गीतिकाव्य की दृष्टि से विद्यापति की पदावली का मूल्यांकन कीजिए | - Rajasthan Result

गीतिकाव्य की दृष्टि से विद्यापति की पदावली का मूल्यांकन कीजिए |

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गीतिकाव्य की दृष्टि से विद्यापति पदावली में तीन प्रकार के पद हैं

1. राधा-कृष्ण सम्बं पद

2.शिव, विष्णु गंगा, जानकी, दुर्गा आदि के स्तुतिपरक पद

3.आश्रयदाता राजाओं की स्तुति भरे पद

राधा-कृष्ण संबंधी पदों में शृंगार रस की प्रधानता है। यहाँ रीतिकालीन काव्य के सारे लक्षण मिल जाएंगे, यथा रति क्रीड़ा, नखशिख वर्णन, संयोग वर्णन, विरह वर्णन आदि। दूसरे भाग में शिव, दुर्गा, विष्णु आदि के स्तुतिपरक गीतों में विद्यापति का भक्ति भाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। तीसरे प्रकार के पदों में विद्यापति ने अपने आश्रयदाताओं की वीरता का गुणगान किया है।

गीतिकाव्य की दृष्टि

विद्यापति के पदों की सबसे बड़ी विशेषता उसकी संगीतात्मकता ही है। सर्वविदित है कि विद्वानों से लेकर हलवाहों तक की मंडली में विद्यापति के पदों की लोकप्रियता का कारण इसकी सहज संगीतात्मकता, सरल सम्प्रेषणीयता और उसमें लोकचित्त की भावनाओं की अनुगूंज ही है। गीतिमयता इनके गीतिकाव्यों का प्राण तत्व है।

कहने की आवश्यकता नहीं कि मैथिली में रचे गए इनके सारे के सारे पद गीति ही हैं। गेयधर्मिता इनमें इस तरह भरी हुई है कि रागों के सारे शास्त्रीय विधानों के साथ कई बड़े संगीतज्ञ भी ये गीत सफलतापूर्वक गाते हैं, लय, ताल, छन्द, मात्रा की कोई भी त्रुटि उन्हें इन गीतों में नहीं दिखती और दूसरी तरफ एकदम से अपटु व्यक्ति जिन्हें संगीत शास्त्र के व्याकरण की कोई जानकारी नहीं है|

वे भी बड़ी तन्मयता से गाकर आत्मसुख प्राप्त करते हैं। एक ही गीत है – कखन हरव दुख मोर हे भोलानाथ। यह बात अचंभे की है कि इस एक ही गीत को बगैर कहीं किसी शब्द और मात्रा परिवर्तन के लोग कभी प्रातःकालीन धुन पर गाते हैं, कभी सोहर की धुन में, कभी किसी और ही धुन में। यह इन गीतों में आत्मा की तरह बैठी हुई संगीतात्मकता ही है जो इन्हें इस कदर लयबद्ध की हुई हैं।

प्रो० मैनेजर पाण्डेय कहते हैं, ‘‘गीतकाव्य में काव्यानुभूति के साथ गीतकार की तन्मयता के अनुरूप ही पाठकीय तन्मयता संभव होती है। गीतकाव्य वैयक्तिक अनुभूति की व्यंजना है, किंतु उसमें लोक-हृदय का स्पंदन भी होता है, यही कारण है कि वैयक्तिक गीत समूहगीत बन जाते हैं।” (भक्ति आन्दोलन पृ0 260)

विद्यापति के गीतों में यह बहुत बड़ी विशेषता है कि इनके यहाँ सारे काव्यगीत उन तत्वों से युक्त हैं जिनके कारण गीतकार की तन्मयता के अनुरूप ही पाठकीय तन्मयता मौजूद है। पाठक, भावकं और गायक – तीनों ही वर्ग के लोग इन गीतों में उतनी ही तन्मयता से खो जाते हैं।

