विद्यापति पदावली की भाषा पर टिप्पणी कीजिए । - Rajasthan Result

विद्यापति पदावली की भाषा पर टिप्पणी कीजिए ।

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विद्यापति पदावली की भाषा मैथिली है। अपनी भाषा और अपनी रचनाओं के बारे में विद्यापति इतने आश्वस्त थे, उन्हें इतना आत्म-विश्वास था कि अपनी प्रारंभिक कृति “कीर्तिलता” में उन्होंने घोषणा कर दी – “बालचन्द विज्जावइ भासा | दुहु नहि लग्गइ दुज्जन हासा” अर्थात बालचन्द्रमा और विद्यापति की भाषा – दोनों ही दुर्जनों के उपहास से परे हैं। इसी तरह “महुअर बुज्झइ कुसुम रस, कव्व कलाउ छइल्ल” – अर्थात मधुकर ही कुसुम रस का स्वाद जान सकता है, जैसे काव्य रसिक ही काव्य कला का मर्म समझ सकता है। जनोन्मुख होने के सम्बंध में तो उन्होंने साफ-साफ लिखा –

विद्यापति पदावली की भाषा

सक्कअ वाणी बुहअण भावइ । 
पाउअ रस को मम्म न पावड् 
देसिल वअना सब जन मिट्ठा। 
तें तैसन जम्पओ अवहट्टा
अर्थात संस्कृत भाषा बुद्धिमानों को ही भाती है। प्राकृत में रस का मर्म नहीं मिलता। देशी भाषा सबको मीठी लगती है, इसीलिए इस प्रकार अवहट्ट में मैं काव्य लिखता हूँ।
जाहिर है कि लोकरुचि और लोकहित के पक्ष में सोचने वाले इतने बड़े चिन्तक जब पदावली रचने में लगे होंगे तो उन्होंने भाषा के बारे में एक बार फिर से सोचा होगा और उसकी भाषा तत्कालीन समाज की लोकभाषा मैथिली अपनाई होगी और अपने पदों में समकालीन समाज की चित्त वृत्ति का चित्र खींचा होगा।
मैथिली विद्यापति की मातृभाषा थी। उस काल के साहित्य या उससे पूर्व भी ज्योतिरीश्वर ठाकुर रचित “वर्णरत्नाकर'” के अनुशीलन से पता चलता है कि मैथिली उस समय की पर्याप्त समुन्नत भाषा थी। कीर्तिलता और कीर्तिपताका के बाद महाकवि ने मैथिली में ही लिखा और ये रचनाएं हैं इनकी पदावली। विद्यापति की भाषा भाव-बिंबात्मकता और अलंकार विधान की दृष्टि से भी उत्कृष्ट है। विरह मिलन के पदों में और राधा-कृष्ण के सौंदर्य वर्णन में कवि पूरा बिंब हमारे सामने परोस देता है :
गगन अब घन मेह दारून, सघन दामिनी झलकाई।
कुलिश पातन सबद झनझन, पवन खरतर बलगई।।
तेज वर्षा हो रही है, बिजली चमक रही है। कड़क कर वज्रपात हो रहा है और तेज हवा चल रही है। रात्रि की भीषणता रोमांचित करने वाली है। इस पूरे परिवेश से प्रिय मिलन की उत्कंठा और भी तीव्र हो जाती है। कवि ने ऐसे बिंबों का ही प्रयोग नहीं किया है बल्कि अलंकारों का भी सार्थक प्रयोग किया है। उन्होंने परंपरागत उपमाओं का प्रयोग करने के साथ-साथ नये उपमानों की भी सर्जना की है।

