अंधा युग की समीक्षा । डॉ धर्मवीर भारती।
अंधा युग की समीक्षा अंधा युग प्रयोगवादी शैली में लिखा गया प्रमुख गीतिनाट्य है गीतिनाट्य होने के कारण इसकी समस्त कथा कथोपकथनों से सुगुम्फित हुई है| संस्कृत आचार्य ने नाटक की कथावस्तु का प्रख्यात होना आवश्यक माना है। आचार्य विश्वनाथ में अपने साहित्य दर्पण में स्पष्ट रूप से लिखा है
नाटक ख्यातवृत्त स्यात् पंच संधि समन्वितम्
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अंधा युग की समीक्षा
अंधा युगकी कथावस्तु भी ख्यात है जैसा कि स्वयं डॉक्टर भारती ने निर्देश में स्पष्ट किया है इस दृश्य काव्य में जिन समस्याओं को उठाया गया है उनके सफल निर्वाह के लिए महाभारत के उत्तरार्ध की घटनाओं का आश्रय ग्रहण किया गया है। अधिकतर कथावस्तु प्रख्यात है केवल कुछ ही तत्व उत्पाद्य हैं| कुछ स्वकल्पिक पात्र और कुछ स्वकल्पिक घटनाएं। प्राचीन पद्धति भी इसकी अनुमति देती है स्थापना और समापन भी पुरानी परंपरा को नए परिवेश में प्रस्तुत करते हैं।
इस प्रकार उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट है कि यद्यपि कुछ तत्व उत्पाद्य हैं किंतु मूल कथानक प्रख्यात ऐतिहासिक अथवा पौराणिक है। यह सर्वविदित है कि श्री कृष्ण धृतराष्ट्र, गांधारी, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, कृतवर्मा, विदुर युधिष्ठिर युयुत्सु व्यास एवं बलराम महाभारत में स्पष्ट रूप से उल्लेखित हैं। यह तथ्य भी महाभारत सम्मत है कि कौरवपति धृतराष्ट्र अंधे थे और गांधारी ने दृष्टि रखते हुए भी अपनी आंखों पर आजीवन पट्टी चढ़ाये रखी थी| अंधा युग की समीक्षा अंधा युग की समीक्षा
संजय को व्यास ने दिव्य दृष्टि प्रदान की थी द्रोणाचार्य युधिष्ठिर के अर्धसत्य के कारण मारे गए थे भीम ने कृष्ण के संकेत पर दुर्योधन पर अधर्म वार किया था। कृपाचार्य और कृतवर्मा के साथ वन में सोए हुए अश्वत्थामा ने एक उल्लू द्वारा सुसुप्त कौओं की हत्या होते देख पांडवों की हत्या करने की योजना बनाई थी और उसी प्रकार सोते हुए पांडव वीरों को उसने अर्धरात्रि में मार डाला था। प्रतिशोध लेने के लिए अर्जुन ने उस पर आक्रमण किया और अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया कृष्ण ने उसे अभिशाप देकर कोढी बना दिया और उससे मणि ले ली थी। अंधा युग की समीक्षा
इस पुराण प्रसिद्ध कथा को नाटककार ने युग अनुसार सांचे में डालने के लिए उसमें आधुनिकता का समावेश किया है और मूल कथानक को सुरक्षित रखते हुए उन घटनाओं और पात्रों को प्रतीकात्मक स्वरूप प्रदान किया है। कल्पित कहने के नाम पर केवल प्रहरी द्वय है एवं भविष्यवक्ता वृद्ध याचक उत्पाद पात्र है और उनसे संबंधित समस्त घटनाएं भी कल्पित हैं ऐसा केवल प्रतीकात्मकता बनाए रखने के लिए किया गया है।
