कबीर कूता राम का मुतिया मेरा नाउं | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | संत कबीरदास |
कबीर कूता राम का मुतिया मेरा नाउं।
गले राम की जेवरी, जित बँचै तित जाउं।।
कबीर कूता राम का
संदर्भ :— प्रस्तुत साखी मध्ययुगीन निर्गुण भक्ति शाखा के सर्वप्रमुख कवि कबीरदास द्वारा रचित है। उनकी यह साखी ‘निहकर्मी पवित्रता को अंग’ में है। इसमें भक्ति की एकनिष्ठता रेखांकित की गई है।
व्याख्या :— कबीरदास कहते हैं कि मैं राम का कुत्ता हूँ। कुत्ता कहकर वह दासत्व भाव प्रदर्शित करते हैं। मेरा नाम मुतिया है। मुतिया शब्द बहुत व्यंजक है। इस शब्द की व्यंजना के कारण । एक भक्त की सारी निरीहता हाथ जोड़े सम्मुख हो जाती है। इस निरीहता की ही व्यंजना अगली पंक्ति में है।
मेरा गले में राम नाम की रस्सी है। वह अर्थात राम, मेरे स्वामी जिधर खींचते हैं मैं उधर हो जाता हूँ। अर्थात मैंने उनके प्रति पूर्ण समर्पण कर दिया है। उनकी जैसी इच्छा होती है, मैं वैसा ही करता हूँ।
विशेष
i) यह एक ‘साखी’ है। साखी शब्द ‘साक्षी’ से बना है अर्थात प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर कबीर ने जो, द्विपदी में लिखें, वे साखी कहलाए। यह साखी एक विशेष मनःस्थिति को दर्शाता है। पूर्ण समर्पण की मनःस्थिति को, जो जीवन का मनोवैज्ञानिक सत्य है। अन्यथा कबीर जैसा अक्खड़ ऐसा समर्पण कम ही करता है।
ii) ‘राम’ शब्द कबीर की कविता में निर्गुण राम के लिए आता है। सगुण राम के लिए नहीं। कबीर ने अन्यत्र लिखा भी है :
दसरथ सुत तिहुँ लोक बखाना, राम नाम का मरम है आना ।
कबीर के लिए राम का मर्म ही महत्वपूर्ण है।
iii) ‘मुतिया’ शब्द से भाषा की व्यंजकता में वृद्धि होती है।
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