जितनी रचनाकार की रही होगी। इनकी गीति रचनाएँ, चाहे भक्तिपरक हों अथवा शृंगारपरक, शक्ति वंदना हो या गंगा स्तुति या शिव नचारी, विरह विलाप हो या मिलन सुख से युक्त – सबके सब भावक को लीन करने में सफल हैं। पावस की रात में मेघ जब अपनी सारी कलाओं से बरस रहा होता है, तब घर में अकेली बैठी कोई युवती अपने पिया की अनुपस्थिति की पीड़ा किस तरह सहती है |

इसको चित्रित करते समय महाकवि ने जब सखि हे हमर दुखक नहि ओर गीत लिखा होगा तो कितनी तन्मयता रही होगी, यह कल्पनीय है। इस गीत में यौन पिपासा, देह लिप्सा और उद्धत कामुकता से आतुर किसी कामुक युवती की अश्लील काम भावना नहीं, विरह की आत्यन्तिक पीड़ा सहती, प्रेम रंग में रंगी एक प्रेम तपस्विनी की व्यथा व्यक्त हुई, जिसे सुनकर, पढ़कर या गाकर कोई भी व्यक्ति उस दृश्य से एकात्म्य स्थापित कर लेता है।

इन गीतों में मणिकांचन संयोग की दशा यह कि एक तरफ चित्रण ऐसे उत्कर्ष पर और दूसरी तरफ गीतिमयता यह कि पढ़ते हुए आपसे आप पाठक के भीतर से कोई संगीत बज उठे। शब्दों का उच्चारण होते ही अनुभव हो कि शायद आसपास कोई वाद्य यंत्र बज रहा हो, कोई मादक संगीत चल रहा हो. जो भीतर से हृदय को कहीं कुरेदता है :

 

झाम्पि घन गरजन्ति सन्तत भुवन भरि बरिसन्तिया 

कन्त पाहुन काम दारुण राधने खर शर हन्तिया। 

कुलिश कत शत पात मुदिर मयूर नाचत मातिया 

मत्त दादुर डाके डाहुकि फाटि जायत छातिया।।

 

विद्यापति के इन गीतों को आदर्श मानने वाले भावकों को प्रो० मैनेजर पाण्डेय की यह धारणा सही लगेगी कि “गीत काव्य में नाद-तत्व या संगीत संवदेना से उद्भूत लयात्मक बोध अनिवार्य होता है। गीत और संगीत का संबंध आत्मिक है, आंतरिक है। गीत काव्य में भावों की गति लयात्मक होती है।…. संगीत गीतकाव्य का सहज अंग है। गीतकात्य में कहीं संगीत से काव्यत्व दब जाता है और कहीं काव्यत्व से संगीत अनुशासित होता है” (भक्ति आंदोलन…., पृ0 261)

महाकवि विद्यापति के इन गीतों को देखते हुए स्पष्ट होता है कि यहाँ भावों की लयात्मक गति में काव्य और संगीत का अनूठा सामंजस्य है। प्रो० पाण्डेय कहते हैं, “विद्यापति के पदों में सौंदर्य चेतना का आलोक भावानुभूति की तीव्रता, घनत्व एवं व्यापकता और लोकगीत तथा संगीत की आंतरिक सुसंगति है। कुछ आलोचकों का मत है कि विद्यापति के गीत लोकगीत के अधिक निकट हैं और उनमें संगीत की शास्त्रीयता का अभाव है।

विद्यापति के गीतों में संगीत के तत्वों का अभाव नहीं है, क्योंकि लोचन कवि ने रागतरंगिनी में विद्यापति के गीतों की संगीतात्मकता का विशद विवेचन किया है। विद्यापति के गीतों का प्रभाव सूरदास के लीला पदों के रूा पर दिखाई पड़ता है….. विद्यापति और सूरदास दोनों ही भक्ति आन्दोलन के कवि हैं, दोनों के काव्य में लोकगीत की मौखिक परंपरा का सर्जनात्मक रूप व्यक्त हुआ है। ये दोनों ही हिंदी जगत के दो जनपदों की भाषा के ग्रामगीतों के कलात्मक रूप के निर्माता और उन गीतों में जन संस्कृति के रचनाकार हैं “। (भक्ति आंदोलन पृ0 264)

