खिल गयी सभा । "उत्तम निश्चय यह, भल्लनाथ!" | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सूर्यकांत त्रिपाठी निराला |

खिल गयी सभा । “उत्तम निश्चय यह, भल्लनाथ!” | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सूर्यकांत त्रिपाठी निराला |

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खिल गयी सभा । “उत्तम निश्चय यह, भल्लनाथ!”

कह दिया ऋक्ष को मान राम ने झुका माथ।

हो गये ध्यान में लीन पुनः करते विचार,

देखते सकल, तन पुलकित होता बार बार।

कुछ समय अनन्तर इन्दीवर निन्दित लोचन

खुल गये, रहा निष्पलक भाव में मज्जित मन,

बोले आवेग रहित स्वर सें विश्वास स्थित

“मातः, दशभुजा, विश्वज्योति; मैं हूँ आश्रित;

हो विद्ध शक्ति से है खल महिषासुर मर्दित;

जनरंजन चरणकमल तल, धन्य सिंह गर्जित!

यह, यह मेरा प्रतीक मातः समझा इंगित,

मैं सिंह, इसी भाव से करूँगा अभिनन्दित।”

कुछ समय तक स्तब्ध हो रहे राम छवि में निमग्न,

फिर खोले पलक कमल ज्योतिर्दल ध्यानलग्न।

हैं देख रहे मन्त्री, सेनापति, वीरासन

बैठे उमड़ते हुए, राघव का स्मित आनन।

बोले भावस्थ चन्द्रमुख निन्दित रामचन्द्र,

प्राणों में पावन कम्पन भर स्वर मेघमन्द,

“देखो, बन्धुवर, सामने स्थिर जो वह भूधर

शिभित शत हरित गुल्म तृण से श्यामल सुन्दर,

पार्वती कल्पना हैं इसकी मकरन्द विन्दु,

गरजता चरण प्रान्त पर सिंह वह, नहीं सिन्धु।

दशदिक समस्त हैं हस्त, और देखो ऊपर,

अम्बर में हुए दिगम्बर अर्चित शशि शेखर,

लख महाभाव मंगल पदतल धँस रहा गर्व,

मानव के मन का असुर मन्द हो रहा खर्व।”

खिल गयी सभा

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियां महाप्राण निराला द्वारा विरचित उनकी सुप्रसिद्ध कविता ‘राम की शक्ति – पूजा’ की पंक्तियां हैं। यहां निराला ने राम द्वारा शक्ति की आराधना आरंभ करने का वर्णन किया है।

व्याख्या – कवि कहता है कि जाम्बवान के परामर्श को सुनकर राम की सेना में हर्ष की लहर दौड़ गई और राम ने भी यह कहते हुए कि हे जाम्बवान! आपका यह निश्चय उत्तम है, उनके प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए उनके सम्मुख अपना मस्तक झुका दिया। तदनंतर राम शक्ति के विषय में ध्यान करते हुए ध्यानमग्न हो गए और सभी देखने लगे कि राम का शरीर बार-बार पुलकित हो रहा है।

कुछ क्षणों के उपरांत राम ने अपने वे नेत्र जो नीलकमलों को भी लज्जित करने वाले थे खोल दिए। हां, नेत्र खोल देने पर भी वे एकटक भाव से महाशक्ति के ही ध्यान में डूबे रहे। तदनंतर वे बड़े ही विश्वासपूर्ण और उत्तेजनाशून्य स्वर में देवी की आराधना करते हुए कहने लगे कि हे माता! तुम दस भुजाएं धारण करने वाली हो, तुम संसार को प्रकाश प्रदान करती हो।

हे मातेश्वरी, मैं तुम्हारी शरण में आया हुआ हूं। हे माता ! तुम्हारी शक्ति से बिंधकर महिषासुर नामक राक्षस नष्ट हो गया था। मनुष्यों को आनंदित करने वाले तुम्हारे चरण कमलों के नीचे गर्जन करने वाला सिंह धन्य है । हे जननी ! मैं संकेत समझ तुम्हारा गया हूं। यह सिंह ही मेरा प्रतीक है। अभिप्राय यह है कि मैं भी आपके चरणों में इस सिंह के समान बढ़कर आराधना करूंगा।

मातेश्वरी के ध्यान में डूबे हुए राम – छ क्षण तक उनके ध्यान में निमग्न रहे। तदनंतर उन्होंने अपने प्रकाश से आपूरित कमल को खुड़ियों के समान नेत्रों की पलकें खोल दीं। उनके समस्त सहयोगी और सेनापतिगण व्याकुल हृदय से राम के मुस्कुराहट से ओत-प्रोत मुखमंडल की ओर देख रहे थे। चंद्रमा की शोभा को अपनी मुख-शोभा से निंदित करने वाले, भावनाओं में निमग्न राम अपने प्राणों में कंपन करके मेघ जैसे गंभीर स्वर में कहने लगे

हे बंधुओ! यह आप लोगों के सम्मुख जो सैकड़ो हरे-भरे कुंजों से शोभित, श्यामल और सुंदर पर्वत विद्यमान हैं, वह पार्वती का ही काल्पनिक रूप है और मकरंद – बिंदु के समान माधुर्य तथा शीतलता प्रदान करने वाला है और प्राणवान है। उसके नीचे जो गर्जन कर रहा है, वह सागर न होकर सिंह है, जो दुर्गा के चरणों के नीचे खड़ा हुआ महिषासुर को देखकर गर्जन कर रहा है।

अभिप्राय यह है कि राम उस पर्वत को दुर्गा तथा सागर को उनके वाहन सिंह का प्रतीक स्वीकार करते हैं। उस काल्पनिक मूर्ति का विशद वर्णन करते हुए राम आगे कहते हैं कि दसों दिशाएं ही दुर्गा के दस हाथ हैं। उनसे ऊपर की ओर देखिए तो आकाश में दिगंबर वेशधारी तथा अपने मस्तक पर चंद्रमा को धारण करने वाले शिव विराजमान हैं।

उनके मंगलकारी स्वरूप को देखकर समस्त गर्व उनके चरणों के नीचे दबा जा रहा है और मानव की आसुरी वृत्तियों का अहंकार नष्ट होता जा रहा है। भाव यह है कि शिव के कल्याणकारी रूप के समक्ष मानव की आसुरी वृत्तियों का घमंड चूर-चूर होता जा रहा है ।

विशेष – 

1. उपर्युक्त पंक्तियों में राम महाशक्ति के जिस रूप की कल्पना करते हैं वह उनके महिषासुरमर्दनी रूप से संबंध रखता है।

2. निराला के उपर्युक्त शक्ति-वर्णन पर बांग्ला-संस्कृति का प्रभाव है। बंगाल में शक्ति की पूजा इसी रूप में की जाती है।

3. पर्वत के रूप में महाशक्ति की कल्पना बड़े ही विराट स्वरूप में की गई है और यह कवि-मानस पर पड़े शैव और शाक्त संस्कारों का परिणाम है।

 

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