कथा विन्यास की दृष्टि से अंधेर नगरी का मूल्यांकन । भारतेंदु हरिश्चंद्र । - Rajasthan Result

कथा विन्यास की दृष्टि से अंधेर नगरी का मूल्यांकन । भारतेंदु हरिश्चंद्र ।

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अंधेर नगरी का मूल्यांकन :— इस प्रहसन का कथानक उद्बोधनात्मक शैली पर आधारित है इस प्रहसन का पूरा नाम अंधेर नगरी चौपट राजा टके सेर भाजी टके सेर खाजा है। इसका कथानक एक अदम राजा को लक्ष्य बनाकर प्रस्तुत किया है रंग मंडली के अनुरोध पर लिखा गया यह प्रहसन भारतेंदु हरिश्चंद्र की गंभीरता को प्रस्तुत करता है।

यह प्रहसन यह सोचने पर मजबूर करता है कि छोटा सा प्रहसन नाटक कैसे चुनौतीपूर्ण हो गया। इस प्रहसन में समाज के किसी स्थिति पर व्यंग नहीं है परंतु हर बार यह प्रहसन रोचक और उत्साहवर्धक व्यंग्यात्मक सार्व अलौकिक और सृजनात्मक बन पड़ा। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इस प्रहसन को 6 अंकों में विभाजित किया है जिसकी कथा इस प्रकार है:—

अंधेर नगरी का मूल्यांकन

प्रथम दृश्य

प्रथम अंक के प्रारंभ में महंत जी अपने दो प्रिय शिष्य नारायण दास और गोबरधनदास के साथ भजन लहरी में मस्ती से झूमते हुए भजन में राम की महिमा का गान करते हैं। दूर से दिखाई पड़ने वाले नगर में भिक्षावृत्ति के लिए चले जाते हैं।

 

गुरु शिष्यों की भजन मंडली गाते गाते चलते हुए नगर के निकट पहुंच जाती है दूर से नगर की भव्यता को देखकर गुरु अपने शिष्य को संबोधित करते हैं कि यदि शहर से भिक्षा में कुछ अन्य धन्य फूल फल मिल जाए तो भगवान को भोग लगाएं और स्वयं भी खानपान करें। नारायण दास के मन में शहर की चमक दमक को देखकर भिक्षा प्राप्ति में संदेह होता है।

गुरु के आदेश पाकर गोबरधनदास यह कहते हुए भिक्षावृत्ति के लिए जाते हैं कि मैं बहुत सी भिक्षा लाता हूं गोबरधनदास के गुरु उसे समझाते हैं कि बहुत ज्यादा लोग मत करना वह गोवर्धन दास को पश्चिम में तथा नारायणदास को पूर्व में जाने का आदेश देते हैं और गीतात्मक उपदेश देते हुए कहते हैं कि:—

लोग पाप का मूल है लोभ मिटावत मान।

लोभ कभी नहीं कीजिए, या मैं नरक निदान।।

 

द्वितीय दृश्य

दूसरे अंक में भारतेंदु जी ने बाजार का दृश्य प्रस्तुत किया है जहां कबाब वाला मछली वाला नारंगी वाला हलवाई पाचक वाला और घासी राम उपस्थित है।  वह तरह-तरह की आवाजों द्वारा लोगों को अपनी और आकर्षित कर रहे हैं इन आवाजों में समाज और जाति पर करारे व्यंग हैं।

कथानक के इस दृश्य के माध्यम से राज्य की सामाजिक आर्थिक धार्मिक आदि संदर्भों की यथार्थ और हृदय स्पर्शी स्थिति प्रस्तुत की गई है।

इस दृश्य का प्रथम व्यवसायिक पात्र कबाब वाला है वह अपने कबाब को 84 मसालों 72 प्रकार की आँच (गर्मी) से बनाएं सर्वश्रेष्ठ स्वादिष्ट पदार्थ माध्यम से टका शेर बेचता हुआ कहता है कि जो खाए वह सदा याद करता है जो नहीं खाता वह बहुत पछताता है।