अपनी एक समीक्षा पुस्तक में डॉ भारती ने अंधा युग के विषय में जो टिप्पणी दी है उससे सहमत हुआ जा सकता है वह लिखते हैं कि बाह्य यह घटनाओं की अपेक्षा साहित्यकार का ध्यान सामाजिक व्यवस्था द्वारा अद्भुत जटिल राग आत्मक स्थितियों और उन से उत्पन्न होने वाली विषमताओं विकृतियों तथा असंतुलन पर केंद्रित रहता है। और वह उन्ही का परिहार एवं परिष्कार करता है।
कभी वह उसके लिए तात्कालिक नाम, स्थिति और पृष्ठभूमि ग्रहण करता है, वह उसी को पौराणिक और काल्पनिक देशकाल और पात्रों के माध्यम से अभिव्यक्त करता है. कभी वह उसके लिए अप्रस्तुत प्रतीकों और संकेतों का आश्रय लेता है। साहित्यकार अपने स्तर पर, अपने ढंग से संस्कृति की विराट् प्रक्रिया में योग देता है। रसानुभुति और सौंदर्यबोध उसके माध्यम हैं और युग, काल एवं परिस्थितियों के अनुसार जैसी भी जटिलताएँ होती हैं, वैसी ही सूक्ष्म तथा अप्रत्यक्ष रीति से वह अपना कार्य करता है।”
(मानव मूल्य और साहित्य, पृ॰ 152-53) कथावस्तु की प्रामाणिकता के बाद अब हम अन्धा युग’ के कथानक की शास्त्रीय विवेचना पौरस्त्य और पाश्चात्य – दोनों दृष्टिकोणों से प्रस्तुत करेंगे ।
जहाँ तक भारतीय काव्यशास्त्रियों की व्याख्या का प्रश्न है, उनके अनुसार नाटक के कथानक में पांच अर्थ प्रकृतियाँ- बीज, बिन्दु, पताका, प्रकरी और कार्य का होना आवश्यक है। इन पाँच अर्थ प्रकृतियों की भी पाँच अवस्थाएँ होती हैं जिनका समायोजन महत्वपूर्ण है। ये अवस्थाएँ हैं—आरम्भ, यत्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति और फलागम । इसके साथ ही पाँच संधियाँ भी सुनियोजित होनी चाहिएँ ।
ये संधियाँ उपर्युक्त अर्थ प्रकृतियों और अवस्थाओं के संयोग से बनती हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं-मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श और निर्वहण । वास्तव में ये संधियाँ कथावस्तु को टुकड़ों में बाँट देती हैं और इसीलिए स्वभावतः नाटक भी अनेक खण्डों में विभक्त हो जाता है। नाटक में संधियों का कार्य उसकी समस्त अर्थ राशि को परस्पर सम्बद्ध कर देना है।
संधियों का निमार्ण इस प्रकार होता है- बीज और आरम्भ के संयोग से मुखसंधि, बिन्दु और यत्न से प्रतिमुख संधि, पताका और प्राप्त्याशा से गर्भ संधि, प्रकरी और नियताप्ति से विमर्श संधि और कार्य तथा फलागम से निर्वहण संधि होती है।
‘अन्धा युग’ का प्रमुख उद्देश्य है समाज में मानव मूल्यों की स्थापना और उनके द्वारा ही मनुष्य के भविष्य की सुरक्षा को सम्बद्ध करने की घोषणा । इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु नाटककार ऐसे लोगों के चरित्र प्रस्तुत करता है जो तन से ही नहीं मन से भी अन्धे हैं; अमानुषिक, कुंठित और निष्क्रिय हैं। इनकी तुष्टीकरण की नीति के विरूद्ध लेखक को अपने उद्देश्य में सफलता पानी है।
