कार्ल मार्क्स का साहित्य चिन्तन :- Marx's literary thought

कार्ल मार्क्स का साहित्य चिन्तन :- Marx’s literary thought

अपने दोस्तों के साथ शेयर करे 👇

कार्ल मार्क्स का साहित्य चिन्तन :- काव्य शास्त्र और समालोचना विषयक कार्यक्रम की इस इकाई में आप सर्वप्रथम कार्ल मार्क्स के उन मौलिक आधारों के बारे में पढ़ेंगे जिन पर उनका चिन्तन टिका है । यूरोपीय चिंतन की श्रृंखला |

19 वीं शताब्दी में कार्ल मार्क्स एक कड़ी बनकर आये | उन्होंने समाज के विकास को जानने की वैज्ञानिक समझ दी । मार्क्स का दर्शन एक भौतिकवादी दर्शन है जो परंपरागत भाववादी दर्शन की अमूर्त और आध्यात्मिक स्थापनाओं के विरोध में, प्राकृतिक विज्ञानों की नवीनतम उपलब्धियों को आधार बनाते हुए जन्मा और पुष्ट हुआ । यह दर्शन विज्ञान की अन्य शाखाओं की ही तरह अनुभव, इतिहास एवं सामाजिक तथ्यों पर आधारित है।

कार्ल मार्क्स का साहित्य चिन्तन

एंगेल्स, मार्क्स के परम मित्र या यूं कहे समूह शक्ति थे । दोनों के सम्मिलित प्रयासों से जो वाद विकसित हुआ वह मार्क्सवाद कहलाया । वस्तुत: यह मार्क्स-एंगेल्स का मिलाजुला वैचारिक दर्शन था । चूंकि इतिहास तथा सामाजिक तथ्य निरन्तर गतिशील है । फलत: उन पर आधारित मार्क्स तथा एंगेल्स का दर्शन भी गतिशील है । अनुभवों के साथ इसका निरन्तर विकास होता आ रहा है |

मार्क्स ने कभी यह नहीं कहा कि ज्ञान की अन्तिम रेखा वे ही खींच रहे है | मार्क्स और एंगेल्स के बाद इस विकास में सबसे महत्वपूर्ण योगदान वी.आइ. लेनिन ने दिया । स्टालिन, खुश्चेव और माओत्सेतुग ने भी इस चिंतन की दिशा में उल्लेख कार्य किये किंतु इस दर्शन विशेष के विकास के समस्त मूलाधार मार्क्स और एंगेल्स के चिंतन में ही निहित हैं, जिसके दवन्दवात्मक भौतिकवाद और ऐतिहासिक भौतिकवाद दोप्रमुख आधार स्तंभ हैं।

इन्हें समझे बिना मार्क्स के चिंतन की गहराई में नहीं पहुंचा जा सकता अत: आपकी जानकारी के लिए संक्षेप में इनका परिचय दिया जा रहा है । दवन्द्वात्मक भौतिकवादः मार्क्स के दर्शन के आधार द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में दो शब्द हैं – पहले का संबंध प्रणाली से है, दूसरे का तत्व से |

यह अंग्रेजी के ‘डायलेक्टिकल’ का पर्याय है जो यूनानी शब्द ‘डायलिगा’ से आया है, जिसमें वार्तालाप एवं वाद-विवाद का अर्थ निहित है । प्राचीन यूनानी विचारकों का मानना था कि सच की तलाश के लिए एक समस्या लेकर आपस में विचार-विनिमय करना चाहिये।

तत्पश्चात पक्ष – विपक्ष के अंतर्विरोधों पर पुनर्विचार करते हुए समुचित समाधान खोज निकालना चाहिये । सत्य अंतर्विरोधो को प्रकट करने और विरोधी विचारों की टकराहट से प्रकाश में आता है। सत्य की तलाश की यह प्रणाली यूनानियों, को इतनी अच्छी लगी कि वे खासकर अरस्तु ने इसे परम तत्व तक पहुंचने का साधन मान लिया।

मध्ययुग की परिस्थितियां द्वन्द्ववादी विचारधारा के प्रतिकूल थी । अत: इसका विकास संभव नहीं हो पाया । पूंजीवाद के उदय और सामंतवाद के प्रारंभ काल में से द्वन्द्व वाद ने पुन: सुगबुगाना शुरू किया । 15 वीं शताब्दी के ब्रूनों इसी श्रेणी के विचारक हैं, जिन्होंने विरोधों के समन्वय की बात कहीं है ।

