आधे अधूरे नाटक का प्रतिपाद्य | मोहन राकेश | - Rajasthan Result

आधे अधूरे नाटक का प्रतिपाद्य | मोहन राकेश |

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आधे अधूरे नाटक का प्रतिपाद्य — हमारा समाज विशेष रूप से नागर समाज आज सांस्कृतिक संक्रमण काल से गुजर रहा है। भौतिक सभ्यता ने हमें ऐसे कस कर पकड़ लिया है कि हम कसमसाने के सिवा कुछ नहीं कर सकते।

आधे अधूरे नाटक का प्रतिपाद्य

आधुनिक भारतीय समाज में जब नारी घर से निकल कर आर्थिक बोझ को कम करने के लिए नौकरी करने लगी और वह पुरुषों के संपर्क में आई तो युगो पूर्व से विकृत काम कुंठा ने मर्यादा को बांध तोड़ दिया। फलत: मध्यम वर्ग एक ऐसी यंत्रणा से होकर गुजर जाए कि परिवार अब परिवार ही नहीं रहा है |

आज का महानगरीय मध्यम वर्गीय परिवार एक अजीब कशमकश घुटन अलगाव दिशाहीनता और आवारगी के दौर से गुजर रहा है राकेश जी ने अपने नाटक में इसी समस्या को प्रस्तुत किया है और यही प्रस्तुत नाटक का प्रतिपाद्य है श्री शिव प्रसाद सिंह ने मध्यम वर्गीय परिवार की इस घुटन भरी स्थिति के विषय में लिखा है।

इस तरह मियां बीवी वाले छोटे कुनबो की समस्याएं और परेशानियां अलग तरह की है ऊपर से देखने पर लगता है कि ऐसे छोटे-छोटे कुनबे बहुत आराम से हमसे रहते हैं दो हृदयों के बीच का प्रेम अपने और अपने बच्चों की जिंदगी को रस से भर देता होगा। पर वस्तुतः ऐसी बात होती नहीं आदमी का मन इतना सीधा होता नहीं है, एक से बंध कर रहना उसका स्वभाव नहीं होता, प्रयत्न अवश्य ही होता , पर प्रयत्न हमेशा ही सफल हो यह जरूरी नहीं होता परिणाम है मियां बीवी वाले छोटे कुनबे में अशांति का प्रवेश होता है|

परिवार के बीच एक नए किस्म का आउटसाइडर प्रवेश करता है पत्नी की प्रेमिका के रूप में या पत्नी के जार के रूप में। छोटे परिवारों के लिए आदमी के सहज स्वभाव से उत्पन्न यह समस्या बहुत बड़े संकट का कारण बन जाती है। आधे अधूरे नाटक का आधे अधूरे नाटक का

यही समस्या इस नाटक की भी है जिसे नाटककार ने यथार्थ के धरातल पर चित्रित किया है। इस नाटक के माध्यम से नाटककार आधुनिक युगीन सांस्कृतिक पारिवारिक विघटन के संकट की व्याख्या करना चाहता है। हमारा आज का महानगरीय मध्यमवर्गीय जीवन जिन हीनताओ और आर्थिक दुर्बलताओं से ग्रस्त है तथा उच्च जीवन स्तर की उसकी भूख उसे जिस प्रकार अनैतिकता की ओर खींच लिए जा रही है|

उसी का चित्रण करना नाटककार का उद्देश्य है। इसलिए नाटक में जिन पात्रों को नाटककार ने प्रस्तुत किया है वह सब हमारे अपने समाज के उस वीभत्स यथार्थ को ही स्पष्ट करते हैं जिसे हमारा संक्रमण कालीन समाज झेल रहा है। आधे अधूरे नाटक का

नाटककार ने इस नाटक में यह स्पष्ट किया है कि जब परिवार की आय पर्याप्त थी तो ₹400 किराए वाले मकान में महेंद्र नाथ का परिवार रहता था टैक्सियों में आना जाना होता था बच्चों की कान्वेंट फिसे जाती थी, दावते होती थीं, शराब चलती थी किंतु इस अय्याशी ने उन्हें अपने सामाजिक स्तर से ऐसा धकेल दिया कि यह मध्यम वर्गीय परिवार एकाएक निम्न मध्यम वित्तीय परिवार की श्रेणी में आ गया। सामाजिक उच्च स्तर की यह बुक भूख उन्हें लील गई परिवार का मुखिया महेंद्र नाथ निठल्ला हो गया |

