ऐसो कछु अनुभौ कहत न आवै | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | संत रविदास |
ऐसो कछु अनुभौ कहत न आवै, साहब मिलै तौको बिलगावै ।
सब में हरि है हरि में सब है, हरि अपनो जिन जाना।
सखी नहीं अउर कोई दूसर, जाननहार सयाना।
बाजीगर संग में राचि रहा, बाजी का मरम न जाना।
बाजी झूठ सांच बाजीगर, जाना मन पतियाना।
मन थिर होइ तो कोइ न सूझै, जानै जाननहारा।
कह रविदास विमल विवेक सुख, सहज सरूप सभारा।
ऐसो कछु अनुभौ कहत
प्रसंग : पद में रविदास ने ईश्वर के स्वरूप का वर्णन किया है। इस ईश्वर के साथ जीव अपना सहज संबंध कैसे बना सकता है, इसे समझाया है। इसमें किसी का खंडन नहीं है। वे अपने मत तो अपने समर्थकों को बताते हैं।
व्याख्या :– परमात्मा से मिलन के इस रहस्यमय अनुभव को मैं कैसे बताऊँ ? मुझे तो कहना भी नहीं आता। यह कोई सामान्य अनुभव तो है नहीं। साहब अर्थात् ईश्वर मिल भी जाए तो उससे कौन अलग होना चाहेगा ?
आगे रविदास अपनी मूल मान्यता को अभिव्यक्त करते हैं। यह मान्यता उनकी सभी वाणियों में बार बार मिलती है कि भगवान सभी में निवास करते हैं और सभी लोग भगवान में होते हैं। इसमें जीव-जंतु, जड़-चेतन सब शामिल हैं। उस भगवान के अलावा दूसरा कोई सखा या मित्र नहीं है। यह बात सभी समझदार लोग जानते हैं। इसे कहने की जरूरत नहीं है। यह परमात्मा तो बाजीगर है।
हम उसके साथ रहते हैं, फिर भी उसकी बाजी के अर्थात इस दुनिया के मर्म को नहीं समझ पाते। इसका सबसे बड़ा रहस्य तो यह है कि यह बाजी अर्थात् यह दुनिया झूठ है। सत्य नहीं है। भले ही इसकी रचना स्वयं परमात्मा ने की है। परमात्मा सत्य है, यह जानने और विश्वास करने की जरूरत है। फिर यदि आपका मन परमात्मा में स्थिर हो गया, तो कोई और बात मन में आएगी ही नहीं। इस बात को बस जानने वाला ही जान पाता है।
इसलिए रविदास कहते हैं कि ज्ञान के साथ मल रहित सहज रूप में जीवन जीने से सारे सुख प्राप्त हो सकते हैं।
विशेष :
यह रविदास का दार्शनिक पद है। इसमें उन्होंने परमात्मा के स्वरूप को समझाया है, आत्मा से रिश्ता स्पष्ट किया है तथा परमात्मा से मिलने का सहज रास्ता भी बताया है। |
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