इसलिए वह प्रारम्भ में ही विष्णु पुराण को उद्धृत करके अपनी कार्य सिद्धि का मार्ग प्रशस्त करता है। इस उद्घोषणा में ही ‘बीज’ नामक अर्थ प्रकृति, ‘आरम्भ’ नामक कार्यावस्था और ‘मुख’ नामक संधि के दर्शन हो जाते हैं, क्योंकि इसमें भविष्य की घटनाओं की पूर्व सूचना के साथ ही कृष्ण को मानव-भविष्य का रक्षक घोषित कर दिया जाता है|
युद्धोपरांत,
यह अन्धा युग अवतरित हुआ
जिसमें स्थितियाँ, मनोवृत्तियाँ, आत्माएँ सब विकृत हैं
है एक बहुत पतली डोरी मर्यादा की
पर वह भी उलझी है दोनों ही पक्षों में
सिर्फ कृष्ण में साहस है सुलझाने का
वह है भविष्य का रक्षक, वह है अनासक्त
पर शेष अधिकतर हैं अन्धे
पथभ्रष्ट, आत्महारा, विगलित
अपने अंतर की अन्धगुफाओं के वासी
यह कथा उन्हीं अन्धों की है;
या कथा ज्योति की है अन्धों के माध्यम से।
उपर्युक्त उद्धरण में लेखक ने अन्धों के माध्यम से ज्योति की कथा कहने की बात कही है। इसलिए इस सूचना में बीज, आरम्भ और मुख की स्थिति है। इसके बाद कथा आरम्भ होती है। जब वृद्ध याचक धृतराष्ट्र और गांधारी के निकट आकर यह स्पष्ट करता है कि मेरी भविष्यवाणी के झूठी होने का कारण कृष्ण हैं जो सहसा ही युद्ध में अवतरित हुए और उन्हीं के कारण नक्षत्रों की गति बदल गयी। इस प्रकरण में ‘यत्न’ नामक कार्यावस्था और ‘बिन्दु’ नामक अर्थ प्रकृति के दर्शन होते देखिए
आज मेरा विज्ञान सब मिथ्या ही सिद्ध हुआ। सहसा एक व्यक्ति ऐसा आया जो सारे नक्षत्रों की गति से भी ज्यादा शक्तिशाली था। उसने रणभूमि में विषादग्रस्त अर्जुन से कहा’मैं हूँ परात्पर । जो कहता हूँ करो सत्य जीतेगा मुझसे लो सत्य, मत डरो ।’
कथा बड़ी नाटकीयता के साथ क्रमशः आगे बढ़ती है किन्तु पताका और प्रकरी के दर्शन सहजता से नहीं हो पाते। ढूँढ़ने पर तो वह भी मिल ही जाएँगे। इनके बाद प्राप्त्याशा कार्यावस्था और गर्भ संधि के दर्शन उस स्थल पर होते हैं जब एक ओर तो अन्धे धृतराष्ट्र अपने स्वनिर्मित सत्य के मिथ्यात्व को पहचान कर ‘सत्य’ को अग्निमाला के रूप में धारण करना चाहते हैं और दूसरी ओर अश्वत्थामा कृष्ण के आहत पाँव से निकलते पीप भरे रक्त से अपनी पीड़ा का शमन जान उनके प्रति आस्थावान और श्रद्धालु हो उठता है
(i) धृतराष्ट्र – देखकर नहीं यह सत्य ग्रहण कर सका तो आज मैं अपनी वृद्ध अस्थियों पर सत्य धारण करूँगा अग्निमाला-सा !
( ii)अश्वत्थामा – यह जो अनुभूति मिली है क्या यह आस्था है ?
उक्त दोनों उद्धरणों में प्राप्त्याशा और गर्भ संधि के दर्शन किये जा सकते हैं। चौथी कार्यावस्था नियताप्ति और विमर्श संधि के दर्शन उस स्थल पर होते हैं जब युयुत्सु और संजय मानव-भविष्य की रक्षा के प्रश्न पर शंकालु हो उठते हैं । युयुत्सु के प्रश्न का उत्तर देने में संजय और विदुर दोनों ही असमर्थ हैं। उसी समय कृष्ण का वधिक व्याध उनको जो उत्तर देता है उसमें निर्वहण संधि भी मिल जाती है। व्याध कहता है :-
बोले अवसान के क्षणों में प्रभु –
“मरण नहीं है ओ व्याध !
