रावरे रूप की रीति अनूप | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | घनानंद |
रावरे रूप की रीति अनूप, नयो नयो लागत ज्यौं ज्यौं निहारियै।
त्यौं इन आँखिन बानि अनोखी, अघानि कहूँ नहिं आनि तिहारियै॥
एक ही जीव हुतौ सु तौ वार्यौ, सुजान, संकोच औ सोच सहारियै।
रोकौ रहै न, दहै घनआनंद बावरी रीझि के हाथन हारियै॥ ।। 3 ।।
रावरे रूप की रीति अनूप
प्रसंग : प्रस्तुत छंद के रचयिता कवि घनानंद हैं। घनानंद स्वच्छंद काव्यधारा के आधार स्तंभ हैं। इन्होंने अपने काव्य में स्वच्छंद प्रेम के गीत गाये हैं। अपने व्यक्तिगत जीवन में इन्होंने जो कुछ भोगा, जो कुछ देखा उसी को अपने काव्य में वर्णित किया है। इस छंद में कवि ने अपनी मोहित स्थिति को स्पष्ट किया है। उनकी प्रेमिका सुजान बहुत ही सुन्दर है और यह विलक्षण सौंदर्य पल-पल नया रूप धारण कर लेता है।
व्याख्या : कवि अपनी प्रियतमा को उसके रूप-सौंदर्य के विषय में बताते हुए कहता है कि हे सुजान, तेरा रूप-सौंदर्य अद्भुत है, आपके रूप की रीति बड़ी अनोखी है। इसे ज्यों-ज्यों देखो यह हर बार नया-नया लगता है। उसकी गति बड़ी विचित्र है । यानि सुजान का रूप – सौंदर्य क्षण-क्षण परिवर्तनशील है।
उसे जितनी बार देखा जाए और जितना देखा जाए उसमें एक नवीनता की अनुभूति होती है। यही सुन्दरता की कसौटी है कि वह हर क्षण नवीन लगे। घनानंद के नेत्रों को भी अनोखी आदत पड़ गई है कि वह सुजान के रूप के अतिरिक्त और किसी को देखना भी पसन्द नहीं करते। किसी और को देखकर उन्हें तृप्ति नहीं मिलती।
उन्हें हर समय सुजान को देखना ही अच्छा लगता है। हे सुजान, मेरे पास एक ही प्राण था, वह भी मैंने तुम्हारे रूप-सौंदर्य पर न्यौछावर कर दिया, अब मैं लोक की लाज और परलोक की चिंता से मुक्त हो गया हूँ। मैं अपनी रीझ के हाथों सब कुछ हार गया हूँ अर्थात् मैं तुम्हारे प्रति इतना अनुरुक्त हूँ कि रोकने पर भी मैं अपने मन पर नियन्त्रण नहीं रख पाता। तुम्हारी याद मुझे निरन्तर जलाती रहती है, सताती रहती है। अर्थात् सुजान के प्रति बहुत अनुरुक्त हो गया हूँ।
विशेष
1. नायिका के अनुपम सौंदर्य का वर्णन हुआ है।
2. अपूर्व सौंदर्य को देखकर आँखें नत हो जाती हैं और पुनः देखने पर उसका रूप नवीन – सा दिखाई पड़ने लगता है।
3. छंद सवैया है।
4.अनुप्रास, पुनरुक्ति, विरोधाभास तथा उदाहरण अलंकार है।
5. शृंगार रस है।
6. ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।
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