कबीर की भाषा और काव्य सौंदर्य | कबीरदास | - Rajasthan Result

कबीर की भाषा और काव्य सौंदर्य | कबीरदास |

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कबीर की भाषा और काव्य सौंदर्य :— कविता के द्वारा कविता से परे की संप्रेषित होने वाली विशिष्ट संवेदनशीलता महत्त्वपूर्ण कुंजी है- कवियों की भाषा। इन अर्थों में कबीर की भाषा अत्यंत विशिष्ट है।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है, “भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा, उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया। बन गई तो सीधे सीधे, नहीं तो दरेरा देकर ।

कबीर की भाषा

भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार नजर आती है। उसमें मानों ऐसी हिम्मत ही नहीं है कि इस लापरवाह फक्कड़ की किसी फरमाइश को नहीं कर सके। और अकथ कहानी को रूप देकर मनोग्राही बना देने की तो जैसी ताकत कबीर की भाषा में है, वैसी बहुत कम लेखकों में पाई जाती है।”

प्रतीकात्मकता

कबीर की भाषा जनता के बीच से निकली थी, जिसमें व्याकरण और शास्त्र का आग्रह नहीं था। भाषा की सार्थकता की बात वहाँ उठती है, जहाँ भाव कमजोर हों। जहाँ भाव एवं विचार श्रेष्ठ हों, वहाँ भाषा सिर्फ संप्रेषणीयता का मसला रह जाती है। कबीर ने भाषा को जनता के बीच से उठाया और उसमें रहस्यात्मक प्रतीक मढ़ दिए।

उनकी भाषा में अभिव्यंजना का हर उतार चढ़ाव मौजूद है। यहाँ तक कि उनके रहस्यवाद की तमाम उलझनें जिस स्तर पर सुलझती हैं, वह स्तर भाषा का ही है। जनता के बीच प्रचलित प्रतीक, रूपक और उपमानों को जगह देकर कबीर अपने पदों को जीवंत कर देते हैं। यही वजह है कि जनता उनके प्रतीकों की दुर्बोधता के बीच भी बोध-भूमि तलाश लेती है

आगि जू लागि नीर माहि, कांदो जरिया झारि।

उत्तर दक्षिण के पंडिता मुए विचारी विचारी।।

विरह की आग जब मानस रूपी नीर में लगती है, तब उसमें निहित विषयवासनाएँ पूर्णतः नष्ट हो जाती हैं और उत्तर दक्षिण के पंडित विचार करने पर भी इसका रहस्य नहीं समझ पाते। यहाँ कबीर ने आग, जल, कीचड़ आदि प्रतीकों के माध्यम से जिस कथन को संप्रेषित किया है, वह किसी साधारण जन के लिय भी दुर्बोध नहीं है।

कबीर इस उलटबाँसी में असंगति अलंकार (पानी में आग लगना) की सहायता से विरहाग्नि के धधकने और उसमें वासनाओं के कीचड़ के जलने की गंभीर चर्चा करते हैं, परंतु जैसे ही मौका मिलता है, उत्तर दक्षिण के पंडितों के बहाने धर्मशास्त्रज्ञों पर प्रहार भी करते हैं, जिनका ज्ञान केवल पोथियों तक सीमित है।

कबीर रमतायोगी थे भाषा का प्रयोग वे अपनी सुविधानुसार करते हैं। इच्छानुसार करते हैं;

कहना था सो कह दिया, अब कहु कहना नाहिं। एक रही दूजी भई, बैठा डरिया माहिं।।

कबीर की भाषा की अक्खड़ता ही उसका प्राण है। जब वे व्यंग्य पर उतर आते हैं, तब पंडित और मुल्ला, अवधूत और योगी सभी उनके बाणों से बिंध कर रह जाते हैं।

कबीर की कविताओं में साधारण जीवन का स्मरण हुआ है। यह श्रोता को सहज आकृष्ट करता है। उन्होंने अपने गुह्य कथनों के लिए रूपकों का सहारा लिया, उपमाएँ परिचित शब्दावलियों के बीच से लीं, पर उसमें गहन अर्थ की परतें हैं। संबंधों की दीवार भी उनकी भाषा के लिए रुकावट नहीं हैं :

कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाऊँ।

गले राम की जेवड़ी जित खेचै तित जाऊँ।

यहाँ नाम के रूप में ‘मुतिया’ का प्रयोग अत्यंत सार्थक है। इसमें कुत्ते की सारी निरीहता हाथ बाँधे खड़ी हो जाती है। ‘मुतिया’ के रूप में वही कबीर है जो गगन गुफा का कोनाकोना झाँकते हैं, बड़े बड़े अवधूतों को ललकारते हैं। यहाँ उनकी निरीहता, विश्वास परायण मनुष्य की निरीहता है। निष्ठावान व्यक्ति की विनम्रता है।

कबीर की भाषा में लापरवाही, सजगता और आक्रमण तीनों गुण दिखाई देते हैं। आक्रमण की भाषा तो सिद्धों और योगियों की भी थी, पर उसमें वह आत्मविश्वास नहीं था, जो कबीर के पास था। कबीर दंभी नहीं थे, पर यदि उनमें दंभ जैसा कुछ दीखता है, तो वह दरअसल उनका अखंड आत्मविश्वास है :-

