अंधा युग की समकालीन प्रासंगिकता पर विचार कीजिए
अंधा युग की समकालीन :— द्वितीय महायुद्ध के उपरांत प्रगतिवाद जब पूर्णतः साम्यवा. खेमे में आ गया तो हिन्दी के कुछ उत्साही नये कवियों ने सन् 1943 में तार सप्तक’ नाम से एक काव्य संग्रह निकाला। अज्ञेय के सम्पादन में प्रकाशित इस संग्रह में यह घोषणा की गयी- प्रयोग सभी कालों में कवियों ने किये हैं। यद्यपि किसी एक काल किसी विशेष दिशा में प्रयोग करने की प्रवृत्ति स्वाभाविक ही है,
किन्तु कवि क्रमशः अनुभव करता आया है कि जिन क्षेत्रों में प्रयोग हुए हैं उनसे आगे बढकर अब उन क्षेत्रों का अन्वेषण करना चाहिए जिन्हें अभी छुआ नहीं गया है. या अभेद मान लिया गया हैं।” सम्पादक ने इस संग्रह में प्रकाशित सभी सातों कवियों को ‘राहों के अन्वेषी’ बताया। इस ‘प्रयोग’ शब्द के कारण समीक्षकों ने इस धारा के काव्य को प्रयोगवाद और कवियों को प्रयोगवादी कहकर पुकारना प्रारम्भ कर दिया।
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अंधा युग की समकालीन
इस संग्रह के उपरांत सन् 1947 में अज्ञेय के ही सम्पादन में प्रकाशित मासिक प्रतीक’ में कवियों ने अपनी कविताओं को प्रयोगवादी कहकर इस प्रचलित धारणा को बल प्रदान किया। पुनः सन् 1951 में दूसरा सप्तक’ प्रकाश में आया, डॉ. भारती भी इसमें संग्रहीत थे। इस संग्रह में जिन कवियों की कविताएँ संकलित थीं, उन्होंने भी अपने वक्तव्यों में प्रयोगों की महत्ता को स्वीकार किया।
किन्तु कालान्तर में इन कवियों (अज्ञेय इनमें प्रमुख थे) ने अपनी कविता को प्रयोगवादी नाम से पुकारना उचित नहीं समझा और उन्हें प्रयोगशील की अभिधा दी गयी । प्रायः सर्वमान्य धारणा यही रही है कि प्रयोगवाद’ अथवा ‘प्रयोगशील’ काव्यधारा के प्रवर्तक अज्ञेय ही हैं, यद्यपि कुछ समीक्षक पन्त और निराला को ही प्रवर्तक मानते हैं।
‘प्रयोगवाद’ शब्द का विरोध करते हुए अज्ञेय ने कहा –“प्रयोग का कोई वाद नहीं है। हम वादी न ही रहे, न ही हैं। प्रयोग अपने आप में इष्ट या साध्य नहीं है। ठीक इसी तरह कविता का भी कोई वाद नहीं है। कविता भी अपने आप में इष्ट या साध्य नहीं है। अतः हमें प्रयोगवादी कहना उतना ही सार्थक या निरर्थक है, जितना हमें कवितावादी कहना।” (दूसरा सप्तक, भूमिका पृ. 6)
प्रयोगवाद, छायावाद एवं प्रगतिवाद की कतिपय मान्यताओं के विरोध में उठ खडा हुआ आन्दोलन है। छायावादी मांसल सौंदर्य और प्रगतिवाद के व्यष्टि का समष्टि में तिरोहीतीकरण ही इस विरोध के मूल आधार हैं। अज्ञेय ने प्रयोगवाद का विरोध करते हुए प्रगतिशील शब्द को कई बार व्यवहृत किया है।
डॉ. धर्मवीर भारती प्रयोगवादी कविताओं के सृजन को द्वितीय महायुद्ध की विभीषिका से सम्बद्ध मानवीय संकट और मानवीय विघटन से उद्भूत मानते हैं। वह लिखते हैं-“विज्ञान की इस परिणति ने एक अजीब-सी विषम स्थिति ला दी – । इस सारे अभियन्ता का केन्द्र बिन्दु था मनुष्य और वह एक विचित्र शून्यता में परिवर्तित हो गया।