विद्यापति के गीतों की संप्रेषण शक्ति का असर यह है कि ये गीत श्रोताओं को अपने साथ बहा ले जाते हैं। श्रोता अपने में नहीं रहते, इन गीतों के अर्थात उन चित्रणों और दृश्यों के गुलाम हो जाते हैं। वे शब्द चित्र इतने जीवन्त होते हैं कि श्रोता उसकी काल्पनिकता से अनभिज्ञ हो जाते हैं और चित्र उनके सामने प्राणवान हो उठते हैं।
बोल-चाल की भाषा के शब्द और जनपद में व्याप्त लोकोक्तियों और मुहावरों को भुनाने की ऐसी अच्छी तरकीब अन्यत्र कम देखने को मिलेगी। कहा जा सकता है कि अपने काव्य उपादानों का महाकवि ने हर तरह से संभव हो सकने वाला दोहन किया है। यह दोहन किसी श्रेष्ठ कला-कौशल और उत्तम प्रतिभा वाले रचनाकार से ही संभव है।
लोक जीवन में व्याप्त मुहावरों का इनके गीतों में न केवल उपयोग हुआ है, बल्कि उसकी पृष्ठभूमि इनेके यहाँ बाकायदा गीत का विषय भी बना है। “मोरा रे अंगनवां चनन केर गछिया”, “पिआ मोरा बालक हम तरुणी गे” जैसे गीतों का लोककंठ में बस जाना इसी का परिणाम है।
पदावली में संस्कृत, अपभ्रंश, ब्रजभाषा, नेपाली, बंग प्रान्तीय, ओड़िया, असमिया आदि के शब्दों और अनेक कारक रूपों के साथ-साथ मगही, भोजपुरी जैसी उपभाषाओं के बड़े साफ और सहज प्रयोग हुए हैं। “भू परिक्रमा” पुस्तक के अवलोकन से विद्यापति के भौगोलिक ज्ञान और परिभ्रमण का अन्दाज लगता है।

जाहिर है कि कई स्थानों के भ्रमण के क्रम में इनकी ईमानदार लेखनी ने हर जगह के भ्रमण और हर भाषा के अनुशीलन का प्रभाव भूल जाने का प्रयास नहीं किया। हाल-हाल तक बंगाल के विद्वानों में विद्यापति को बंगला के रचनाकार घोषित करने की अफरा-तफरी मची हुई थी, शायद इसका कारण यही रहा हो।
इनकी भाषा की विशेषता यह रही कि समीपवर्ती कई अन्य भाषाओं के रचनाकार इनसे प्रभावित हुए बगैर नहीं रहे। बंगला, ओड़िया और असमिया के तत्कालीन साहित्य में या बहुभाषाविद प्रारंभिक श्रेष्ठ रचनाकारों के यहाँ इन प्रभावों की तलाश की जा सकती है। मैथिली से प्रभावित ब्रजबुलि भाषा में सैकड़ों वैष्णव पद एवं कविताओं की रचना बंग प्रदेश में हुई।
इस संबंध में डॉ० सुनीति कुमार चटर्जी और डॉ० दिनेश चन्द्र सेन आदि का मत है कि कई बंगाली रचनाकार मैथिली पर मुग्ध होकर उसमें रचना करने लगे। शताधिक बंगाली कवियों ने इस भाषा में काव्य रचना की। अनुकरण का प्रवाहं तो ऐसा हुआ कि कवि सम्राट रवीन्द्रनाथ ठाकुर पर्यन्त इसमें प्रवाहित हुए पर इस पर कोई अनुसंधान नहीं हुआ कि यह भाषा कहाँ की है।

यह भी पढ़े:—

  1. विद्यापति के काव्यगत विशेषता का मूल्यांकन करें
  2. विद्यापति भक्त या श्रृंगारिक कवि – विश्लेषण कीजिए
  3. विद्यापति के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालिए
  4. गीतिकाव्य की दृष्टि से विद्यापति की पदावली का मूल्यांकन कीजिए
  5. विद्यापति पदावली में भक्ति और शृंगार का द्वंद्व किस रूप में प्रकट हुआ है?
  6. विद्यापति की कविता में प्रेम और श्रृंगार के स्वरूप पर सोदाहरण प्रकाश डालिए।

 

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