मनुष्य अपने शरीर इंद्रियों एवं मन के माध्यम से सांसारिक विषयों के प्रति आसक्ति रखता है इसके परिणाम स्वरुप मनुष्य सांसारिक दुखों एवं बंधन में पड़ जाता है I हम अष्टांग योग सांसारिक दुखों से छुटकारा पाने के लिए और भीतरी अज्ञान को नष्ट करने के लिए व्यक्ति को अपनी इंद्रियों मन एवं शारीरिक क्रियाओं को नियंत्रित करना होता है और इसके लिए आवश्यक है कि वह चित्त की वृत्तियों को नियंत्रित करें इस दृष्टि से योग दर्शन में 8 अंगों वाले मार्ग का निर्देश किया है जिस पर चलकर जीव अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर समस्त दुखों से मुक्त हो जाता है|
Table of Contents
अष्टांग योग मार्ग इस प्रकार है
यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान समाधि
अब इनमें प्रत्येक अंग का विवरण क्रम से प्रस्तुत किया जाएगाI
1. यम = यह शरीर मन एवं वाणी का नियंत्रण है । यम कुल 5 प्रकार के हैं |
अ) अहिंसा = यह किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार की शारीरिक मानसिक अथवा वाचिक पीड़ा न पहुंचाना है |
ब) सत्य = इसके अंतर्गत ने केवल वाणी से बल्कि मन से भी सत्य का आचरण करना होता है यह मन वचन और कर्म से सकते पालन करता है |
स) अस्तेय = इसके अंतर्गत दूसरों की वस्तु को न चुराना और दूसरे के धन का लोभ न करना सम्मिलित है |
द) ब्रह्मचार्य = इसके अंतर्गत कामवासना ओं का नियंत्रण सम्मिलित है |
य) अपरिग्रह = इसके अंतर्गत मन वचन और कर्म से अनावश्यक एवं भोग- विलास की वस्तुओं का संग्रह न करना सम्मिलित है |
अष्टांग योग
2. नियम
इसके अंतर्गत अच्छे आचरण को सुनिश्चित करने वाले नियमों का विधान किया गया है नियम कुल 5 हैं।
अ) शौच = सोच का तात्पर्य स्वच्छता से है जिसके अंतर्गत दोनों प्रकार की स्वच्छता बाह्य (स्नानादि) एवं आन्तरिक स्वच्छता ( मंत्री, करूणादी की भावना ) सम्मिलित हैं।
ब) सन्तोष = अपने सीमित साधनों में संतुष्ट रहने की भावना को ही संतोष कहा गया है |
स) तप = सहन करने की शक्ति का ही नाम तप है इसके अंतर्गत भूख प्यास शीत उषणादि विषय स्थितियों को सहन करना सम्मिलित है |
द) स्वाध्याय = इसके अंतर्गत मोक्ष शास्त्रों (मुक्ति में सहायक ग्रंथों) का अध्ययन सम्मिलित है धार्मिक ग्रंथों में अध्ययन से व्यक्ति में आध्यात्मिक ज्ञान का स्तर बढ़ता है यह व्यक्ति को आचरण के लिए प्रेरित करता है।
य) ईश्वर प्राणिधान = स्वर्ग और सर्वशक्तिमान एवं सर्व नियंता मानकर अपने समस्त कर्मों को ईश्वर के प्रति अर्पण कर देना ईश्वर प्राणीधान कहलाता है|
3. आसन
यह योग की शुरुआती अवस्था है शरीर को सुख पूर्वक स्थिर बनाए रखने के विभिन्न स्थितियों को आसन कहते हैं आसन ने केवल चित्र की एकाग्रता के लिए सहायक होते हैं बल्कि इनसे शारीरिक एवं मानसिक संयम में भी सहायता मिलती है आसन कई प्रकार के होते हैं जेसें :-
पद्मासन शीर्षासन सिद्धासन चक्रासन आदि आसन शरीर को लचीला बनाते हैं। स्नायुतंत्र को मजबूत करते हैं इस प्रकार शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से आसनों को अत्यंत उपयोगी बताया गया है।
4. प्राणायाम
प्राणायाम से तात्पर्य सांसों के नियंत्रण से है इसमें सांसों को बाहर छोड़ने और भीतर छोड़ने की क्रिया को नियंत्रित करना होता है। इससे चित्त की एकाग्रता में सहायता मिलती है प्राणायाम के कुल 3 चरण होते हैं।
अ) पूरक
ब) कुंभक
स) रेचक
पहले चरण में जितना संभव हो अपने भीतर प्राणवायु भरनी होती है। प्राणवायु भरने के बाद दूसरे चरण कुंभक मैं पूरक की आधी अवधि तक श्वास भीतर रोके रखना होता है। तीसरे चरण रेचक में धीरे-धीरे करके प्राणवायु बाहर निकाल देनी होती है रेचक में पूरक जितना ही समय लिया जाता है |
इन दिनों चरणों को क्रमशः बढ़ाना होता है ताकि एक निश्चित समय के बाद स्वास -प्रश्वास की गति को नियंत्रित किया जा सके इसके परिणाम स्वरूप चित्त की एकाग्रता बढ़ती है।
