आयसु अब जो होइ ग्रंथ तो मैं रचौं | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | चण्डी- चरित्र | गुरु गोविंद सिंह |

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आयसु अब जो होइ ग्रंथ तो मैं रचौं । 

रतन प्रमुद कर वचन चीन्ह तामैं गयौं । 

भाषा सुभ सब करौं धारि हौं कृत्ति में। 

अद्भुत कथा अपार समुझि करि चित्त में ।। 6 ॥

आयसु अब जो होइ

प्रसंग : प्रस्तुत पद्य दशम गुरु गोविन्द सिंह की रचना ‘चण्डी- चरित्र’ के पहले अध्याय में से लिया गया है। अपनी इस रचना में कवि ने पौराणिक मान्यताओं के अनुरूप देवी चण्डिका का चरित्रांकन किया है। अपना चरित्र चित्रण करने की देवी से आज्ञा चाहते हुए इस पद्य में कवि कह रहा है-

 

व्याख्या : हे देवि चण्डिके! अब यदि आप मुझे अपनी कृपा- आज्ञा प्रदान करें, तो मैं आप के चरित्र पर प्रकाश डालने वाले इस काव्य ग्रन्थ की रचना आरम्भ कर दूं। तुम्हारा और सभी का आनन्द करने वाले भावों और वचन रूपी रत्नों का चुनाव करके मैं उस काव्य में जड़ दूं।

अर्थात् जैसे आभूषण में आवश्यकतानुसार उचित रत्न जड़े और मढ़े जाते हैं, उससे वह और भी महत्वपूर्ण तथा मूल्यवान हो जाया करता है; सो तुम्हारी आज्ञा से मैं काव्य-रचना में इस प्रकार के भाव एवं विचार भरने की चेष्टा करूं, जिससे तुम्हारा पावन चरित्र और तुम्हारा काव्य दोनों ही अधिक उपयोगी, प्रभावशाली और मूल्यवान हो जाए।

आपकी आज्ञा हो तो सभी के और सभी प्रकार से शुभ मंगल का विधान कर पाने में समर्थ भावों, विचारों और वचनों को इस रचना में रूपायित एवं प्रभावी कर दूं। तुम्हारे चरित्र से सम्बन्धित जो यह अद्भुत, गहन और अनन्त कथा है, उस पर अपने चित्त में ठीक से विचार करके, अपने काव्य में उस सब का समुचित वर्णन कर सकूं, ऐसा करने का मुझे आशीर्वाद और आज्ञा दो ।

 

भाव यह है कि जिस पर भगवती चण्डिका की कृपा होती है, जिसे उसका पावन आशीर्वाद प्राप्त जाता है, वही श्रेष्ठ रचनाकार हो सकता है। अतः उसकी शरण में जाकर उसकी कृपा प्राप्त करने का सतत प्रयास करना चाहिए।

 विशेष

1. पद्य के ऊपर ‘पुनहा’ शब्द लिखा है । वह ‘पुनः’ शब्द का देशीकृत स्वरूप है, कुछ और नहीं ।

2. कवि ने देवी की कृपा-याचना की है।

3. काव्य में विचारपूर्ण वाक्य होने चाहिए, अनाप-शनाप नहीं; कवि का यह अभिप्राय स्पष्ट है ।

4. भाषा की शुभता भी कवि काव्यों में अनिवार्य मानता है।

5. पद्य में रूपात्मक योजना, अन्त्यानुप्रास और वर्णन अलंकार स्पष्ट हैं।

6. पद्य ‘लवंगम’ छंद में रचा गया है।

7. भाषा शैली सहज, सरल और परम्परागत है। प्रसाद गुण – प्रधान है।

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