केलि की कलानिधान सुन्दरि महा सुजान | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद | - Rajasthan Result

केलि की कलानिधान सुन्दरि महा सुजान | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद |

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केलि की कलानिधान सुन्दरि महा सुजान, आन न समान छबि छांह पै थिपैयै सौनि |

माधुरी- मुदित मुख उदित सुसील भाल, चंचल बिसाय नैनल लाज-भीजियै चितौनि ||

प्रिय अंग-संग घनआनन्द उमंगि हिय, सुरति – तरंग-रस- बिबस उर मिलौनि |

झुलनि अलक, अधि खुलनि पलक समस्वेदहि झलक भरि ललक सिथिल हौनि|| (३१)

केलि की कलानिधान सुन्दरि

प्रसंग : सहज शृंगार और काम-भाव से भरा यह रसीला पद्य कविवर घनानन्द की रचना ‘सुजानहिंत’ में से लिया गया हैं। इस पद्य में कवि ने काम-क्रीड़ा के बाद शिथिल पड़ी नायिका के सौन्दर्य एवं दशा का सजीव वर्णन किया हैं। काम-भावना से भरे अंगों और क्रियाओं का वर्णन करते हुए कवि कह रहा हैं

 

व्याख्या : वह महासुन्दरी सुजान काम-क्रीड़ा में रत उसके समान अन्य कोई भी सुन्दरी नहीं हो सकती। उस समय उसके अंग-प्रत्यंग में जो लालिमा- सी उभरकर छा जाती है, सोने की चमचमाती लाली भी उसकी सुन्दर छबि की परछाई में छिपकर रह जाती है। अर्थात् सुन्दरी सुजान की अंग-लालिमा के सामने कुन्दन के सोने का रंग भी फीका पड़ जाता हैं।

काम- माधुरी से उसका मुख तृप्त और प्रसन्न नजर आने लगता है। उस समय उसका सुन्दर माथा भी तृप्ति के भाव से भरकर मानों ऊँचा उठ आता है। उसकी बड़ी-बड़ी चंचल आँखों की चितवन लाज की लालिमा से भर कर और भी निमग्न हो उठती हैं।

घनानन्द कवि कहते हैं कि प्रियतम के अंगों से हृदय में उमंग भरकर सीने से लगी सुन्दरी सुजान काम-रस से विवश होकर हृदय मिलाने लगीती है। अर्थात् कामोत्तेजना से पीड़ित होकर प्रियतम के अंगो से चिपकने झूलने लगती हैं। उस समय उसके केशों की लटें झूलने लगती है, पलकें अधखुली रह जाती हैं और कामजन्य परिश्रम से पसीना पसीना अत्यधिक उत्साह रहते हुए भी अन्त में शिथिल हो जाती है।

विशेष

1. कवि ने काम- क्रिया को अवस्थाएँ अंगों की स्थिति और नायिका के उमंग उत्साह आदि का व्यापक, यथार्थ और स्वाभाविक वर्णन किया है।

2. पद्य में वर्णन, उत्प्रेक्षा, उल्लेख, अनुप्रास आदि अलंकार है।

3. पद्य की भाषा माधुर्यगुण से युक्त चित्रमय एवं संगीतात्मक है।

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