काहू कंजमुखी के मधुप है लुभाने जानै | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद | - Rajasthan Result

काहू कंजमुखी के मधुप है लुभाने जानै | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद |

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काहू कंजमुखी के मधुप है लुभाने जानै,

फूले रस भूलि घनआनन्द अनत हौ ।

कसे सुधि आवै बिसरे हू हो हमारी उन्हें,

नए नेह पग्यौ अनुराग्यौ है मन तही ।

कहा करैं जी तें निकसति न निगोड़ी आस,

कौंनें समझी ही ऐसी बनिए बनत ही ।

सुन्दर सुजान बिन दिन इन तम सम,

बीते तमी तारनि कों तारनि गनत ही ॥ (२७)

काहू कंजमुखी के मधुप है

प्रसंग : यह पद्य कविवर घनानन्द की रचना ‘सुजानहित’ से उद्धृत किया गया है। नायिका के मन में संदेह जाग उठा है कि उसका प्रिय किसी अन्य के प्रेम में फंस अब रातें वहीं बिताने लगा है। सो उसके लिए रात बिताना और समय काट पाना दूभर हो गया हैं इसी पद्य में इसी प्रकार की विमुक्ता नायिका की मानसिकता का मार्मिक एवं सजीव चित्रण करते हुए कवि घनानन्द कह रहे हैं

 

व्याख्या : मुझे लगता है कि मेरे प्रियतम किसी कमलमुखी नायिका के रूप पर लुभाकर उसके भंवरे बन गए हैं। अर्थात् जिस प्रकार भंवरा हमेशा फूलों पर मँडराता रहता है, उसी प्रकार नायक महोदय भी उस नवेली कमलमुखी के आस-पास ही बने रहते हैं। मेरे जीवन में आनन्द रूपी घन की वर्षा करने वाले प्रियतम मेरे प्रेम रस को भुला कर अब कहीं और ही रमण करने लगे हैं।

इस दशा में भला उन्हें कभी भूल से भी हमारी याद केसे आ सकती है? अर्थात् हमें याद करने का तो अब उन्हें कभी भूल से भी हमारी याद कैसे आ सकती है? अर्थात् हमें याद करने का तो अब उन्हें अवसर तक भी प्राप्त नहीं हो पाता होगा। अपने नए प्रेम से भरा उनका मन उस नवेली के प्रेम में ही दगा या मग्न रहा करता होगा। नवेली के नए-नए प्रेम में मग्न उनके मन में हमारी याद आने का प्रश्न ही नहीं उठता। इतने पर भी तो उनसे मिलन की आशा लगी रहती है। मैं भी क्या करूँ?

चाह और प्रयत्न करके भी तो उनसे मिलने की निगोड़ी आशा मन से निकल नहीं पाती। कौन जानता था कि उस निर्मोही के प्यार में हम पर भी कभी ऐसी दशा और विषम परिस्थिति भी बन आएगी। उस सुन्दर सुजान के बिना हमारे ये दिन भी अंधेरे के समान ही हैं। काली रातें तो आँखों में तारे गिन-गिन कर ही किसी तरह बीत रही हैं। उफ, कितनी विषम विकारता है यहा ।

विशेष

1. प्रिय-विमुक्ता नायिका के संकाकुल मन का सजीव एवं यथार्थ चित्रण यहाँ विशेष महत्त्वपूर्ण एवं द्रष्टव्य है।

2. ठगे जाने पर भी आशा मनुष्य का, विशेषकर प्रेमी जनों का यापन नहीं छोड़ा करती, यह तथ्य स्पष्ट उजागर है।

3. विप्रलम्भ और उपालम्भ की वेदना दर्शनीय एवं प्रभावी बन पड़ी ।

4. पद्य में उपमा, प्रश्न उत्प्रेक्षा, विषम ओर अनुप्रास अलंकार है।

5. पद्य की भाषा सहज स्वाभाविक, मुहावरेदार और प्रसाद गुणात्मक है। उसमें गत्यात्मक गेयता का तत्त्व भी स्पष्ट देखा जा सकता है।

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