जगाना ही है।

कवि इस आजादी की प्रातःकालीन वेला के नैसर्गिक सौंदर्य का रसास्वाद करने को प्रोत्साहित कर रहा है। प्रसाद में डूबी और नींद में खोई आत्माओं को जगाने का यह प्रयास सराहनीय है।

स्वतंत्रता सूर्य की किरणें, गुलामी के तारों को आभाहीन करती जा रही है। ऐसे सांस्कृतिक जागरण की वेला में सोते रहना कहाँ तक ठीक है? यहाँ समकालीन कवि एवं लेख की सुप्त प्रतिभा को भी जगाना चाहता है।

विशेष

• सुप्त नायिका के चित्र को प्रकृति के माध्यम से व्यक्त कर मानवीकरण का सुंदर उदाहरण प्रस्तुत किया गया है।

• अम्बर पनघट में डुबो रही तारा घट उषा नगरी में रूपक अलंकार है।

• अन्तिम पंक्तियों में सोती हुई विरहिणी नायिका का शृंगारिक चित्र प्रस्तुत है।

• खगकुल कुल-कुल सा बोल रहा में स्वाभावोक्ति, धर्मलुप्तोपमा और यमक अलंकार है। (खग कुल-पक्षियों का परिवार मा समूह, कुल-कुल ध्वनि)

• प्रगीत-प्रतिभा के अद्भुत उदाहरण बने इस गीत में अन्योक्ति अलंकार भी है।

• प्रसाद और माधुर्य गुण काव्य-सौंदर्य की श्रीवृद्धि कर रहे हैं। “अंचल डोल रहा” तथा “अमन्द पिये” आदि शब्दों में लक्षणा शब्दशक्ति है।

• बिरह विद्गधा तथा परित्यकता नायिका के इस चित्रण को प्रस्तुत करता यह गीत संगीतमय भी हैं, भावपूर्ण भी है और शिल्पगत सौंदर्य से सम्पन्न भी। सहज, सरल और चित्रात्मक शैली इसकी अपनी एक विशेषता है।

यह भी पढ़े :–

  1. ओ रही मानस की गहराई | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | जयशंकर प्रसाद |
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