और स्त्री को नौकरी करके परिवार का दायित्व ग्रहण करना पड़ा। किंतु उनकी आत्मा धन और ऐश्वर्य की बुभूक्षा से आक्रांत है इसलिए सभी में आवारगी बढ़ने लगी। नाटककार नहीं यहां यह स्पष्ट किया है कि सामाजिक स्तरीकरण की भूख आदमी से क्या कुछ करवा लेती है।

सावित्री इस भूख का ज्वलंत उदाहरण है वह आवारा हो जाती है और बड़े-बड़े नामधारियों के संपर्क में आती है क्योंकि उसे व्यक्ति नहीं उसके पद से प्यार है यह प्रक्रिया एक अच्छे खासे परिवार को दीमक की तरह चाट जाती है। पुरुष अपने निठल्ले पर और बेकारी के कारण अपने को पंगु अनुभव करता है बाहर जो प्रताड़ना और लांच ना उसे सुननी पड़ती है उसका प्रतिकार वह स्त्री से लेता है महानगरों के मध्यम वर्ग को इस यंत्रणा में पूछना पिसना है बिन्नी इस समस्या को इन शब्दों में व्यक्त करती है|

“मैं यहाँ थी, तो मुझे कई बार लगता था कि मैं एक घर में नहीं, चिड़िया घर के एक पिंजरे में रहती हूँ.. जहाँ आप शायद सोच भी नहीं सकते कि क्या-क्या होता रहा है यहाँ । डैडी का चीखते हुए ममा के कपड़े तार-तार कर देना उनके मुँह पर पट्टी बाँधकर उन्हें बन्द कमरे में पीटना खींचते हुए गुसलखाने में कमोड़ पर ले जाकर मैं तो बयान भी नहीं कर सकती कि कितने-कितने भयानक दृश्य इस घर में देखे हैं मैंने । कोई भी बाहर का आदमी उन सबको देखता-जानता, तो यही कहता कि क्यों नहीं बहुत पहले ही ये लोग?”

यह समस्या आधुनिक युग की एक विकट समस्या है जिसे सभी झेल रहे हैं, भले ही उसका प्रकटीकरण न करते हों । यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि नाटककार यह नहीं चाहता कि आधुनिक महान-गरीब पारिवारिक समस्याओं का एक हल्का-सा बिम्ब पाठकों दर्शकों के सम्मुख रखकर कोई हल भी उनके सामने प्रस्तुत कर दे ।

वह तो एक ऐसे यथार्थ का साक्षात्कार कराता है जिसे आज के मध्यमर्गीय परिवार झेल रहे हैं। यह और बात है कि इस परिवार जैसी अनुशासनहीनता सभी परिवारों में नहीं मिलती, किन्तु कमोवेश समस्याएँ तो मिल ही जाएँगी । महेन्द्रनाथ का एक कथन हम यहाँ इस संदर्भ में उद्धृत कर रहे हैं जो विघटनशील परिवार की मूल समस्या को व्यक्त करता है

“मैं इस घर में एक रबड़ स्टैंप भी नहीं, सिर्फ एक रबड़ का टुकड़ा हूँ – बार-बार घिसा जाने वाला रबड़ का टुकड़ा । इसके बाद क्या कोई मुझे वजह बता सकता है, एक भी ऐसी वजह, कि क्यों मुझे रहना चाहिए इस घर में ? नहीं बता सकता न ? मेरे भरोसे तो सब कुछ बिगड़ता आया है और आगे बिगड़ ही बिगड़ सकता है।

(लड़के की तरफ इशारा करके) यह आज तक बेकार क्यों घूम रहा है? मेरी वजह से। (बड़ी लड़की की तरफ इशारा करके) यह बिना बताये एक रात घर से क्यों चली गयी थी ? मेरी वजह से ।

(स्त्री के बिल्कुल सामने आकर) और तुम भी इतने सालों से क्यों चाहती रही हो कि ? अपनी जिन्दगी चौपट करने का जिम्मेदार मैं हूँ। तुम्हारी जिन्दगी चौपट करने का जिम्मेदार मैं हूँ । इन सबकी जिन्दगीयाँ चौपट करने का जिम्मेदार मैं हूँ। फिर भी मैं इस घर से चिपक हूँ क्योंकि अन्दर से मैं आरामतलब हूँ, घरघुसरा हूँ, मेरी हड्डियों में जंग लगा है।”

महेन्द्रनाथ के इस कथन में जो नैराश्य भाव है, जो तल्खी है, वह आर्थिक, सामाजिक और पारिवारिक रूप से एक ऐसे टूटे हुए व्यक्ति का खण्डित प्रतिबिम्ब है जिसमें आज के तथाकथित स्तरीकरण की दौड़ में भागने वाले किसी भी मध्यवर्गीय व्यक्ति के मुखौटे को देखा जा सकता