विद्यापति के गीत एक ओर लोकगीतों के करीब हैं तो दूसरी ओर इनमें शास्त्रीयता भी है। विभिन्न स्थानों से विद्यापति की जो पदावलियाँ हासिल हुई हैं, उसमें संकलित पदों के शीर्ष पर रागों का नाम उल्लिखित है कि कौन-सा गीत किस राग में गाया जाएगा। मालव राग, धनछरी, सामरी, अहिरानी, केदार, कानड़ा, कोलाव, सारंगी, गुंजरी, बसन्त, विभास, नटराग, ललित, वरली आदि रागों का उल्लेख पदों के शीर्ष पर है।

महाकवि विद्यापति के सारे गीतों का समुचित संकलन अभी तक तो हो नहीं पाया है, परन्तु यह उनके पदों की गीतात्मक विशेषता ही है कि असंख्य गीत लोक कंठ में बस गए हैं और यह कवि का लोक संबंध तथा लोक संस्कृति से गहरी सम्बद्धता ही है कि इन गीतों के विभिन्न सामाजिक रीति-रिवाज मौजूद हैं जिस कारण वे गीत जनपद की ललनाओं द्वारा उपनयन, विवाह, मुण्डन, पूजा-पाठ, कीर्तनभजन, साहर, जन्म-मरण आदि अवसरों पर गाए जाते हैं और बिल्कुल उन अवसरों के लिए सटीक बैठते हैं।

महाकवि विद्यापति के कई गीत यदि लोक कंठ में बस गए हैं तो उसका कारण यही है कि यहाँ शब्द संगीत नाव संगीत और भाव संगीत तीनों एकमेक होकर ऐसी त्रिवेणी बहा रहा है, मानो गीतिकाव्य का आनन्दातिरेक यहीं से शुरू होकर यहीं खत्म हुआ चाहता है।

जब “के पतियालए जायत रे”, “सखि हे, हमर दुखक नहि ओर”, “सखि की पूछसि अनुभव मोहि”, “प्रथम सूमागम भुषल अनंग”, “उगना रे मोर कतए गेलाह”, “जय जय भैरवि असुर भयाउनि”, “बड़ सुखसार पाओल तुअ तीरे”…. जैसे गीतों के पद पढ़े जाते हैं तो इनमें शब्द संगीत, नाद संगीत और भाव संगीत की ऐसी ताकत भरी हुई है कि बिना प्रयास के आपसे आप नितान्त अपटु और लयहीन मनुष्य के मुंह से भी धुन और लय फूट पड़ता है। इनके गीतों को गाने की जरूरत नहीं होती, यहाँ संगीत तत्व इतना बलवान है कि वह स्वतः फूट पड़ता है।

विद्यापति के गीत लोकगीत के रूप में प्रचलित हैं। जनपद में लोकगीतों की तरह व्याप्त इनके गीतों का कारण ढूढ़ने में पाठकों को ज्यादा परेशानी नहीं होनी चाहिए। यहाँ मनुष्य के राग-विराग, संयोगवियोग, दुख-सुख, हर्ष-विषाद, मिलन-विरह, मान-समर्पण, लास-उल्लास, लाज-धाक, क्रोध-स्नेह – रंग और पानी की तरह घुला – मिला है। यह विभाजन रेखा खींचना कठिन है कि जनपद की कौन-सी कहावत और कौन सा मुहावरा इनके गीतों में आकर साहित्य बन गया है और कौन सी पंक्ति लोककंठ में जाकर कहावत बन गई है।

किसी के आगमन के लिए काक-शकुन की प्राचीन परम्परा मिथिला में है। महाकवि विद्यापति जब विरह व्याकुल नायिका द्वारा “काग” की खुशामद करने वाले गीत में इस लोक सत्य को व्यक्त करते हैं तो वह एक परिष्कृत रूप के साथ सामने आता है। आज भी इस पद की पंक्ति किसी प्रतीक्षा करती नायिका के मुंह से निकल जाती है :

