काहे मन मारन बन जाई | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या| संत रविदास |
काहे मन मारन बन जाई ,
मन की मार कवन सिधि पाई।
बन जाकरि इहि मनवा न मरहीं,
मन को मारि कहहु कस तरहीं।
मन मारन का गुन मन काहीं,
मनु मूरख तिस जानत नाहीं।
पंच विकार जौ इहि मन त्यागौं,
तौं मन राम चरन महिं लागौ ।
रिदै राम सुध करम कमावऊ,
तौ ‘रविदास’ मधु सूदन पावऊ ।
काहे मन मारन बन जाई
प्रसंग:– प्रस्तुत पद में रविदास अपने से भिन्न मत वाले साधुओं को संबोधित करते हैं। वे संतों, भक्तों, विचारकों के मत की असंगति को उजागर कर रहे हैं, वे मानते हैं कि मनुष्य का मन सभी समस्याओं की जड़ है। इसलिए यदि मन को मार दिया जाए तो सिद्धि प्राप्त हो सकती है।
व्याख्या:– वे उन साधुओं को आगाह करते हैं, पूछते हैं, जो इस मन को मारने के लिए वन में, जंगल में चले जाते हैं। उनसे वे प्रश्न करते हैं, अच्छा बताओ कि मान लिया कि आप वन में चले गए, वहाँ जाकर आपने मन को मार दिया, लेकिन मन को मार कर आप कौन सी सिद्धि प्राप्त कर लेंगे।
फिर रविदास अपनी स्थापना करते हैं कि वहाँ जाकर भी आपका मन मरता नहीं है। यदि आपने अपने मन को मार ही दिया, तब भी आप मुक्त कैसे होंगे? फिर रविदास कहते हैं कि मन को मारने का यह गुण या विचार भी तो मन से ही आया हैं इसलिए ऐसे मूर्ख को मन की कोई समझ ही नहीं है।
अब अपना उपदेश देते हुए रविदास कहते हैं कि मन के पांचों विकारों को यदि मन से त्याग दें, तभी मन राम के चरणों में लगेगा। अंत में उनका मानना है कि यदि हृदय में राम का वास है और मनुष्य सात्विक कर्म करता है, तभी ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है। इस पद मे रविदास सहज रूप से अपने मत को व्यक्त करते हैं और विरोधी विचारों का खंडन करते हैं।
विशेष
इस पद में रविदास ने भक्ति का मार्ग स्पष्ट किया है तथा भटकाने वाले मार्ग की असंगति को उजागर किया है।
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