‘आधे अधूरे’ नाटक के उद्देश्य का विवेचन करते हुए डॉ० विजय बापट का कहना है – “इस नाटक में विघटित होते हुए आज के मध्यमवर्गीय शहरी परिवार का कडुवाहट भरा चित्रण किया है जिसकी विडम्बना यह है कि व्यक्ति स्वयं अधूरा होते हुए भी औरों के अधूरेपन को सहना नहीं चाहता। काल्पनिक पूरेपन की तलाश में भटककर अपनी और दूसरों की जिन्दगी को नरक बना देता है ।

नाटककार इस प्रक्रिया को विशेष व्यक्तियों या परिवारों तक सीमित न रखकर सामान्य मानता है। इसी कारण वह पात्रों के नाम न देकर पुरुष एक, पुरुष दो, पुरुष तीन, स्त्री, बड़ी लड़की छोटी लड़की आदि कहता है । वैसे बाद में उनके नाम भी दे दिये जाते हैं। लगता है कि नाटककार जातिगत नाम ही उभारना चाहता है। इस नाटक में महानगरों में रहने वाले मध्यमवर्गीय आधुनिक परिवारों का प्रतिबिम्ब देखा जा सकता है। यह पूरा नाटक अस्वीकार का नाटक है। बिना कोई हल या विकल्प पेश किये है जो

उसकी विरूपता को, विसंगति को ईमानदारी के साथ उतारा गया है। आज का परिवार अन्दर ही अन्दर किस तरह टूट चुका है, आपसी सम्बन्ध किस तरह चुक गया है – यह बड़े सशक्त ढंग से नाटककार ने इस नाटक में दिखाया है ।

इस नाटक के स्त्री-पुरुष के आपसी निजी सम्बन्ध करीब-करीब चुक गये हैं और अब साथ-साथ रहने की और सामाजिक सम्बन्ध ढोने की कटुता ही शेष है । पुरुष-महेन्द्रनाथ – जीवन में असफल होकर स्त्री की कमाई की रोटी तोड़ रहा है। गृहपति की मर्यादा से वंचित रहकर भी तानों-व्यंग्यों से स्त्री को छेदता रहता है, अपनी इस नियति को स्वीकारने के लिए विवश होकर भी पूर्णतः स्वीकार नहीं कर पाता ।

आज के परिवार में बच्चों की माँ-बाप के प्रति श्रद्धा तो काफूर हो गयी है, ममता भी उड़ती चली जा रही है, बच्चे विपथगामी होते जा रहे हैं और नाटक के वाक्य – ‘अंधेरा अधिक गहरा होता जा रहा है’ – की यथार्थ अनुभूति होती जाती है। कुल मिलाकर यह नाटक आज के नाटक की महत्वपूर्ण उपलब्धि है। जीवन की विरूपता का ऐसा चित्रण नाटक में अभी तक न हो पाया था।”

नाटक के उद्देश्य के विषय में सर्वाधिक ध्यान देने योग्य बात यह है कि नाटककार ने इसे अनिश्चित नाटक कहा है। उसके अनुसार कुछ पात्रों को निकाल देने से या बढ़ा देने से सम्भवतः नाटक का कथानक निश्चित हो जाता किन्तु फिर भी उसने ऐसा नहीं किया। उसने उद्घोषक के रूप में जिस व्यक्ति को सर्वप्रथम मंच पर प्रस्तुत किया है वह नाटक के उद्देश्य के रूप में जिस व्यक्ति को सर्वप्रथम मंच पर प्रस्तुत किया है वह नाटक के उद्देश्य की अनिश्चितता के विषय में कहता भी है –

है कि “यह नाटक भी अपने में मेरी ही तरह अनिश्चित है। अनिश्चित होने का कारण यह परन्तु कारण की बात करना बेकार है हो सकता है यह नाटक एक निश्चित रूप ले सकता हो – किन्हीं पात्रों को निकाल देने से, या दो – एक पात्र और जोड़ देने से, या कुछ भूमिकाएँ बदल देने से, या कुछ पंक्तियाँ हटा देने से, या कुछ पंक्तियाँ बढ़ा देने से, या परिस्थितियों में थोड़ा हेरफेर कर देने से।”

