ओ रही मानस की गहराई | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | जयशंकर प्रसाद | - Rajasthan Result

ओ रही मानस की गहराई | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | जयशंकर प्रसाद |

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ओ रही मानस की गहराई ।

तू सुप्त, शांत कितनी शीतल।

निर्वात मेघ ज्यों पूरित जल। 

नव मुकुर नीलमणि फलक अमल

ओ पारदर्शिका चिर चंचल। 

यह विश्व बना है परछाई।। 

तेरा विषाद द्रव तरल-तरल

मूर्छित न रहे ज्यों पिये गरल सुख लहर उठी री सरल-सरल

लघु-लघु सुंदर, सुंदर अविरल

ओ रही मानस की गहराई

व्याख्या : मानस हृदय की गहराई बहुत अधिक है। ठीक उसी प्रकार जैसे मानसरोवर की। जिस तरह मानसरोवर में तरह-तरह की लहरें उठती-गिरती और उछलती-कूदती हैं उसी प्रकार इस हृदय में भी अतीत की स्मृतियाँ तथा विविध भावनाएँ सदैव क्रीड़ा करती रहती हैं।

प्रसाद अपने हृदय की इसी मनःस्थिति को संबोधित कर कहते हैं कि हे मन की गम्भीरता तू बहुत ही शान्त है। तेरी गहनता जब सुप्त अवस्था में होती है और सभी क्रियाओं से शून्य होती हैं तो अत्यंत शांत एवं शीतल स्थिति में होती है।

तेरी यह स्थितप्रज्ञ (सुप्तावस्था) अवस्था समग्र विश्व को भी शीतलता प्रदान कर ताप से मुक्ति दिलाती है। जिस प्रकार जल से आपूरित बादल को हवा भी विदीर्ण नहीं कर सकती उसी प्रकार प्रतिकूल स्थितियों को घात-प्रतिघात भी मेरे इस शीतल-शान्त मन की आर्द्रता के समूह को विचलित नहीं कर सकते।

मेरा यह गाम्भीर्य युक्त हृदय किसी नव्यतम शीशे या नीलमणि के धरातल सा स्वच्छ और निर्मल जान पड़ता है। इसके भीतर से दूर-दूर तक के दृश्यों को देखा जा सकता है। अर्थात पारदर्शी मन नीलमणि फलक के दर्पण के समान दिखाई देता है।

सम्पूर्ण विश्व को प्रतिबिम्बित करने वाली मानस की नीली गहराइयों के समान ही भावनाओं के उतार-चढ़ाव से आन्दोलित होती इस मन की गम्भीरता भी निर्मल और स्वच्छ है। दूर अतीत की स्मृतियाँ इसमें स्पष्ट हैं।

कवि के हृदय पर अच्छारित विषाद वैसा ही जान पड़ता है जैसे पूरे मानसरोवर पर जल छाया रहता है। किंतु यह विषाद जल विष का प्रतीक नहीं, अमृत का सूचक है। विषाद की विश्वव्यापी लहर से कवि निष्क्रिय और अकर्मण्य नहीं होना चाहता।

इसीलिए इस विषाद में भी वह सुख की छोटी-छोटी लहरों के उठने की गति को समझता और पहचानता है। मानस में उठती जल आने नेतले  कवि के हृदय पर अच्छारित विषाद वैसा ही जान पड़ता है जैसे पूरे मानसरोवर पर जल छाया रहता है। किंतु यह विषाद जल विष का प्रतीक नहीं, अमृत का सूचक है।

विषाद की विश्वव्यापी लहर से कवि निष्क्रिय और अकर्मण्य नहीं होना चाहता। इसीलिए इस विषाद में भी वह सुख की छोटी-छोटी लहरों के उठने की गति को समझता और पहचानता है। मानस में उठती जल लहरियों के समान ही हृदय में भी सुख के छोटे-छोटे क्षण आते ही रहते हैं।

अतः हे हृदय तेरी शक्ति का गाम्भीय भी आनन्दप्रद ही बना रहे। दुःख से दुःखी न होकर तू क्षणिक सुख का भी आनन्द ले। तेरी हंसी से ही इस प्रकृति और विश्व को आनन्द तथा सुख की प्राप्ति हो, यह मेरी आकांक्षा है। तुम्हारी हंसी ही संसार की खुशियों के आगमन की सूचना बने।

विशेष

“निर्वात मेघ ज्यों पूरित जल”- में “धर्मलुप्तोपमा” अलंकार है।

• आकाश के लिए प्रयुक्त “नीलमणि फलक में “रूपक” अलंकार है।

• तरह-तरह, सरल-सरल, लघु-लघु आदि में नीप्सा है।

• इसी प्रकार छेकानुप्रास, मानवीकरण, पुनरूक्तिप्रकाश आदि अलंकार भी हैं। . चित्रात्मक शैली है।

• कवि का दर्शन कविता के गाम्भीर्य में ढल रहा है।

• मानवतावादी एवं आनन्द-प्रद दृष्टि प्रधान है। भाषा भावों के पूर्णतः अनुकूल है। तत्सम शब्द प्रधान है।

• मीत में 16-16 मात्राएँ हैं और अन्त में दो गुरु हैं।

• छायावादी प्रतीकात्मकता का सफल प्रयोग किया गया है।

• कई लाक्षणिक शब्दों का प्रयोग सराहनीय है।

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