एरे बीर पौन ! तेरो सब ओर | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | घनानंद |
एरे बीर पौन ! तेरो सब ओर गौन, बीरी
तो सो और कौन, मनैं ढ़रकौंही बानी दै।
जगत के प्रान, ओछे बड़े सो समान, घन- आनंद-निधान सुखदान दुखियानि दै।
जान उजियारे गुन-भारे अंत मोही प्यारे,
अब ह्वै अमोही बैठे पीठि पहिचानि दै।
बिरह-बिथाहि मूरि, आँखिन में राखौं पूरि,
धूरि तिन पायन की हा-हा! नेकु आनि दै।’ ।।6।।
एरे बीर पौन
प्रसंग : प्रस्तुत छंद के रचयिता कवि घनानंद हैं। घनानंद स्वच्छंद काव्यधारा के आधार स्तंभ हैं। इन्होंने अपने काव्य में स्वच्छंद प्रेम के गीत गाये हैं। अपने व्यक्तिगत जीवन में इन्होंने जो कुछ देखा, जो कुछ भोगा उसी को अपने काव्य में वर्णित किया है। इस छंद में कवि पवन से प्रार्थना करता है कि पवन उस विरही प्रेमी पर कृपा करे और उसके प्रिय के चरणों की थोड़ी-सी धूल लेकर आएँ । इसलिए वह पवन की प्रशंसा करता है।
व्याख्या : विरही प्रेमी कवि कहता है कि हे भाई पवन! तुम्हारा आना-जाना तो सभी दिशाओं में रहता है। अर्थात् तुम वहाँ भी जा सकते हो जहाँ मेरे प्रियतम निवास करते हैं। तुम्हारे समान इस संसार में और कोई व्यक्ति नहीं है जो इस कठिन कार्य को पूरा कर सके।
हे पवन तू अपने मन को आदत डाल दे जिससे कि वे दूसरों को दुखी देखकर उनका दुख दूर करने का प्रयास करे। हे वीर पवन तू संसार को प्राण देने वाला है। संसार की रक्षा करने वाला है। तेरी दृष्टि में छोटे-बड़े सब समान हैं। तू संसारभर को अत्यधिक आनंद प्रदान करने वाला है। अतः हे पवन तू मुझ जैसे दुखियों का दुख दूर कर सुख प्रदान कर । अर्थात् तू मेरा भी एक काम कर दे। मेरे प्रियतम सुजान बहुत गुणवान और अत्यधिक कांतिमान हैं।
उन्हें मुझ से अब तक बड़ा प्रेम था। लेकिन अब वे मेरे प्रति निर्मोही हो गयी हैं। मुझे भुलाकर न जाने कहाँ जाकर बैठ गई हैं। अतः तू जानकर उनके चरणों की धूल लाकर मुझे दे दे | मेरी विरह-वेदना की पीड़ा को दूर करने वाली संजीवनी-बूटी के समान उसके पाँवों की धूल को अपनी आँखों में अंजन की भांति लगाना चाहता हूँ। इसलिए तू मुझे उसके चरणों की धूलि ला दे। ऐसा करने से मेरी विरह-वेदना कुछ कम हो सकेगी।
विशेष :
1. घनानंद का यह कवित्त दूत- परंपरा का द्योतक है।
2. इसमें पवन को दूत बनाकर भेजा गया है। उससे अपने प्रिय के चरणों की धूल को लाने का आग्रह किया है।
3. ‘पीठ देना’ मुहावरे का प्रयोग हुआ है।
4. इसमें कवित्त छंद का प्रयोग हुआ है।
5. अनुप्रास, यमक, रूपक अलंकार का प्रयोग हुआ है।
6. ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।
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