अंग-अंग सयाम-रंग-रस की तरंग उठै | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद | - Rajasthan Result

अंग-अंग सयाम-रंग-रस की तरंग उठै | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद |

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अंग-अंग सयाम-रंग-रस की तरंग उठै, उमगनि भरि अति गहराई हिय प्रेम-उफनानि की|

पूर- र – पानिय सुखर ढरि, मीठी धुनि करै ताप हरै अंखियानि की ||
महाछवि-नीर – तीर गए तैं नटर्यो जाय, मोहनता निधि विधि पुहमि आनिकी | 
भान की दुलारी घनआनन्द जीवन – ज्यारी, वृन्दावन सोभा सींव सुख-सरसानि की || (३२)

अंग-अंग सयाम-रंग

 प्रसंग : यह पद्य कविवर घनानन्द विरचित ‘सुजानहित’ में से लिया गया है। इसमें कवि ने कृष्णप्रिय राधा की शोभा और स्वभाव का वर्णन किया हैं। राधा के तन-मन को कृष्ण के रंग-रस में विभोर बताते हुए, इस पद्य में कवि कह रहा है
व्याख्या : कृष्ण-प्रिया राधा के अंग-अंग में कृष्ण के प्रेम के आनन्द की लहरें हमेशा उठती रहती हैं। अर्थात् राधा का रोम-रोम हमेशा कृष्ण प्रेम में निमग्न रहा करता है। उसके हृदय रूपी सागर में बड़ी गहराई है और उसमें उठने वाली प्रेम भाव की लहरें भी अत्यन्त गहरी, रसीली और प्रभावी होती है।
पानी के प्रवाह में सुन्दरता से ढर कर जैसे उठती ही लहरें स्वर संगीत-सा भर देती हैं, उसी प्रकार राधा के मन में उठने वाली तरंगे भी उठकर बड़ी मधुर ध्वनि करती और अपने प्रभाव ये सारे तापों को शीतलता में बदल या हर लेती हैं।
वह वंशी की मधुर ध्वनियों से बाकर्षित होकर राधा के सागर रूपी कृष्ण के तट अर्थात् समीप जाने से अपने को रोक नहीं पाती। इस प्रकार वह धरती पर मोहन रूपी निधि को विधाता से माँगकर उतार करती हैं।
इस प्रकार कविवर घनानन्द कहते हैं कि वृषभानु की बेटी राधा वृन्दावन की शोभा तो है ही, सुख को अपनी असीमता से बढ़ाकर जीवन को जिलाने वाली अर्थात् नवजीवन दात्री भी है।

विशेष

1. इस पद्य को कवि द्वारा रचित भक्ति का पद कहा जा सकता है। कवि ने राधा के प्रेम का गरिमापूर्ण वर्णन किया है।
2. पद्य में उपमा, रूपक, उल्लेख, स्वाभावोक्ति, वीप्सा और अनुप्रास अलंकार है।
3. पद्य की भाषा – सरस, मधुर, संगीतात्मक एवं चित्रमयी है ।
  1. केलि की कलानिधान सुन्दरि महा सुजान | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद | (३१)
  2. अनखि चढ़े अनोखी चित्त चढ़ी उतरै न | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद | (३०)
  3. रति रंग-पगे प्रीति – पागे रैन जागे नैन | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद | (२९)

 

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