‘आधे अधूरे’ के उद्देश्य की इस अनिश्चितता के कारण मोहन राकेश पर आरोप लगाते हुए डा० कृष्णदेव झारी लिखते हैं – “न जाने एक ‘अनिश्चित नाटक’ रचने-एक उद्देश्यहीन रचना करने में आज के लेखक को क्या मजा आता है ? इसमें एक मध्यवर्गीय, किन्तु निम्न मध्यवित्तीय परिवार के जीवन की विडम्बना का यथातथ्य चित्रण करने के सिवाय कोई प्रेरणादायक सुझाव या समस्या का हल प्रस्तुत नहीं किया । (गोया नाटककार कोई वैद्य है जो रोग को पहचानकर उसकी दवा-दारू भी दे !) नाटक का अंत उसी अनिश्चित स्थिति में होता है।”

मेरी समझ में नहीं आता कि ‘लेखक को मंजा’ किसमें आता है ? समीक्षा के यही मानदण्ड रहे तो शायद हमारे नाटक को फिर नौटंकी में उतरना पड़ेगा । आश्चर्य है, डॉ० झारी ने यह नहीं लिखा कि इसमें मंगलाचरण और भरत वाक्य नहीं है । वाह रे हिन्दी नाटक की आलोचना ! मैं तो यही कहूँगा कि किसी रचना का निरुद्देश्य लेखन भी अपने आपमें एक उद्देश्य है ।

महानगरीय संत्रास बोध से जकड़े निरुद्देश्य जीवन की सही पकड़ और उसकी लक्ष्यहीनता को उजागर करना ही नाटककार का उद्देश्य है – और इसे हम उद्देश्यहीनता नहीं कह सकते। जो कहते हैं, उनके आलोचना के मानदण्ड अवश्य निरुद्देश्य हैं।

सच्चाई उन्हें कड़वी लगती होगी तो वे उसे निगलें कैसे ? क्योंकि उन्हें तो यही सिखाया गया है कि पाठ्यक्रम में लगे लेखकों का प्रशस्तिगान करें और नये लेखकों के रचना – संसार से अपरिचित रहने के कारण जब भी अवसर मिले उन पर कीचड़ उछाल दें ताकि पाठ्यक्रम में लगे दिवंगत साहित्यिकों को अर्थार्जन के माध्यम से तर्पण दिया जा सके ।

मैं तो नाटक की अनिश्चितता के विषय में यही कहूँगा कि इसका कारण स्वयं हमारे जीवन की विडम्बना है। आधुनिक व्यक्ति की आकाँक्षाएँ बढ़ती जा रही हैं किन्तु उसका लक्ष्य अनिश्चित । एक दौड़ चल रही है स्तरीकरण की, आर्थिक सुविधाभोग की और हम सब उस दौड़ में सम्मिलित हैं किन्तु न तो दौड़ की दिशा ही निश्चित है, न लक्ष्य ।

नाटककार का कुछ सवालों को उठाकर उन्हें ज्यों का त्यों छोड़ देना इसी का परिणाम है कि हमारा जीवन स्वयं उद्देश्यहीन हो गया है। और चूँकि नाटक यथार्थवादी है इसलिए नाटककार ने किसी आदर्श के छद्म को नहीं ओढ़ा है वरन् जो है उसे उसी रूप में प्रस्तुत कर दिया है। इसीलिए वह कहता भी है

“मैंने कहा था यह नाटक भी मेरी ही तरह अनिश्चित है । उसका कारण भी यही है कि मैं इसमें हूँ और मेरे होने से ही सब कुछ इसमें निर्धारित या अनिर्धारित है। एक विशेष परिवार, उसकी विशेष परिस्थितियाँ ! परिवार दूसरा होने से परिस्थितियाँ बदल जातीं, मैं वही रहता। इसी तरह सब कुछ निर्धारित करता ।

इस परिवार की स्त्री के स्थान पर कोई दूसरी स्त्री किसी दूसरी तरह से मुझे झेलती – या वह स्त्री मेरी भूमिका ले लेती और मैं उसकी भूमिका लेकर उसे झेलता । नाटक अंत तक फिर भी इतना ही अनिश्चित बना रहता और यह निर्णय करना इतना ही कठिन होता कि इसमें मुख्य भूमिका किसकी थी- मेरी उस स्त्री की, परिस्थितियों की, या तीनों के बीच से उठते कुछ सवालों की ।”

इस प्रकार इस नाटक में नाटककार ने महानगर के एक निम्न मध्य वित्तीय परिवार की समस्याओं को उठाकर उन्हें तद्रूप में ही चित्रित कर देना अपना उद्देश्य रखा है। वह न तो किसी को उपदेश देना चाहता है, न सुधारवादियों की भाँति मंच का दुरुपयोग करता है और न ही डॉक्टर

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