5. प्रत्याहार
प्रत्याहार के चरण में साधक अपनी इंद्रियों को सांसारिक विषयों से हटा लेता है। परिणाम स्वरूप सांसारिक विषयों के प्रति आसक्ति नहीं रह जाती। इसके अभ्यास से चित्र बाहरी हलचलों से शांत हो जाता है प्रत्याहार के अभ्यास के लिए दृढ़ इच्छा शक्ति एवं इंद्रिय संयम की अपेक्षा होती है।
6. धारणा
हमारा चित्त पर एक वस्तु से दूसरी वस्तु की ओर गमन सेल रहता है अपने चित्त को किसी एक बिंदु पर केंद्रित करने और चित्र को अनेक विषयों की ओर जाने से रोकने को धारणा कहते हैं। इस अवस्था में साधक लगातार किसी एक विषय की ओर ध्यान केंद्रित करता है और चित्त के किसी दूसरे विषय की और जाने की अवस्था में पुनः शीघ्रता से पूर्व विषय की ओर ले आता है।
7. ध्यान
यह धारणा से उच्चतर अवस्था है जहां साधक किसी एक विषय पर लंबे समय तक अपने चित्त को एकाग्र करने में सफल हो जाता है। इसे ध्यान कहते हैं। इस अवस्था में साधक चित्त के वास्तविक स्वरूप समझने लग जाता है।
8. समाधि
योग साधना के अंतिम चरण को समाधि कहते हैं यह योग की उच्चतम् अवस्था हैं। इस अवस्था में साधक जहां एक और चित्त का स्वभाव समझ लेता है कि यह किस प्रकार विषय का आकार ग्रहण करता है वही चित्त से अपने प्रथक था एवं अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप को भी जान लेता है यहां ध्यान भी प्रक्रिया एवं विषय एक और समान हो जाते हैं समाधि में ध्याता , ध्यान और ध्येय की त्रिपुटी में ध्येय ही शेष रह जाता है तथा ध्याता एवं ध्यान ध्येयकार हो जाते हैं। समाधि की अवस्था में चित वृत्तियों का सम्पूर्ण निरोध हो जाता है।
सम्प्रज्ञात समाधि
समाधि की इस अवस्था में साधक ध्यान के विषय के प्रति सचेत रहता है जब चित्त किसी विषय पर केंद्रित होता है तो चित्त वृत्तीय उस विषय के आकार से आधारित होती हैं यह सम्प्रज्ञात समाधि कहलाती है। किसी एक विषय पर चित्त को एकाग्र करने से चित्त की प्रवृत्ति दूसरे विषयों से हट जाती है क्योंकि सांसारिक विषयों के प्रति आसक्ति के कारण ही दुख उत्पन्न होता है इसलिए किसी सुनिश्चित विषय पर चित्त एकाग्र करने से सांसारिक सुखों के प्रति तरसना उसके परिणाम शुरू होने वाले क्लेश नष्ट हो जाते हैं इससे विषय का वास्तविक स्वरूप प्रकाशित होता है और कर्म प्रभाव से मुक्ति मिल जाती है।
सम्प्रज्ञात समाधि चार प्रकार की बताई गई हैं।
अ) सवितर्क समाधि
ब) सविचार समाधि
स) सानन्द समाधि
द) सास्मित समाधि
सवितर्क समाधि
इस अवस्था में चित्त को किसी स्थुल विषय पर एकाग्र किया जाता है और ध्यान पूर्वक विषय की स्पष्ट प्रतीति की जाती है जैसे नासिका के अग्रभाग पर ध्यान लगाना आदि।
सविचार समाधि
इस अवस्था में चित्त को किसी सूक्ष्म विषय पर केंद्रित किया जाता है और ध्यान से उसका वास्तविक स्वरूप पहचान लिया जाता है जैसे तन्मात्राओं (रूप रस गंध शब्द स्पर्श ) पर ध्यान लगाना|
सानन्द समाधि
इस अवस्था में किसी सात्विक सूक्ष्म विषय पर चित्त एकाग्र किया जाता है परिणाम स्वरूप आनंद की प्राप्ति होती है।
सास्मित समाधि
इस अवस्था में अहंकार तत्व जिसे प्राय आत्मा समझा जाता है पर चित्त केंद्रित किया जाता है इस प्रकार व्यक्ति पर रखता अस्तित्व परक बन जाती है|
असम्प्रज्ञात समाधि
यह समाधि की सर्वोच्च अवस्था है इस अवस्था में चित्त की समस्त वृत्तियों का निरोध हो जाता है इसलिए इसे निर्मित समाधि कहते हैं इस अवस्था में पुरुष अपने शुद्ध स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है इस प्रकार योग साधना के परम लक्ष्य के बल्ले की प्राप्ति इस स्तर पर हो जाती है योग के इन 8 अंगों में प्रथम पांच को योग का बहिरंग और शेष तीन को योग का अंतरंग कहते हैं वस्तुतः पूर्वर्ती 5 चरण उतरवर्ती चरणों की ही पूर्व तैयारी है।
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