17- 18 वीं शताब्दियों में द्वन्द्ववाद की ओर विद्वानों का ध्यान इस कारण नहीं जा सका क्योंकि लोगों का ध्यान यांत्रिक-प्राकृतिक विज्ञान ने खींच लिया था । 18 वीं शती के अंत तथा 19 वीं के आरंभ में एक बार पुन: विद्वान इस ओर आकर्षित हुए | हेगेल ने इसे अपनी मान्यताओं का आधारभूत सिद्धांत घोषित करते हुए इस सिद्धांत के आधार पर अपने आदर्शवाद का प्रतिपादन किया जो बाद में मार्क्स और एंगेल्स के समूचे दार्शनिक विचारों का आधार बन गया |

ऐतिहासिक भौतिकवाद

ऐतिहासिक भौतिकवाद मार्क्सवादी दर्शन का दूसरा पक्ष है और वह मार्क्स की मान्यताओं के आधार पर सामाजिक जीवन के विकास की मूलभूत प्रक्रियाओं का विश्लेषण प्रस्तुत करता है । द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को जब मनुष्य के सामाजिक जीवन पर लागू किया जाता है, तब इसे ऐतिहासिक भौतिकवाद कहा जाता इसके तीन मूलभूत सिद्धांत

(1) कोई सामाजिक घटना तभी घटित होती है जब उसके लिए आवश्यक कारण होते हैं और अनुकूल परिस्थितियां निर्मित हो चुकी होती हैं।

(2) यद्यपि सामाजिक परिवर्तन मानव व्यक्तित्वों की सचेतन चेष्टाओं का परिणाम है तो भी सचेतन चेष्टाएं अंतिम विश्लेषण में उनके सामाजिक अस्तित्व और भौतिक जीवन द्वारा ही निर्धारित होती हैं । विभिन्न दृष्टिकोण और संस्थाएं, राजनीतिक और वैचारिक विकास इसी मूलाधार, मानव के भौतिक जीवन पर खड़े ढाँचे ही हैं।

(3) भौतिक मूलाधार पर खड़ा यह सामाजिक ढांचा उस मूलाधार के विकास में एक सक्रिय भूमिका भी निभाता है।

ऐतिहासिक भौतिकवाद के इन मूल सिद्धांतों के विश्लेषण करें तो स्पष्ट हो जाता है कि आदर्शवादी इतिहासकार की तरह मार्क्सवादी इतिहासकार सामाजिक विकास की प्रक्रिया को नियति कृत अथवा किसी शक्ति अथवा बाहरी आवश्यकता द्वारा नियंत्रित नहीं मानते ।

मार्क्सवाद का कहना है कि इतिहास के सच्चे विज्ञान को चाहिये कि वह समूची जनता को अपने ध्यान में रखे और व्यक्तियों पर उसी हद तक ध्यान दे, जिस हद तक वे अपने आंदोलन का प्रतिनिधित्व करते हैं । इस तरह मार्क्सवाद इतिहास का अध्ययन इस दृष्टिकोण से करता है कि उन प्राकृतिक नियमों का पता लगा सके जो मानव जाति के इतिहास का संचालन करते हैं।

इस संबंध में स्वयं मार्क्स का कहना है – “अपने जीवन के सामाजिक उत्पादन के दौरान मनुष्य ऐसे सुनिश्चित संबंधों में प्रवेश करता है जो अपरिहार्य और उसकी इच्छा से स्वतंत्र होते हैं । अर्थात् उत्पादन के संबंधों जो कि अपनी भौतिक उत्पादन शक्तियों के विकास के एक सुनिश्चित स्तर के सहवर्ती होते हैं । इन उत्पादन संबंध का समूचा योग समाज के आर्थिक ढांचे की संरचना करता है, उस वास्तविक आधार की रचना करता है जिस पर एक कानूनी और राजनीतिक अधिरचना खड़ी होती है और जिसकी सापेक्षता में सामाजिक चेतना के सुनिश्चित रूप होते हैं।

 

भौतिक जीवन की उत्पादन पद्धति सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक सभी जीवन प्रक्रियाओं को सामान्यत: नियंत्रित करती है । अर्थात् मनुष्यों की चेतना उनके अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती बल्कि उनका सामाजिक अस्तित्व उनकी चेतना को निर्धारित करता है।

यह भी पढ़े 👇

  1. मार्क्सवाद का भारतीय साहित्य पर प्रभाव | कार्ल मार्क्स का साहित्य चिन्तन |
  2. कार्ल मार्क्स का परिचय | कार्ल मार्क्स का साहित्य चिन्तन

कार्ल मार्क्स का साहित्य कार्ल मार्क्स का साहित्य

अपने दोस्तों के साथ शेयर करे 👇

You may also like...

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!