इसके लिए मूल्य-निर्धारण की कसौटी क्या? उसकी यह विकास यात्रा हो किसलिए रही है? इसके लिए विज्ञान के पास कोई साधन नहीं था। अभी तक जो तत्व मनुष्यों को पशुओं से पृथक करते थे, यानी उसकी विवेकपूर्ण में संकल्प-शक्ति, उसकी नैतिक चेतना, उन दोनों ने विज्ञान को अमान्य सिद्ध कर दिया। परिणाम यह था कि हम सारे मूल्यों का अवमूल्यन पाते हैं- एक विराट् अराजकता, एक घातक अंधकारमय शून्य ।
मूल्यों के इस विघटन ने कैंसर की तरह मानवीयता को अंदर से खोखला बनाना शुरू कर दिया। प्रकृति पर ज्यों-ज्यों विजय प्राप्त हुई मनुष्य त्यों-त्यों अपने को हारता गया। इसके पहले कि विज्ञान और दर्शन इस संकट का अनुभव करते साहित्य ने इस संकट का एहसास कर लिया था ।” ( आधुनिकता का बोध: कल्पना फ. 61, पृ. 40-41 )
अब हम प्रयोगवादी अथवा प्रयोगशील कविता की प्रवृत्तियों की दृष्टि से डॉ. भारती के काव्य का विवेचन करेंगे।
डॉ. शिवकुमार मिश्र भारती को प्रयोगवादी कवियों में एक विशिष्ट स्थान का अधिकारी प्रमाणित करते हुए कहते हैं—“जहाँ तक धर्मवीर भारती का प्रश्न है, अज्ञेय के पश्चात् प्रयोगवाद के सर्वप्रमुख कवि के रूप में वे प्रारम्भ से ही मान्यता प्राप्त करते रहे हैं। उनकी प्रारम्भिक रूमानी रुझानों को छोड़ भी दें तो ‘सात गीत वर्ष, संग्रह की अनेक रचनाएँ प्रयोगवादी दृष्टि के साँचे में ढली वस्तु का ही बोध कराती हैं।” ( नया हिन्दी काव्य, पृ. 15 )
इसी प्रकार आधुनिक समय के प्रखर कवि – आलोचक गिरिजाकुमार माथुर उनके विषय में लिखते हैं-“आधुनिक प्रवृत्ति के दूसरे उन्मेष में वर्तमान पीढ़ी का ऐतिहासिक संताप तथा विघटित मूल्यों के संदर्भ में व्यापक सांस्कृतिक संक्रमण का सबसे प्रखर स्वर धर्मवीर भारती के कृतित्व में है
जो ‘पराजित पीढ़ी के गीत’ से लेकर ‘अन्धा युग’, ‘कनुप्रिया’, ‘सृष्टि का आखिरी आदमी’ और ‘सम्पाति’ तक उत्तरोत्तर समृद्ध हुआ है। भारती में अन्तर्सत्य और वस्तु-सत्ता का ऐसा कलात्मक सामंजस्य है जो उन्हें दूसरे चरण के कृतिकारों से अलग पीठिका पर प्रतिष्ठित कर देता है।” ( नयी कविता : सीमाएँ और संभावनाएँ, पृ. 17 )
इन कथनों के संदर्भ में जब हम प्रयोगवादी काव्य प्रवृत्तियों का अध्ययन करते हैं तो निम्नलिखित प्रवृत्तियों को उनके काव्य में पाते हैं-
1. अहंवाद –
प्रयोगवादी काव्य-धारा में अहं की भावना अत्यन्त विकसित रूप में उपलब्ध होती है। अज्ञेय के ‘त्रिशंकु’ में अहं की भावना अपने प्रखर रूप में स्थित है। डॉ. भारती का काव्य भी इससे कम ग्रस्त नहीं है। उनके काव्य में व्यक्ति अथवा उसके अहं की इस अभिव्यक्ति को विविध आवरणों में देखा जा सकता है। वह जब अभिमन्यु के पहिये को प्रतीक रूप में ग्रहण कर अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति करते हैं तो वस्तुतः अपने व्यक्ति की गुरुता व उसके महत्व का प्रतिपादन ही करते हैं
मैं रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ,
लेकिन मुझे फेंको मत।
( टूटा पहिया )
‘अन्धा युग’ का अश्वत्थामा भी इसी अहं भावना से ग्रस्त है। वह अपने व्यक्तित्व के अतिरिक्त किसी सत्ता को स्वीकार नहीं करता। वह अपने अहं की रक्षा के लिए बर्बर पशु बनने को भी तत्पर हो उठता है-.
किन्तु नहीं !
