अंगुरीन लौं जाय भुलाय तहीं फिरि आय | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद |
अंगुरीन लौं जाय भुलाय तहीं फिरि आय लुभाय रहै तखा ।
चपि चायनि चर स्वै एड़िनि छवै चपि धाय छके छबि छाय छवा।
घनआनन्द यौं रस – रीझनि भीजि कहूँ विसाल बिलोक्यौ न था।
अलबेली सुजान के पायनि-पानि परयौ न टरयौ मन मेरा झवा॥
अंगुरीन लौं जाय भुलाय
प्रसंग :— यह पद्य रीतिमुक्त धारा के प्रतिनिधि कवि घनानन्द द्वारा रचित ‘सुजानहित’ से लिया गया है। एक सेविका नायिका को स्नान करवा रही है, झांवे से रगड़-रगड़कर उसके तन की मैल उतारते समय वह उसके रूप सौंदर्य पर विमुक्त होकर रह जाती है। इस दृश्य एवं क्रिया को स्वरमय आकार देते हुए, इस पद्य में कविवर घनानन्द कह रहे हैं
व्याख्या :— नायिका के शरीर को सहलाती नहलाती सेविका का हाथ उसकी अँगुलियों तक पहुँचकर रुक गया। उसकी सुन्दरता पर लुभाकर वह पुनः उसके पैरो के तलवे विमुग्ध भाव से देखने लगी। बड़े चाव से भरकर उसने उसके पैर के टखने को दबाया और जल्दी से दौड़कर एड़ियों को छूने लगी। कविवर घनानन्द कहते हैं कि इस तरह प्रेम – रंग से रीझकर और उसमें सराबोर होकर उसने और कहीं भी, कुछ भी न देखा । अर्थात् वह पूर्णतया सौन्दर्य भाव में निमग्न होकर रह गई।
उस अलबेली प्रेमिका सुजान के पैरों की सुन्दरता के हाथों पड़कर, अर्थात् पैरों की सुन्दरता के वशीभूत होकर मेरा मन रूपी झांवा तनिक भी दबा नहीं । अर्थात् जैसे झांवा हाथ में पकड़ा रह जाता है, उसी प्रकार मेरा मन भी उसकी सुन्दरता पर अटककर रह गया । भाव यह है कि नायिका सुजान के पाँव, पाँव की एड़ियाँ तक बड़ी ही सुन्दर एवं आकर्षक थीं कि देखने वाला, बस देखता ही रह जाता।
विशेष
1. परम्परागत नख – शिख-सौंदर्य वर्णन के अन्तर्गत पैरों और उसकी एड़ियों की स्निग्ध सुन्दरता का भावविह्वल वर्णन किया गया है।
2. पद्य में छेकानुप्रास की छटा विशेष दर्शनीय है।
3. भाषा सानुप्रासिक, सरल और सतत प्रवाहमयी है। उसमें संगीतात्मकता भी है और चित्रमयता भी प्रसाद – गुण – प्रधान है।
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