बाजार का दूसरा पात्र है घासी राम। यह गरमा गरम चना बेचता हुआ बंगालियों की सादगी,जुलाहों की चाटुकारिता के साथ अंग्रेज अधिकारियों के व्यंगात्मक खबर लेता है –

चना खाते सब बंगाली, जिनकी धोती ढीली ढाली। चना खाते मियां जुलाहे, दाढ़ी हिलती गाह बगाहे। चना हाकिम सब जो खाते, सब पर दूना टिकस लगाते।

चना जोर गरम टके सेर।

नारंगीवाली अनेक फलों के साथ अनेक स्थानों की नारंगियाँ बेचती ह प्रस्तुत होती है तो हलवाई विविध मिठाइयों से सजी दुकान पर दिखाई देता कुंजाड़न की दुकान पर साग-सब्जी और फलों का अम्बार लगा है। वह चा चीख कर व्यंगात्मक रूप से फूट (ककड़ी / अलगाव) और बेर (वैर/शत्रुता) बेच रही है।

ले हिन्दुस्तान का मेवा फूट और बैर ।

मुगल की दुकान पर टके सेर मेवा – विक्रय की योजना चल रही है। पाचक के पास एक ही समान चूरन है, किन्तु उसके प्रचार में चूरन की महिमा अ लग रही है उसका कहना है कि कृष्ण का सलोनापन इसी चूरन को देख कितने गुण हैं चूरन में यह विवेचन पाचक वाला के शब्दों में इस प्रकार है :-

चूरन सभी महाजन खाते। जिससे जमा हजम कर जाते।

चूरन साहब लोग जो खाता। सारा हिन्द हजम कर जाता।

चूरन पुलिस वाले खाते। सब कानून हजम कर जाते।

ले चूरन का ढ़ेर बेचा टके सेर।

इसी दृश्य में मछली वाली अपनी मछलियों को भी टके सेर बेच रही है। मछलियों के यौवन-निखार और आँखों के आकर्षण में संसार को खिंचे आने की बात कहती है, फिर भी उनका बिक्री मूल्य मात्र टके सेर है। जात वाला ब्राह्म ज्ञाता ब्राह्मण जाति को भी बेचता दिखाई पड़ रहा है।

कुछ एक सिक्के के लिए ब्राह्मण तैयार है धोबी बनने के लिए और धोबी तैयार है, ब्राह्मण बनने के लिए पैसे से ही मुसलमान, हिन्दू और क्रिश्चियन बनने का खेल-सा चल रहा है। यहाँ समाज का यथार्थ चित्र प्रस्तुत है। धर्म, मर्यादा, सत्य, वेद, कुल सब के सब टके सेर भाव बिक रहे हैं।

गोबरधनदास बाजार में घूमकर खुश होता है कि यहां तो हर वस्तु के दाम टका सेर है। यह क्रमशः बनिये की दुकान पर पहुँच कर आटा, चावल, घी, कुजड़िन की दुकान पर पहुँच कर भाजी, हलवाई की दुकान पर पहुँच कर मिठाई का भाव पूछता है। उसे सभी सामानों के भाव ‘टका सेर’ सुन कर आश्चर्य होता है।

उसे हलवाई से पता चलता है कि इस नगरी का नाम ‘अन्धेर नगरी’ तथा वहां के राजा का नाम चौपट राजा है। गोबरधनदास मिक्षा में मिले सात पैसो से साढ़े तीन किलो जलेबियां खरीद कर महन्त के पास अपनी धुन में गाता हुआ चल देता है ।

तृतीय दृश्य

इस अंक में गोबरधनदास बाजार से मिठाई ले प्रसन्न मुद्रा में अपने गुरु जी के पास आता है जिसे देख वे विचलित होकर नगरी और वहां के राजा का नाम पूछते हैं। महन्त को जब नगरी और वहां के राजा का नाम पता चलता है तो वे गोबरधनदास को वह नगरी छोड़ने की राय देते हैं और खुद वहां से नारायणदास के साथ तुरन्त जाने के लिए तत्पर होते ही वे गोबरधनदास से कहते हैं –

“सेत – सेत सब एक से, जहां कपूर कपास ऐसे देश, कुदेश में कबहुं न कीजै वास।”

उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि गोबरधनदास ऐसी नगरी में रहना शुभ नहीं क्यों कि ऐसी अन्धेर नगरी में अगर 100 मन मिठाई भी मुफ्त मिले तो किस काम की। मुझे तो एक पल भी नहीं रूकना । परन्तु गोबरधनदास गुरु की इच्छा के विरूद्ध वहीं रहना चाहता है।

गोबरधनदास ‘अंधेर नगरी’ के सस्तेपन के भाव पर विमोहित होकर वहीं रहने का तर्क प्रस्तुत करता है कि विश्व में ऐसा कोई देश नहीं जहां दिनभर भिक्षा मांगने पर भी भूखा रहना पड़ जाता है। महन्त उसे सावधान करते हुए कहता है कि मैं जा रहा हूं तू मेरी बात न मान पछताएगा। हां जब कभी संकट आए तो मुझे याद कर लेना, मैं उपस्थित हो जाऊगा।

ऐसा कहकर गुरुजी नारायण दास के साथ उस नगरी से चले गए। गोबरधनदास ने प्रणाम कर कहा कि गुरुजी अगर कभी संकट का समय आया तो मैं आपको अवश्य याद करूंगा। इन दोनों के जाने के बाद गोबरधनदास आराम से बैठकर मिठाई खाने लगा।

चतुर्थ दृश्य

यह अंक राजसभा से सम्बन्धित है। इस अंक में शासन की अव्यवस्था और न्याय शून्य अराजकता का मार्मिक प्रस्तुतिकरण है। अंक के प्रारम्भ में एक सेवक चिल्लाता हुआ पान लेकर प्रस्तुत होता है। सेवक द्वारा ‘पान खाइए’ कहे गए वाक्य को ‘सुर्पणखा आइए’ समझकर राजा भागने का प्रयत्न है।

मंत्री स्थिति को संभालने के लिए राजा का हाथ पकड़कर रोता हुआ समझाता कि सेवक पान खिलाना चाहता है। बुद्धिहीन दयाहीन राजा स्वयं सीलिकर सेवक को दुष्ट और पाजी आदि गाली देकर उसे सौ कोड़े लगाने का आदेश देता है। मंत्री के द्वारा सेवक को बचाने के लिए कहा जाता है कि न तमोली पान लगाता न यह ऐसा करता।

यह सुन कर राजा तमोली को दो सौ कोड़े लगाने का आदेश देता है। मंत्री फिर बीच में आकर तमोली को बचाने के लिए राजा को डर का कारण बताता हैं राजा के डर का कारण पान नहीं सुपर्णखा हैं राजा यह नाम सुनकर फिर डर जाता है और मंत्री पर क्रोधित होता है। इस विषय में राजा का कथन उसकी मूर्खता को उजागर करता है “हम रानी से कह देंगे कि मंत्री बेर बेर तुको सौत बुलाने चाहता है। “ डर से बचने के लिए नौकर से शराब मंगाता है।

ऐसे ही क्षण दो नौकर एक चीखते चिल्लाते आदमी को राजसभा में ले आते हैं। उसका कहना है कि कल्लू बनिया की दीवार गिरी और उसकी बकरी मर गई। उसे न्याय चाहिए। राजा का हास्यास्पद आदेश होता है कि दीवार को तुरन्त हाजिर किया जाए। मंत्री के द्वारा दीवार न ला पाने की असमर्थता दर्शाई जाती है |

तो आदेश का नया रूप सामने आता है, “उसका भाई लड़का, दोस्त आसना जो हो, उसको पकड़ लाओ।” दीवार ईंट-चूने की होने और उसके भाई दोस्त आदि न होने की बात समझाने पर राजा द्वारा बनिये को पकड़ लाने का आदेश होता है। नौकर, बनिये को पकड़ लाते हैं राजा हास्यास्पद भाषा में बनिये से प्रश्न करता हैं “ क्यों बनिये ! इसकी लरकी, नहीं बरकी क्यों दबकर मर गई?” मंत्री समझाता है – बरकी नहीं महाराज बकरी ।”