मात्र रूपान्तरण है यह
सबका दायित्व लिया मैंने अपने ऊपर
अपना दायित्व सौंप जाता हूँ मैं सबको
अब तक मानव-भविष्य को मैं जिलाता था
लेकिन इस अन्धे युग में मेरा एक अंश
निष्क्रिय रहेगा, आत्मघाती रहेगा
और विगलित रहेगा
संजय, युयुत्सु, अश्वत्थामा की भाँति
क्योंकि इनका दायित्व लिया है मैंने !”
बोले वे
“लेकिन शेष मेरा दायित्व लेंगे बाकी सभी……
मेरा दायित्व वह स्थित रहेगा
हर मानव-मन के उस वृत्त में
जिसके सहारे वह
सभी परिस्थितियों का अतिक्रमण करते हुए
नूतन निर्माण करेगा पिछले ध्वंसों पर !
मर्यादायुक्त आचरण में
नित नूतन सृजन में
निर्भयता के
साहस के
ममता के
रस के
क्षण में
जीवित और सक्रिय हो उहूँगा मैं बार-बार !”
इस प्रकार कृति का उद्देश्य ‘मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा से अनागत की सुरक्षा’ के रूप में फलागम नामक कार्यावस्था चरितार्थ हो जाती है ।
पौरस्त्य दृष्टिकोण के विवेचन के उपरान्त यदि हम पाश्चात्य विद्वानों की धारणा पर दृष्टिपात करें तो यह देखते हैं कि उनके अनुसार नाटक की संरचना से दस तत्व सम्बद्ध होते हैं। ये तत्त्व हैं |
1. उद्घाटन (एक्सपोजीशन)
2. अन्वेषण (डिस्कवरी)
3. आक्रमण बिन्दु (प्वाइण्ट आफ अटैक)
4. पूर्व छाया (फार शैडोइंग)
5. संकट (कम्प्लीकेशन)
6. चरमावस्था (क्लाइमेक्स)
7. संघर्ष (क्राइसिस)
8. निर्वहण (डेन्यूमां )
9. कालान्विति (यूनिटी आफ टाइम)
10. स्थानान्विति ( यूनिटी आफ प्लेस )
ये तत्व यद्यपि देखने में अधिक हैं किन्तु किसी न किसी रूपाकार में ये सभी तत्व महत्वपूर्ण नाटकों में उपलब्ध हो ही जाते हैं। हाँ, यह आवश्यक नहीं है कि ये सभी तत्व इसी क्रम से प्रत्येक नाटक में उपलब्ध हों हीं, उनमें क्रमान्तर भी हो सकता है। यथा उद्घाटन का प्रयोग पूर्व छाया में भी हो सकता है अथवा चरमावस्था और संघर्ष की स्थिति एक साथ आ सकती है, किन्तु फिर भी नाटक की रचना में कथावस्तु से सम्बद्ध इतनी सामग्री महत्वपूर्ण है।
ज्यों ही रंगमंच पर गतिविधियाँ प्रारम्भ होती हैं और पर्दा सरकने लगता है, दर्शकगण आतुरता से नाटक के प्रारम्भिक कार्य व्यापार को देखने के लिए उत्सुक हो उठते हैं। यह वह क्षण है जब नाटककार के सम्मुख दो महत्वपूर्ण सवाल उभरते हैं- प्रथम तो यह कि वह किस प्रकार दर्शकों के ध्यान को अपने नाटक के प्रति आकर्षित करे? दूसरा यह कि किस प्रकार वह अपने नाटक की समस्त पृष्ठभूमि से दर्शकों को अवगत करा दे, ताकि दर्शक उसके पात्रों के पारस्परिक सम्बन्धों से परिचित हो जाएँ।
नाटक की मूल समस्या और उससे सम्बद्ध प्रश्न से वे सम्बद्ध हो जाएँ और अंततः वे नाटक से सम्बद्ध हो जाएँ। उद्घाटन पक्ष को ‘अन्धा युग के स्थापना खण्ड में देखा जा सकता है जब नर्तक भावनृत्य करते हुए मंच पर आता है और इसके साथ ही नेपथ्य से यह उद्घोषणा होती है
जिस युग का वर्णन इस कृति में है उसके विषय में विष्णु पुराण में कहा है
