आदि अपार अलेख अनंत अकाल | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | चण्डी- चरित्र | गुरु गोविंद सिंह ||
आदि अपार अलेख अनंत अकाल अभेख अलक्ख अनासा |
कै शिवशक्ति, दये सुति चार, रजो-तम-सत्त तिहू पुर वासा |
द्यौस-निसा ससि सूर के दीप, सु सृष्टि रची पंच तत्व प्रकासा |
वैर बढ़ाई लड़ाइ सुरासुर आपुहि देखत बैठि तमासा || 1 ||
आदि अपार अलेख अनंत
प्रसंग : यह पद्य दशम गुरु गोविंद सिंह विरचित ‘चण्डी-चरित्र’ के आरम्भ प्रथम भाग से उद्धृत किया गया है। इसमें कवि ने आदि देव की स्तुति की है। देवाधिदेव को अनेक परम्परागत एवं मान्य सम्बोधनों से सम्बोधित करते हुए, अपने काव्य को सफलतापूर्वक समाप्त करने की कामना से अनुप्राणित होकर, इस पद्य में कवि कह रहा, या स्तुति गान कर रहा है –
व्याख्या : वह देवाधिदेव, जो आदि शक्ति एवं सृष्टि का आदि स्त्रोत है, जो अपनी वास्तविक सत्ता में अनन्त, अपार और अवर्णनीय है; जो कभी भी जन्मता – मरता नहीं और अकाल पुरुष है; जिस का कोई वेश-भूषा अर्थात् आकार-प्रकार नहीं, जिसे इन बाह्य चर्म चक्षुओं से देख पाना कतई संभव नहीं और जो अपने सत्स्वरूप में अनश्वर एवं चिरन्तन तत्व है; उसे मैं नमस्कार करता हूं।
इस सृष्टि की रचना करने के लिए उस अनादि परम तत्व ने अपने-आप को शिव और शक्ति के रूप में विभाजित कर लिया, सृष्टि के लोग धर्मानुसार आचरण व्यवहार कर सकें, इस कारण जिसने इस धरा धाम पर चार वेद अवतरित किए, जिसने सत्व, रज और तम इन तीन गुणों से या त्रिगुणात्मिक प्रकृति से तीनों लोकों की रचना की और उन्हें इनसे परिपूर्ण कर दिया।
दिन में सूर्य और रात में चन्द्रमा से प्रकाशित होने वाली पंचभौतिक सृष्टि की रचना की। अर्थात् पृथ्वी, जल, वायु, आकाश और अग्नि आदि पंचभौतिक तत्वों से सृष्टि के हर प्राणी और पदार्थ की रचना करके उनके कर्म एवं विश्राम के लिए चन्द्र-सूर्य के प्रकाश के माध्यम से रात दिन का अन्तर स्पष्ट किया। वह आदि पुरुष या देवाधिदेव देव-दानवों में वैर बढ़ाकर उन्हें तो लड़वाता रहता है; पर स्वयं निश्चिन्त एवं निरपेक्ष भाव, से उनका तमाशा देखता रहा करता है। अर्थात् वह परम तत्व देव – दानव, हर्ष – विषाद आदि से हमेशा निरपेक्ष रहकर सृष्टि का पालन, संचालन एवं सर्वकार्य करता रहता है ।
भाव यह है कि वह परम तत्व सामान्य देव न होकर सारी सृष्टि का मूल कारण है। फिर भी सांसारिकता से निरपेक्ष एवं उस सब से ऊपर अविकारी भाव से रहने वाला तत्व है। वह अवांक्षित एवं अवर्णनीय है।
विशेष
1. कवि ने किसी विशेष देवता की स्तुति न कर परम तत्व या देवाधिदेव की स्तुति की है। उसे अनन्त, असीम, अपार, निराकार, निर्गुण एवं निर्विकल्प परिकल्पित किया है।
2. परम तत्व के सभी सम्बोधन परम्परागत ही हैं।
3. कवि ने शिव, शक्ति और वेदों के प्रति भी अपनी आस्था व्यक्त की है।
4. सृष्टि को पंच तत्व विनिर्मित एवं त्रिगुणात्मिक स्वीकारा है।
5. पद्य में उल्लेख और अन्त्यानुप्रास अलंकार हैं। मत्तगयन्द सवैया छंद प्रयोग में लाया गया है।
6. उज्ज्वल या भक्ति है।
7. भाषा तत्सम प्रधान बनी है। उसमें प्रसाद गुण की प्रधानता है। भाषा सहज प्रवाहमयी है। शैली स्तुति या स्तोत्रपरक है।
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