बनिया अपने बचाव के लिए कारीगर की कमी की ओर संकेत करता हैं कारीगर बुलाया जाता हैं वह अपने बचाव के लिए चूने वाले के बोदापन की बात करता है। चूना वाला बुलाया जाता है। राजा की मूर्खता उसके व्यवहार, कार्य और उसकी भाषा में प्रकट हाती है। “क्यों बे खेर सुपाड़ी चूने वाले? इसकी कुबरी कैसे मर गई? चूने वाले ने चातुर्य से दोष भिश्ती पर. अधिक पानी डालने के आधार पर बढ़ दिया।

राजा ने चूने वाले को चुन्नीलाल कह कर राजा सभा के बाहर कर दिया भिश्ती के आने पर राजा प्रश्न करता है– “क्यों बे भिश्ती! गंगा-यमुना की किश्ती! इतना पानी क्यों दिया कि इसकी बकरी गिर पड़ी और दीवार दब गई।

इस विचित्र प्रश्न पर विचित्र बचाव किया भिश्ती ने। उसने कंसाई द्वारा बड़ी मशक बनाने के दोष को उजागर किया। कसाई ने गडेरिया के द्वारा टके में बड़ी भेड़ देने का कारण बताया। गडेरिए ने भी मौके का लाभ लिया और बोला कि कोतवाल की सवारी निकल रही थी।

इसी डर से भेड़ के छोटे-बड़ होने का ज्ञात नहीं रहा। राजा अपनी विक्षिप्तावस्था में कोतवाल पर क्रोधित होकर बरसते हैं “क्यों वे कोतवाल ? तेने सवारी ऐसी धूम से क्यों निकाली कि गडेरिया ने घबराकर बड़ी भेड़ बेची जिससे बकरी गिर कर कल्लू बनिया दब गया।

राजा के द्वारा को फांसी देने का आदेश दिया जाता है। राजसभा की बैठक बरखास्त की जाती है। राजा अद्धचेतन्य अवस्था में मंत्री का सहारा लेकर वापिस जाता है।

पंचम दृश्य

पाचवा अंक अरण्य से सम्बन्धित है। वहां साधु लोग एकान्त में बात कर अपनी चिन्तन और मनन प्रक्रिया को पूर्ण करते हैं। गोबर्धनदास मस्ती में गाते हुए उस नगरी का विश्लेषण कर रहे हैं। :-

अंधेर नगरी अनबूझ राजा,

टका सेर भाजी टका सेर खाजा ।

नीच-ऊँच सब एकहि ऐसे,

भडुए पंडित तैसे ||

जैसे तभी राजा के चार प्यादे आकर गोबर्धनदास को पकड़ लेते है गोबर्धन प्यादे द्वारा पकड़ा जाने पर उनसे अपने पकड़े जाने का जुर्म पूछते हैं तो वे बताते हैं कि राजा ने कोतवाल साहब को फांसी की सजा दी है,

परन्तु फांसी का फन्दा कोतवाल साहब के बड़ा है इसलिए हम तुम्हें फांसी लगाने के लिए ले जा रहे हैं क्योंकि मिठाई खा-खाकर तुम मोटे हो रहे हो अतः तुम्हें फांसी पर अवश्य ही चढ़ना होगा।

गोबर्धनदास का अनुनय-विनय बेकार सिद्ध होता है वह कहता है कि फकीरों से हँसी नहीं करनी चाहिए। प्यादे घसीट कर ले जाने की धमकी देते हैं और सूली पर चढ़ने की बात पक्की करते हैं। गोबर्धनदास के बार-बार प्रश्न करने पर कि फकीर आदमी को नाहक फांसी क्यों देता है, तो प्यादा बताता है।

‘बात है कि कल कोतवाल को फाँसी का हुक्म हुआ था। जब फाँसी देने को उसे ले गए, तो फांसी का फन्दा बड़ा हुआ; क्योंकि कोतवाल साहब दुबले हैं। हम लोगों ने महाराज से अर्ज क्या, इस पर हुक्म हुआ कि एक मोटा आदमी पकड़कर फांसी दे दो, क्योंकि बकरी मारने के अपराध में किसी न किसी को सजा होनी जरूरी हैं, नहीं तो न्याय न होगा।”