: ‘ततश्चानुदिनमल्पाल्प हास व्यवच्छेददाद्धर्मार्थयोर्जगतस्संक्षयो भविष्यति ।’
उस भविष्य में
धर्म-अर्थ हासोन्मुख होंगे
क्षय होगा धीरे-धीरे सारी धरती का ।
‘तत्श्चार्थ एवाभिजन हेतु ।’
सत्ता होगी उनकी ।
जिनकी पूँजी होगी।
युद्धोपरांत,
यह अन्धा युग अवतरित हुआ
या कथा ज्योति की है अन्धों के माध्यम से
नाटककार का नैतिक दायित्व है कि पात्रों की प्रकृति और उनकी मनोवृत्ति को कारण सहित बताये। इनका अन्वेषण वह दर्शक के समक्ष प्रस्तुत करता है। किन्तु स्वयं प्राप्त किया गया अन्वेषण अधिक कलात्मक, स्वाभाविक और प्रभावी होता है। अन्धा युग’ में दोनों प्रहरी और वृद्ध याचक की प्रेतात्मा स्वयं अन्वेषण करके दर्शक पाठक के समक्ष उपस्थित होते है।
आक्रमण बिन्दु के दर्शन उस स्थल पर किये जा सकते हैं जहाँ पर अश्वत्थामा और गांधारी क्रमशः अपने पक्ष को पुष्ट करते हुए कृष्ण (जो मानव मूल्य के प्रतीक हैं) को वंचक, अन्यायी और कूटनीतिज्ञ कहकर पुकारते हैं। जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं कि उद्घाटन और पूर्व छाया एक ही स्थिति में हो सकते हैं, जो स्थापना में ही उपलब्ध हो जाते हैं।
संकट की स्थिति वहाँ पर उपस्थित होती है जब कृष्ण के प्रति आस्थावान युयुत्सु और विदुर तक उनके प्रति अनास्था प्रकट करते हुए उन्हें ‘रथ की निकम्मी धुरी’ कहकर पुकारते हैं । युयुत्सु की अनास्था कथानक को अधिक तीव्रता प्रदान करती है और भविष्य के प्रति दर्शकों को चौंका देती है। चरमावस्था और संघर्ष गांधारी के शाप और अश्वत्थामा द्वारा ब्रह्मास्त्र के प्रयोग किये जाने में स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं।
ये दोनों ही स्थितियाँ कथा को एक निर्णायक दौर में पहुँचा देती हैं क्योंकि इस संकट से उबरने के लिए कृष्ण को अन्तिम निर्णय लेने के लिए बाध्य होना पड़ता है। कृष्ण रूपी मानव मूल्य को गांधारी ने शापग्रस्त करके एक विषम स्थिति पैदा कर दी है और इसी से मानव-भविष्य का प्रश्न भी जुड़ा हुआ है। किन्तु घटनाक्रम इतनी शीघ्रता से बदलता है कि धृतराष्ट्र और गांधारी पश्चाताप करते दिखाई देते हैं और अश्वत्थामा कृष्ण के प्रति श्रद्धालु हो उठता है।
उसकी आस्था के साथ ही निर्वहण की स्थिति आ जाती है। मानव मूल्य की प्रतिष्ठा हो जाती है और समस्या सुलझ जाती है किन्तु कालान्विति का पालन इस कृति में नहीं हो सका क्योंकि इसके लिए अवकाश ही नहीं था । सम्पूर्ण कथानक महाभारत के अट्ठारहवें दिन के युद्ध से लेकर प्रभास वन में कृष्ण की मृत्यु से सम्बन्धित है इसलिए ऐसा हो पाना संभव भी नहीं था ।
अस्तु ‘अन्धा युग’ के अध्ययन के उपरांत यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इसकी कथावस्तु नाट्य-सम्मत है। पौरस्त्य अथवा पाश्चात्य किसी भी दृष्टिकोण से इसकी परीक्षा की जाय, यह नाटक की कसौटी पर खरा उतरता है।
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