जीवित रहूँगा मैं
अन्धे बर्बर पशु-सा
2. अनास्थावादिता –
जिन परिस्थितियों एवं प्रेरणाओं ने प्रयोगवादी को अहंवादी बनाया, उन्हीं ने उसे युग-जीवन के प्रति एक अनास्थामय दृष्टिकोण से भी अभिभूत कर दिया। इस अनास्था ने ही उन्हें शंकालु बना दिया। सामाजिक पथ पर जब भी उसके कदम उठने को तत्पर हुए, उसका शंकालु मन जैसे उसकी गति को बींध देता रहा। भारती के इस काव्यांश में इस अनास्था और तज्जन्य शंका को देखा जा सकता है
कूड़े सा हमको तज कर तट के पास
मंथर गति से बढ़ जाएगा इतिहास
सामूहिकता भी केवल
साबित होगी जिस दिन छल
अपनी वैयक्तिकता हार क्या पाएँगे प्रभु, हम क्या पाएँगे।
(जिज्ञासा)
और कवि के सम्मुख इसके अतिरिक्त कोई मार्ग ही शेष न रहा कि अपनी टूटी हुई आस्था को लिए हुए अथवा उसके टूटने की शंका से व्याकुल किन्हीं अदृश्य चरणों में वह अपने को सौंपकर संतोष का अनुभव कर सके
जिस दिन अपनी हर आस्था तिनके सी टूटे
जिस दिन अपने अंतरतम के विश्वास सभी निकलें झूठे।
उस दिन होंगे वे कौन चरण
जिसमें इस लक्ष्य भ्रष्ट मन को मिल पावेगी अंत में शरण |
‘अन्धा युग’ में यह अनास्थावादिता और शंका कई स्थलों पर देखी जा सकती है। यहाँ तक की जीवन भर आस्थावादी रहने के उपरांत अंत में युयुत्सु और विदुर तक अनास्थावादी बन जाते हैं । युयुत्सु की अनास्थावादिता इन पंक्तियों में अत्यन्त स्पष्ट रूप में मुखर हुई है
आस्था नामक यह घिसा हुआ सिक्का
अब मिला अश्वत्थामा को
जिसे नकली और खोटा समझकर मैं
कूड़े पर फेंक चुका हूँ वर्षों पहले !
(शंका, पाटल, अप्रैल 1954)
3. नैराश्य कुण्ठा और घुटन –
प्रयोगवादी काव्य में नैराश्य, कुण्ठा और घुटन का भी व्यापक प्रदर्शन हुआ है। कवि की एकान्त व्यक्तिवादिता, आत्मलीनता एवं सामाजिक विषमताओं से एकाकी ही संघर्ष करने से प्राप्त असफलता ही इसका कारण है।
मानव-मूल्यों के विघटन से उत्पन्न सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक संघर्ष और वैयक्तिक स्वतंत्रता की मांग एवं शून्य हृदयों की चीखों और पुकारों ने प्रयोगवादी कवि को निराशा और अवसाद के कुहरे में लपेट लिया। निराशाजन्य अनुभूतियाँ ही उसके पास व्यक्त करने को शेष रह गई हैं। डॉ. भारती के काव्य में इस मनःस्थिति का भी चित्रण हुआ है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है
ऐसा लगता आज कि मेरा सारा जीवन नष्ट,
ऐसा लगता आज की मेरी सभी साधना भ्रष्ट
मैंने हरदम घोटा, अपने सपनों का सच
नैराश्यजन्य कुण्ठा ने कवि के मन में जिस वेदना को जगाया है वह उसे झकझोर देती है। वह अपने । जीवन को नदी तल की रेत मानता है जो कभी भी बह सकती है। उदाहरण द्रष्टव्य है
मैं हूँ नदी तल की रेत
अर्पित हूँ
लेकिन किसी भी क्षण पाँवों तले से
बह जाऊँगी।
वह मनसा वृद्ध हो चला है। युवा मन में यह वृद्धता बोध उसके घोर नैराश्य का ही सूचक है। और इसका कारण है उसका मानसिक क्लेश, जिसकी घनीभूत कालिमा ने उसे असमय में ही वृद्ध जर्जर बना दिया है
तुम लिखती हो
इस नयी उम्र में जाने कैसा
असमय जर्जर वृद्धापन
इस तन-मन पर बूढ़े मुर्दा अजगर सा बैठ जाता है।
( सात गीत वर्ष)
‘अन्धा युग’ काव्य में भी यह नैराश्य भावना अत्यन्त प्रखर रूप में उजागर हुई है। यहाँ कवि यथार्थ के प्रति भीरू और उदासीन दिखाई देता है
हम सबके मन में गहरा उतर गया है युग
अँधियारा है, अश्वत्थामा है, संजय है,
है दास-वृत्ति उन दोनों वृद्ध प्रहरियों की
अन्धा संशय है, लज्जाजनक पराजय है
( ठण्डा लोहा)
4. आस्था और विश्वास –
जहाँ एक ओर प्रयोगवादी कवि अनास्थावादी है और शंकालु है वहीं दूसरी ओर उसमें आस्था और विश्वास भी गहन स्तरों पर मिलता है। धर्मवीर भारती में आस्था और अनास्था का गहन द्वन्द्व मिलता है। उनका स्वर अनास्थावादी होते हुए भी आस्थावादी है और उनमें एक ऊर्ध्व चेतनायुक्त विश्वास है । ‘अन्धा युग’ के सभी अनास्थावादी पात्रों की अन्तिम परिणति आस्था और विश्वास में ही हुई है। अश्वत्थामा के इस कथन में उसकी आस्थावादिता और विश्वास ही स्पष्ट हो रहे हैं
यह जो अनुभूति मिली है
क्या यह आस्था है ?