अब गोबर्धनदास को अपने गुरु द्वारा कही हुई एक-एक बात याद आने लगी। वह अपने प्राण बचाने के लिए अपने गुरु को याद करने लगता है परन्तु राजा के प्यादे उसे फांसी पर की तरफ ले जाते हैं।

पृष्ठ दृश्य

इस दृश्य में श्मशान के दृश्य का चित्रण किया गया है। इस अंक के कथांश में यह भाव प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है कि बौद्धिक चिन्तन और लगातार प्रयास करके संकट या समस्या का समाधान प्रस्तुत करना सम्भव होता है। चार सिपाही गोबर्धनदास को पकड़ कर ले आते हैं। वह चीखता चिल्लाता हुआ प्राण रक्षा की भीख मांगता रहता है।

उसे बहुत पछताता है कि उसने गुरू शिक्षा नहीं मानी है। निराशा में डूब कर चिल्लाते हुए अपने गुरु को याद किया, “गुरु जी! कहाँ हैं? बचाओ-गुरुजी – गुरुजी – गुरु जी… ऐसे संकट के समय गुरु महन्त जी नारायण दास के साथ आ जाते हैं।

गोबर्धनदास के बताने पर पता चलता है कि बनिये की दीवार गिरने से बकरी मर गई और फांसी उसे दी जा रही है। गुरु जी ने शिक्षा की उपेक्षा के परिणाम की और संकेत किया तो गोबर्धनदास ने उनके पैर पकड़ कर रूदन गुरु कर दिया।

अन्तिम उपदेश देने के बहाने गुरुजी प्यादों एवं सिपहसालारो को अलग कर देते हैं और गोबरधन के कान में कुछ बुदबुदाते है। इसके बाद गोबरधन चैतन्य हो जाता है और अपने गुरुजी से निवेदन करने लगता है कि गुरुजी आप नहीं मैं फांसी पर चढूंगा। दोनों ही फांसी पर चढ़ने के लिए प्रतिबद्ध हैं।

गोबरधन जिद करते हुए कहता है कि तब तो गुरु जी मैं तुरन्त फांसी चढूँगा। गुरु कहता है कि पहले में फांसी चढूँगा। दोनों में आवेश भरी वार्ता होती है। शिष्य ने कहा कि स्वर्ग जाने में बूढ़ा या जवान नहीं देखा जाता हैं। फिर आप सिद्ध पुरुष हैं, मुझे ही स्वर्ग जाना चाहिए। इस भाव – संघर्ष को देखकर सिपाही चकित हो गए। इसी समय राजा, मंत्री और कोतवाल का प्रवेश होता है। अंधेर नगरी का मूल्यांकन

राजा ने दोनों की लड़ाई का कारण पूछा तो सिपाही ने कहा कि दोनों एक दूसरे से पहले फांसी पर चढ़ना चाहते हैं। राजा ने गुरु से पूछा, आप फांसी पर क्यों चढ़ने के ने कहा कि यह ऐसा श्रेष्ठ मुहुर्त है कि जो फांसी पर चढ़ेगा वह स्वर्ग रुढ़ होगा। यह सुनकर मंत्री और कोतवाल में सर्वप्रथम फांसी पर चढ़ने की चर्चा गुरू हो गई। अंधेर नगरी का मूल्यांकन

राजा यह सब देख कर सब को चुप कराते बोले “चुप रहो, सब लोग । राजा के होते और कौन बैकुण्ठ जा सकता है। हमको फांसी चढ़ाओ, जल्दी जल्दी ।” और राजा को फांसी पर चढ़ा दिया जाता है। अंधेर नगरी का मूल्यांकन

जहां न धर्म न बुद्धि नहिं नीति न सुजन समाज ।

ते ऐसा आयुहि नसे, जैसे चौपट राज॥

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  1. जहाँ न धर्म न बुद्धि नहि नीति | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | अंधेर नगरी । भारतेन्दु |
  2. कथा विन्यास की दृष्टि से अंधेर नगरी का मूल्यांकन । भारतेंदु हरिश्चंद्र ।

 

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