गीतिकाव्य खण्डकाव्य और मुक्तक काव्य का परिचय
गीतिकाव्य खण्डकाव्य :— संस्कृत साहित्य में स्वतन्त्र रूप से गीतिकाव्य की रचना का प्रारम्भ महाकवि कालिदास से देखने को मिलता है। उनकी दो प्रसिद्ध गीतिकाव्य की रचनाएँ मेघदूत तथा ऋतुसंहार प्राप्त होती हैं।
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गीतिकाव्य खण्डकाव्य में मेघदूत
यह एक प्रबन्धात्मक गीतिकाव्य है जिसके पूर्वमेघ एवं उत्तरमेघ दो भाग हैं। इन दोनों भागों में लगभग 115 श्लोक प्राप्त होते हैं। मेघदूत का अंगीरस विप्रलम्भ शृंगार है। सम्पूर्ण मेघदूत में एकमात्र मन्दाक्रान्ता छन्द का प्रयोग किया गया है। कुबेर का अनुचर यक्ष अपने उत्तरदायित्व से च्युत होने के कारण एक वर्ष के लिए प्रियाविरह को प्राप्त करता है। वह रामगिरि नामक स्थान पर आठ माह व्यतीत करता है।
इसके पश्चात् वर्षा ऋतु के आगमन पर आषाढ के पहले दिन एक मेघ को देखता है। यक्ष मेघ से अपना प्रणय सन्देश अपनी पत्नी के पास प्रेषित करने के लिए निवेदन करता है। यक्ष मेघ की संवेदनशीलता से प्रभावित होता है क्योंकि वह जानता है कि मेघ उसकी कामवेदना को ठीक तरह से उसकी प्रिया से बता सकता है
सन्तप्तानां त्वमसि शरणं तत्पयोदः प्रियायाः
सन्देशं मे हर धनपतिक्रोधविश्लेषितस्य ।
गन्तव्या ते वसतिरलका नाम यक्षेश्वराणां बाह्योद्यानस्थितहरशिरश्चन्द्रिकाधौतहा ।।(पू.मे.7)
अर्थात् सन्तप्त लोगों के मात्र तुम ही एक शरण हो, अतः मेरे इस सन्देश को यक्षों की नगरी अलका तक पहुँचा दो। जहाँ पर भगवान् शंकर के मस्तक से निकलने वाले सुन्दर चन्द्रिका के कारण वहाँ के भवन श्वेत रूप में दिखते हैं। कालिदास मेघ को जाने के लिए मार्ग बताते हैं जिससे भारत के भौगोलिक मार्ग का पता चलता है।
कालिदास ने मार्ग के सभी नगरों जैसे उज्जयिनी, विदिशा आदि का उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त नदियों की भी पर्याप्त चर्चा प्रस्तुत की है जैसे कि गंगा, यमुना, सरस्वती, रेवा, गन्धवती, क्षिप्रा आदि। मेघदूत में प्रकृति का अत्यन्त मनोरम दृश्य प्रस्तुत किया गया है। उत्तरमेघ का यह श्लोक अत्यन्त प्रसिद्ध है :—
त्वामालिख्य प्रणयकुपितां धातुरागैः शिलायाम्
आत्मानं ते चरणपतितं यावदिच्छामि कर्तु । अस्तावन्मुहुरुपचितैः दृष्टिरालुप्यते मे
क्रूरस्तस्मिन्नपि न सहते सङ्गमं नौ कृतान्तः ।। (उ.मे. 47)
यक्ष की विरह की यह करुणापूर्ण अवस्था है जिसमें चित्र में भी उसका प्रिया के साथ समागम नहीं हो पाता है। यक्ष कहता है कि प्रिये! जब कभी धातु (चाक) के द्वारा तुम्हारा चित्र बना कर तुम्हारे चरण में गिरकर क्षमा याचना करना चाहता हूँ तब वह सम्भव नहीं हो पाता है क्योंकि निरन्तर मेरी आँख से आँसू निकलने के कारण चित्र में प्रदर्शित तुम्हारी छवि को भी नहीं देख सकता हूँ, क्योंकि निर्दयी विधाता चित्र में भी हमारा मिलन नहीं चाहता है।
ऋतुसंहार
यह महाकवि कालिदास के द्वारा प्रणीत द्वितीय रचना है; जिसकी गणना खण्डकाव्य के रूप में होती है। यह छ: सर्ग वाला एक लघु.काव्य है। इसमें छ: ऋतुओं का वर्णन प्राप्त होता है। इसका वर्ण्य विषय प्रकृति चित्रण है। इस काव्य में प्रकृति आलम्बन प्रधान नहीं है अपितु उद्दीपन प्रधान है। ऋतुसंहार में कालिदास प्रिया को सम्बोधित करके छ: ऋतुओं का वर्णन, छ: सर्गों में करते हैं। इस प्रकार विषयवस्तु की दृष्टि से यह एक प्रकृति काव्य है।
कवि ने भारत के वार्षिक ऋतुचक्र का वर्णन ग्रीष्म से आरम्भ किया है और फिर प्रावृट् (वर्षा), शरत्, हेमन्त व शिशिर ऋतुओं का क्रमशः दिग्दर्शन कराते हुए प्रकृति के सर्वव्यापी सौन्दर्य, माधुर्य व वैभव से सम्पन्न वसन्त ऋतु के साथ इस कृति का समापन किया है। इस काव्य का प्रारम्भ ग्रीष्म ऋतु की प्रचण्डता को लेकर होता है तथा समाप्ति वसन्त ऋतु की सरसता में होती है।
शतकत्रय