मोरा रे अंगनवां चनन केरि गछिया 

ताहि चढ़ि कुररय काग रे 

सोने चोंच बांधि देब तोयं वायस 

जऔं पिया आवत आज रे।

 

आम जनजीवन की सामान्य सच्चाई है कि किसी भी तरुणी का प्रीतम जब उससे अलग रहता है तो सतत वह उसके संबंध में ही सोचती रहती है। कामदग्धा नायिका की जो आकांक्षाएं जाग्रतावस्था में पूरी नहीं होती है और हरदम जिसके लिए व्याकुल रहती हैं, स्वप्न में उनकी पूर्ति शुरू हो जाती है। लेकिन इस आकांक्षा पूर्ति की लालसा इतनी उत्कट रहती है कि उस हाल में वह सोई नहीं रह पाती। अपनी आंगिक और वाचिक चेष्टाओं के कारण जग जाती है। फलस्वरूप नींद में पूरी होने वाली आकांक्षा भी अपूर्ण रह जाती है :–

सुतलि छलहुं हम घरबारे गरबा मोतिहार 

जखनि भिनसरबारे पिया आएल हमार

केहनि अभागलि बैरिमिरे भांगली मोहि निन्द 

भल कए नहिं देखि पाओल रे गुनमय गोविन्द

 

स्वप्न सुख और स्वप्न का सुख भंग विद्यापति के यहाँ कई रूपों में कई कई गीतों में दिखता है। लोक जीवन की अनुभूतियों के कई कई चित्र इनके यहाँ काफी स्वच्छ, निष्कपट और सरल रूप में अपनी पूरी सामर्थ्य के साथ मौजूद हैं।

यदि कायदे से समीक्षा की जाए तो यह साफ-साफ दिखेगा कि साहित्य में रस की जिस सरिता की कल्पना भावकों ने की है, महाकवि विद्यापति की पदावली ही इस सरिता का उदाहरण है जहाँ संगीत की स्वर लहरी अपनी शक्ति के साथ शब्दों, अर्थों, भावों, विचारों और लोक यथार्थों के सारे चित्रों को बहाए जा रही है, एकदम शान्त और समुज्ज्वल रूप में ।

कोई अशान्ति नहीं, कोई अभद्रता नहीं, कोई उच्शृंखलता नहीं। इस साहित्य धारा में यमुना की शान्ति और धीरता, गंगा की निश्छलता और सरस्वती की पवित्रता तथा अदृश्यता हर तरह से मौजूद है। इनकी पदावली को पढ़कर उठने वाले हर भावक को विद्यापति के शब्दों में कहना पड़ेगा “बड़ सुखसार पाओल तुअ तीरे” – जैसे स्वयं महाकवि ने इहलोक से विदा लेते समय गंगा की स्तुति में कहा था ।

विद्यापति पदावली में राधा-कृष्ण के बहाने से नायक-नायिका के विरह मिलन का सूक्ष्म और मार्मिक चित्रण हुआ है। संयोग पक्ष का चित्रण करने में कवि की भावाभिव्यक्ति सहज रूप में व्यक्त हुई है। कवि ने नायक-नायिका के आंतरिक भावों को सहज अभिव्यक्ति दी है। प्रेम वस्तुतः विरह की आंग में, तपता है। विद्यापति ने भी विरह के माध्यम से गहरी प्रेमानुभूति व्यक्त की है। आंतरिक भावों के चित्रण में कवि बेजोड़ है।

 

 

यह भी पढ़े 👇:—

  1. विद्यापति के काव्य सौंदर्य का वर्णन कीजिए
  2. विद्यापति भक्त या श्रृंगारिक कवि – विश्लेषण कीजिए
  3. विद्यापति के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालिए
  4. विद्यापति की कविता में प्रेम और श्रृंगार के स्वरूप पर सोदाहरण प्रकाश डालिए।

 

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