इसी प्रकार इन पंक्तियों में भी इस आस्था के दर्शन किये जा सकते हैं
ठहरो, ठहरो, ठहरो, ठहरो हम आते हैं
हम नयी चेतना के बढ़ते अभिराम चरण
हम मिट्टी की अपराजित गतिमय संतानें
हम अभिशापों से मुक्त करेंगे कवि का मन । (संक्रान्ति)
5. लघुमानववाद और निरीहता –
अपनी भावनाओं के व्यक्तीकरण के लिए कवियों ने अनेक स्थलों पर अपनी लघुता एवं निरीहता का बड़े ही मार्मिक शब्दों में वर्णन किया है। डॉ. भारती के काव्य में भी यह लघुता और निरीहता बड़े प्रभावोत्पादक ढंग से व्यक्त हुई है। एक उदाहरण देखिए
यह महाकाल के जबड़े जैसा अँधियारा
मैं इसमें घुट मर जाऊँगा
कोई मुझको छुटकारा दो
कोई मुझको……
( ठण्डा लोहा )
यही निरीहता कई स्थलों पर अपने पापों और अपराधों की स्वीकृति के रूप में भी व्यक्त हुई है
हम सबके दामन पर है दाग,
हम सबकी आत्मा में झूठ
हम सब के माथे पर शर्म
हम सबके हाथों टूटी तलवारों की मूठ ।
6. भोगवाद –
अतृप्त वासनाओं, यौन विकृतियों और अपनी भोगी प्रवृत्ति की तुष्टि भी प्रयोगवादी काव्य की एक विशेषता है । यौन-भावना कहीं अपनी सीमा का अतिक्रमण कर अश्लीलता को न छू ले, इसके लिए उन्होंने विविध प्रतीकों का आश्रय लिया। डॉ. भारती के काव्य में इस अतृप्त वासना का व्यक्तीकरण इस प्रकार हुआ
जिस दिन ये तुमने फूल बिखेरे माथे पर
अपने तुलसी दल पावन होंठों से,
मैं महज तुम्हारे गर्म वक्ष में शीष छुपा,
चिड़ियों के सहमे बच्चे सा
हो गया मूक ।
( दूसरा सप्तक )
प्रतीकों के माध्यम से अपनी यौन भावना को उन्होंने इस प्रकार व्यक्त किया है
मुझे तो वासना का विष हमेशा बन गया अमृत,
बशर्ते वासना भी हो तुम्हारे रूप से आबाद । ( ठंडा लोहा )
प्रयोगवादी काव्य में कई स्थलों पर भदेस चित्रण भी हुआ है किन्तु डॉ. भारती की कविताओं में हम इसे प्रायः नहीं पाते ।
7. प्रकृति-चित्रण –
प्रयोगवाद में केवल व्यक्ति की मानसिक उलझनों का ही चित्रण नहीं है वरन् उसकी दृष्टि प्रकृति की ओर भी गयी है। डॉ. भारती ने भी प्रकृति का अत्यन्त भव्य चित्रण अपने काव्य में प्रस्तुत किया है। उनकी साँझ एक ऐसी लडकी है जो अत्यधिक थकी हुई है और कवि के निकट सुस्ताने के लिए आकर बैठ गई है
नींद भरी, तरलायित, बड़री, कटावदार आँखें मूँद
शाम
एक सफर में थकी हुई लड़की सी
आयी और मेरे पास बैठ गई।
8. यथार्थ चित्रण –
प्रयोगवादी काव्य अति यथार्थवाद का आग्रही है। इससे नैतिक तथा सौंदर्य सम्बन्धी मूल्यों का अतिक्रमण हुआ। अज्ञेय के साथ ही डॉ. भारती के काव्य में भी यथार्थ चित्रण के दर्शन किये जा सकते हैं। एक उदाहरण देखिए —
‘अन्धा युग’ तो पूर्णतः प्रतीकात्मक रचना ही है, जिसका प्रत्येक पात्र किसी न किसी प्रतीक का द्योतक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि भारती के काव्य में प्रयोगवाद की प्रायः सभी प्रवृत्तियाँ उपलब्ध होती हैं और निस्संदेह उन्हें एक प्रमुख प्रयोगशील कवि कहा जा सकता है।
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