आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जीवन परिचय

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जीवन परिचय

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आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जन्म 4 अक्टूबर, 1884 को बस्ती के अगौना नामक गाँव में हुआ और मृत्यु काशी में 2 फरवरी, 1941 को हुई। इनकी प्रारंभिक शिक्षा मिर्जापुर और बाद में प्रयाग में हुई। मिर्जापुर के लंदन मिशन स्कूल से शुक्लजी ने स्कूल की अंतिम परीक्षा सन् 1901 में उत्तीर्ण की। शुक्ल जी ने कायस्थ पाठशाला, प्रयाग से इंटर किया।
आगे उनका संपूर्ण अध्ययन स्वाध्याय से ही हुआ। आचार्य शुक्ल का बचपन अवध क्षेत्र में गुजरा। आरंभिक शिक्षा के साथ उन्होंने उर्दू, अंग्रेजी, बंगला और हिंदी भाषा और साहित्य का गंभीर अध्ययन किया।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का संक्षिप्त जीवन परिचय

मिर्जापुर में उनका संपर्क भारतेंदु युग के महत्वपूर्ण रचनाकार चौधरी बदरीनारायण प्रेमघन से हुआ। इससे उन्होंने भारतेंदु युग के साहित्य को तो जाना-समझा ही, समकालीन साहित्य की गतिविधियों से भी जुड़े। सन् 1903-08 तक शुक्लजी ने ‘आनंद कादम्बिनी’ पत्रिका के संपादन में चौधरी बदरीनारायण प्रेमधन का सहयोग किया। इस कार्य से उन्हें भाषा और संपादन की समझ विकसित हुई।
इसी दौरान उनके साहित्य लेखन का प्रारंभ भी हो चुका था। ‘कविता क्या है’ निबंध का प्रारंभिक रूप सन् 1909 की ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हो चुका था। स्कूली शिक्षा समाप्त होने के कुछ महीनों के बाद सन् 1904 से 1908 तक वे लंदन मिशन स्कूल में ड्राइंग के शिक्षक रहे। इस तरह शुक्लजी के लेखन की दिशा तय करने में मिर्जापुर का जीवन महत्वपूर्ण रहा।
 सन् 1908 में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल मिर्जापुर से काशी आ गए। यहाँ उन्हें काशी नागरी प्रचारिणी सभा में निर्मित होने वाली हिंदी शब्द सागर’ की महत्वाकांक्षी परियोजना में सहायक संपादन का दायित्व सौंपा गया। उस समय शुक्ल जी की उम्र लगभग 24-25 वर्ष की थी। उनका बाद का सारा जीवन काशी में ही बीता।

इस कोश के प्रधान संपादक बाबू श्यामसुंदर दास थे। इस कोश में बालकृष्ण भट्ट, लाला भगवान दीन बाबू अमीर सिंह, बाबू जगमोहन वर्मा ने भी कार्य किया। ये लोग इस परियोजना में कभी जुड़ते रहे, कभी निकलते रहे, लेकिन रामचन्द्र शुक्ल इसमें अंत तक बने रहे।
सन् 1927 ई. में इस कोश का कार्य पूरा हुआ। इस कोश की लंबी भूमिका आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखी। यह भूमिका बाद में परिवर्तित रूप में ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ के रूप में प्रकाशित हुई। नागरी प्रचारिणी सभा इस समय आधुनिक साहित्य के निर्माण की केन्द्रीय संस्था बन गई थी।
सारे लेखक किसी न किसी रूप में सभा से जुड़े हुए थे। उस समय हिंदी के प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों की खोज का कार्य भी जोर शोर से चल रहा था। इन खोजों की रिपोर्ट प्रकाशित होती थी। सभा में उन पर चर्चा हुआ करती थी। इन चर्चाओं में शुक्लजी भाग लिया करते थे।

