आँखि ही मेरी पै चेरी भई लखि | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद | - Rajasthan Result

आँखि ही मेरी पै चेरी भई लखि | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद |

अपने दोस्तों के साथ शेयर करे 👇

आँखि ही मेरी पै चेरी भई लखि फेरी फिरै न सुजान की घेरी।

रूप-छकी, तित ही बिथकी, अब ऐसी अनेरी पत्याति न नेरी।

प्रान लै साथ परी पर-हाथ बिकानी की बानी पै कानि बखेरी।

पायनि पारि लई घनआनंद चायनि, बावरी प्रीति की बेरी।।

आँखि ही मेरी पै चेरी भई लखि

प्रसंग – यह पद्य कविवर घनानंद विरचित ‘सुजानहित’ से उद्धृत किया गया है। सुजान या साजन के प्रेम से आहत होकर उसके प्रेम के बंधन को ही सब कुछ मानने वाली एक सखी अपनी सहेली से अपनी मनो व्यथा प्रकट करते हुए विवश भाव से कह रही है।—

व्याख्या – ए सखि! उस साजन की घिरकर से गिरकर अर्थात प्रभावित होकर मेरी अपनी आंखें ही उसके रूप की दासी या गुलाम बनकर रह गई है। मेरे बार-बार प्रयत्न करने पर भी अब यह आंखें उसके सौंदर्य पक्ष को छोड़कर वापस मेरे पास आने को तैयार नहीं होती। उस प्रिय के सौंदर्य से तृप्त होकर अब मेरी आंखें उसके आसपास ही भटकती रहती और भटकते रहना चाहती हैं। मुझसे तो यह मेरी आंखें कुछ इस हद तक दूर हो गई है कि जैसे मुझ पर विश्वास ही नहीं करती और चाह कर भी मेरे समीप नहीं आती…..

अर्थात यह आंखें अब एकदम पराई होकर या उस प्रियतम की होकर रह गई हैं। मेरा इन पर अब कोई बस नहीं रहा यह आंखें तो मेरे प्राण भी अपने साथ लेकर पराए हाथ बिक गई हैं। अर्थात इनके कारण मेरे प्राण भी अब मेरे नहीं रहे इन आंखों का तो कहना ही क्या! इन्हें अब जो प्रिय की और हमेशा देखते रहने की आदत पड़ गई है उनके कारण मेरी सब प्रकार की लोक लाज और मर्यादा भी स्थिर न रहकर बिखर गई या नष्ट होकर रह गई है। आँखि ही मेरी पै आँखि ही मेरी पै चेरी भई लखि आँखि ही मेरी पै चेरी भई लखि

घनानंद कवि कहते हैं कि इन आंखों ने तो स्वयं बड़े चाव से भर कर के उस प्रियतम के प्रेम की बेडियां अपने पांव में डाल ली हैं । अर्थात अब मेरी यह आंखें उस प्रियतम के रूप सौंदर्य एवं प्रेम के बंधन में हमेशा के लिए पूर्णतया बंध कर रह गई है उन्हें हटा पाना दुष्कर कार्य है।

विशेष

1. प्रेममयी आंखों के विकारता का वर्णन बड़ा ही सरस, बडा ही सहज और स्वाभाविक बन पड़ा है।

2. ‘प्रीति की बेरी’ कल्पना भी बड़ी मनोरम एवं प्रभावी है।

3. पद्य में उत्प्रेक्षा, रूपक, स्वभावोक्ति और अनुप्रास अलंकार के विविध रूपों का प्रयोग सजीव एवं स्वाभाविक हुआ है।

4. भाषा भावानुकूल, माधुर्य गुण प्रधान, ललित एवं सतत प्रभावमयी है उसने चित्रात्मकता का गुण भी दर्शनीय है।

यह भी पढ़ें 👇

  1. रूपनिधान सुजान सखी | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद | |
  2. पिउ बियोग अस बाउर जीऊ । कविता की संदर्भ सहित व्याख्या। मलिक मुहम्मद जायसी

 

अपने दोस्तों के साथ शेयर करे 👇

You may also like...

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!