कबीर माया पापिनीं फंद लो बैठी हाटि।

सब जग तो बन्दे परा, गया कबीरा काटि ।।

उपर्युक्त विश्लेषण कबीर की भाषा संबंधी प्रवृत्ति और प्रकृति को स्पष्ट करता है। परंतु उनकी भाषा के संबंध में कुछ सूचनात्मक जानकारियाँ भी आवश्यक है। डा. श्याम सुंदर दास का मत है, कि “कबीर की भाषा का निर्णय करना टेढ़ी खीर है, क्योंकि वह खिचड़ी है।’ आचार्य रामचंद्र शुक्ल का विचार था साखियों की ‘भाषा सधुक्कड़ी अर्थात राजस्थानी-पंजाबी मिली खड़ी बोली है, पर ‘रमैनी’ और सबद’ में गाने के पद हैं जिनमें काव्य की ब्रजभाषा और कहीं कहीं पूरवी बोली का भी व्यवहार है।

“आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत ऊपर बताया जा चुका है। निस्संदेह कबीर की भाषा मिश्रित भाषा थी। इसका कारण भी यही है कि इन्होंने लंबी यात्राएँ की। व्यापक सत्संग किया। साथ ही पूरब की बोली बाली तो इनका व्यवहार गत संस्कार थी। अन्यथा इन्होंने किसी औपचारिक शिक्षा के माध्यम से अपनी भाषा का निर्माण तो नहीं किया है। इसी कारण इनकी रचनाओं में खड़ी बोली, पंजाबी और राजस्थानी का प्रचुर प्रभाव है। उदाहरण :-

तू तू करता तू भया, मुझमें रही न हूँ बारी केरी बलि गई, जित देखो तित तूं।।

खड़ी बोली झाँई पड़ी पंथ निहारि-निहारि पंजाबी राजस्थानी : ना जाने कब मारसी।

इस संदर्भ का विश्वनाथ त्रिपाठी ने उचित ही समाहार किया है, “कबीर की भाषा पर विचार करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जिन दिनों कबीर रचना कर रहे थे उन दिनों आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का काव्य भाषा के रूप में विभाजन आज जैसा स्पष्ट नहीं था। कबीर मूलतः संत थे। उनकी रचनाओं का उद्देश्य अपने विचारों और अपनी अंतर साधनात्मक अनुभूतियों को अभिव्यक्त करना था।” इसीलिए प्रचलित भाषा में कबीर ने रचना की। संप्रेषणीयता उनकी भाषा की अनिवार्य और संभवतः एक मात्र शर्त है।

उलटबाँसी

कबीर के काव्य रूपों पर विचार करते समय कबीर की उलटबाँसियों पर विचार करना भी आवश्यक है। अभिव्यक्ति की निरंतरता से शैली का जन्म होता है किंतु इसके उलट अर्थ को व्यवहृति न मिलने से शब्द प्रतीक बनते हैं। भाषा के इतिहास में प्रतीकों का अपना विशिष्ट स्थान है।

परंतु यह बतलाना दुरूह कार्य है कि किस शब्द में प्रतीक शक्ति है। कोई भी शब्द प्रतीक बन सकता है। इसकी योग्यता प्रयोक्ता के हाथ में होती है। ‘उलटबाँसी’ भारतीय चिंतन परम्परा का शब्द है। यह गूढ़ और रहस्यमयी बातों के ढंग से व्यक्त करने की शैली है। इस शैली का प्रयोग बौद्धो, नाथपंथियों में भी मिलता है। संभवतः उपनिषदों की कुछ उक्तियाँ भी इस श्रेणी में आती हैं।

कबीर की उलटबाँसियाँ उनकी प्रतीक योजना का अभिन्न अंग हैं। एक पद देखिए

एक अचंभौ देखा रे भाई।

ठाढ़ा सिंघ गाइ चरावै गाइ।।

पहिलै पूत पिछे भई माई, चेला के गुर लागै पाई।

जल की मछरी तरवरि ब्याई, कुता कौ लै गई बिलाई।

बैलहि डारि गोंनि घरि आई, घोरै चढि भैंस चरावन जाइ।

तलि करि साखा उपरि करि मूल, बहुत भाँति जड़ लागे फूल।

कहै कबीर या पद कौं बूझै, ताकौं तीनिऊँ त्रिभुवन सूझै।

अगर इस पद के सामान्य अर्थ पर विचार करेंगे तो हमारे हाथ शायद ही कुछ लगे। हमें इसका प्रतीकार्थ समझना होगा। सामान्य जीव इंद्रियों के वश में रहता है, पर सिद्धि प्राप्त होने पर इंद्रियाँ जीव के वश में आ जाती हैं। पहले साधक होता है, फिर साधना होती है और शिष्य या साधक जब पूर्ण रूप से अंतर्मुखी हो जाता है, विषयों से विरक्त हो जाता है, तब अंतरात्मा इसे अपनी ओर आकृष्ट करता है।

पहले साधक अंतरात्मा से साक्षात्कार के लिए प्रयत्नशील किन्तु सिद्धि के निकट पहुँचने पर स्वयं अंतरात्मा उसकी ओर उन्मुख होती है। यही गुरु का शिष्य के पैर लगना है। वास्तव में यह सिद्धि की चरमावस्था को अभिव्यंजित करने के लिए रचा गया प्रतीक विधान है। कबीर की अधिकांश उलटबाँसियाँ आध्यात्मिक-दार्शनिक उक्तियाँ हैं। इस शैली के कारण उनकी शुष्क और नीरस दार्शनिक उक्तियों में एक किस्म का चमत्कार उत्पन्न हो जाता है।

यह भी पढ़े :–

  1. कबीर का व्यक्तित्व और रचना संचार,कबीर का काव्य
  2. झीनी झीनी बीनी चदरिया | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | संत कबीरदास |

 

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