शब्दकोश के निर्माण के लिए भी विद्वानों में शब्दों को लेकर चर्चा चला करती थी। इस कोश के निर्माण में आचार्य शुक्ल की भूमिका को लेकर बाबू श्यामसुंदरदास ने लिखा “इस कोश के कार्य में आरंभ से लेकर अंत तक पण्डित रामचन्द्र शुक्ल का संबंध रहा है और उन्होंने इसके लिए जो किया है, वह विशेष रूप से उल्लिखित होने योग्य है। यदि यह कहा जाए कि शब्द-सागर की उपयोगिता और सर्वांगपूर्णता का अधिकांश श्रेय पंडित रामचन्द्र शुक्ल को प्राप्त है, तो इसमें कोई अत्युक्ति न होगी। एक प्रकार से यह उन्हीं के परिश्रम, विद्वत्ता और विचारशीलता का फल है। इतिहास, दर्शन, भाषा विज्ञान, व्याकरण, साहित्य आदि सभी विषयों का समीचीन विवेचन प्रायः उन्हीं का किया हुआ है। यदि शुक्ल जी सरीखे विद्वान की सहायता प्राप्त न होती तो केवल एक या दो सहायक संपादकों की सहायता से यह कोश प्रस्तुत करना असंभव ही होता।” | |
सन् 1919 में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का चयन काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्रध्यापक के रूप में हुआ। उस समय श्याम सुंदर दास यहाँ हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे। उस समय शुक्लजी ‘हिंदी शब्द सागर’ परियोजना के सहायक संपादक के साथ-साथ काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक भी थे।
सन् 1937 में श्याम सुंदर दास के निधन के बाद आचार्य शुक्ल हिंदी विभाग के अध्यक्ष बने और फिर जीवनपर्यन्त 1941 तक हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे। उस दौर में हिंदी साहित्य को पढ़ाने के लिए पाठ्यसामग्री का अभाव सबसे अधिक महत्वपूर्ण कार्य था। शुक्लजी ने इस कार्य में हाथ लगाया। सन् 1919 से वे छात्रों को पढ़ाने के क्रम में वे हिंदी साहित्य का इतिहास के नोट्स तैयार कर रहे थे। यह कार्य उन्होंने ‘हिंदी शब्द सागर’ के संपादन के दौरान भी किया था।

इस ग्रंथ की भूमिका को सुधार-संवार कर उन्होंने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ लिखा। अब हिंदी साहित्य का ढाँचा बनकर तैयार हो गया था। जिसे छात्रों के साथ-साथ कोई भी हिंदी प्रेमी पढ़-समझ सकता था। इस क्रम में शुक्लजी ने सूरदास के ‘भ्रमरगीत’ संबंधी पदों को इकट्ठा किया तथा उसकी विस्तृत भूमिका लिखी।
इसी तरह ‘जायसी ग्रंथावली’ का संपादन किया तथा उसकी भी लंबी भूमिका लिखी। शुक्लजी के इस कार्य को आलोचना और प्राध्यापकीय आलोचना के मेल के रूप में देखा जा सकता है। अन्य शैक्षिणिक कार्यों के अलावा विश्वविद्यालय में उनका यह उल्लेखनीय कार्य था।

इस बीच शुक्लजी ने काव्यशास्त्र और साहित्य सिद्धांतों का भी गंभीर मनन किया, जिसको हम उनकी पुस्तक ‘रस मीमांसा’ और ‘चिंतामणि’ में देख सकते हैं। ‘चिंतामणि’ में उन्होंने मनोविकार संबंधी निबंधों के साथ-साथ साहित्य-सिद्धांतों का भी विश्लेषण-मूल्यांकन किया।

अब तक शुक्लजी को राष्ट्रीय ख्याति स्थापित हो चुकी थी। ‘चिंतामणि’ पर उन्हें अत्यंत प्रतिष्ठित मंगला प्रसाद पारितोषिक प्रदान किया गया था। यह पुरस्कार काशी के मंगला प्रसाद परिवार द्वारा साहित्य के क्षेत्र में विशेष योगदान देने वाले लेखक को दिया जाता था।

इसकी स्थापना पुरुषोत्तमदास टंडन ने की थी, जो हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा दिया जाता था। उस दौर में यह पुरस्कार इतना अधिक प्रतिष्ठित था कि जिस कृति पर यह पुरस्कार दिया जाता था, उसके अगले संस्करणों में यह प्रकाशित किया जाता था कि इस पुस्तक को मंगला प्रसाद पारितोषिक प्रदान किया गया है।
यह पारितोषिक ही आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की प्रतिष्ठा की सार्वजनिक स्वीकृति था । यदि उन्हें यह पुरस्कार न दिया गया होता, तो इतिहास में इस बात का उल्लेख होता कि उन्हें मंगला प्रसाद पारितोषिक नहीं दिया गया। तब यह पारितोषिक ही संदेहास्पद हो जाता।
काम के बोझ और अतिरिक्त व्यस्तता के कारण वे अपने स्वास्थ्य का ध्यान नहीं रख पाते थे। इस कारण अपने सेवा काल के दौरान ही 2 फरवरी, सन् 1941 को हृदयगति के रुक जाने से उनकी मृत्यु हो गई।

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