– संस्कृत साहित्य में बहुमुखी प्रतिभा वाले कवियों में भर्तृहरि अग्रणी हैं। जनश्रुति के अनुसार भर्तृहरि एक राजा थे जो कि पत्नी के अविश्वास के कारण विरक्त होकर अपने राज्य सिंहासन का परित्याग करके वन के लिए निकल गये। यह जनकथा आज भी प्रसिद्ध है जिसका ज्ञान नीतिशतक के अधोलिखित श्लोक से होता है
यांचिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता
साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः ।
अस्मत्कृते च परिशुष्यति काचिदन्या
धिक् तां च तं मदनं च इमां च मां च।। (नीतिशतक-2)
इस श्लोक में नर तथा नारी के परस्पर विश्वासघात के ऊपर खेद प्रकट किया गया है। इसी श्लोक को भर्तृहरि के वैराग्य का कारण स्वीकार किया जाता है। भर्तृहरि ने तीन शतकों शृंगारशतक, नीतिशतक तथा वैराग्यशतक की रचना की है। जिसमें नीतिशतक का विशिष्ट महत्त्व है। नीतिशतक में भर्तृहरि ने अपने अनुभवों के आधार पर तथा लोक व्यवहार पर आश्रित नीति सम्बन्धी श्लोकों का संग्रह किया है।
एक ओर उन्होंने अज्ञता, लोभ, धन, दुर्जनता, अहंकार आदि की निन्दा की है तो दूसरी विद्या, सज्जनता, उदारता, स्वाभिमान, सहनशीलता, सत्य आदि गुणों की प्रशंसा भी की है। नीतिशतक के श्लोक संस्कृत विद्वानों में ही नहीं अपितु सभी भारतीय भाषाओं में सूक्ति रूप में उद्धृत किये जाते रहे हैं । यथा:—
शक्यो वारयितुं जलेन हुतभुक् छत्रेण सूर्यातपो
नागेन्द्रो निशिताकुशेन समदो दण्डेन गोगर्दभौ। व्याधिर्भेषजसंग्रहैश्च विविधैर्मन्त्रप्रयोगैर्विषं
सर्वस्यौषधमस्ति शास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधम् ।।(नीतिशतक – 11)
अर्थात् जल के द्वारा अग्नि को शान्त किया जा सकता है। धूप को छत्र (छाता) के द्वारा वारण किया जा सकता है। अंकुश (विशेष प्रकार का भाला) के द्वारा मतवाले हाथी को शान्त किया जा सकता है। दण्ड के द्वारा गो (गाय), गर्दभ (गदहा) आदि को हटा सकते हैं। विविध प्रकार की बीमारियों को औषधि के द्वारा दूर किया जा सकता है। सभी प्रकार की व्याधि के लिए शास्त्रों में किसी ना किसी प्रकार की औषधि की चर्चा की गयी है, परन्तु मूर्खता को हटाने के लिए कोई भी औषधि नहीं है।
शृंगारशतक में कवि ने रमणियों के सौन्दर्य का तथा पुरुषों को आकृष्ट करने वाले शृंगारमय हाव-भावों का चित्रण किया है। इस शतक में कवि ने स्त्रियों के हाव-भाव, प्रकार, उनका आकर्षण व उनके शारीरिक सौष्ठव के बारे में विस्तार से चर्चा की है। कवि का कहना है कि इन्द्र आदि देवताओं को भी अपने कटाक्षों से विचलित करने वाली रमणियों को अबला मानना उचित नहीं है। नारी अपने आकर्षक हाव.भावों से मानव मन को आकृष्ट करके बाँध लेती है-‘समस्तभावैः खलु बन्धनं स्त्रियः’। गीतिकाव्य खण्डकाव्य गीतिकाव्य खण्डकाव्य
इसके अतिरिक्त भर्तृहरि ने अपने शतक में वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त, शिशिर ऋतु में स्त्री व स्त्री प्रसंग का अत्यधिक शृंगारिक (कामुक) वर्णन किया है। वास्तव में इस शतक में सांसारिक भोग और वैराग्य इन दो विकल्पों के मध्य अनिश्चय की मनोवृत्ति का चित्रण हुआ है जो वैराग्यशतक में पहुँचकर निश्चयात्मक बन जाती है। गीतिकाव्य खण्डकाव्य
वैराग्यशतक में भर्तृहरि ने संसार की सारता और वैराग्य के महत्त्व का प्रतिपादन किया है। इस शतक में काव्यप्रतिभा और दार्शनिकता का अद्भुत समन्वय किया गया है। इसमें सांसारिक आकर्षणों और भोगों के प्रति उदासीनता के उभरते हुये भावों का चित्रण दिखायी देता है। कवि ने कितनी गम्भीर बात कही है :—
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः । कालो न यातो वयमेव याताः तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः।।
अर्थात् भोगों को हमने नही भोगा, बल्कि भोगों ने ही हमें भोग लिया। तपस्या हमने नही की, बल्कि हम खुद तप गए। काल (समय) कहीं नहीं गया बल्कि हम स्वयं चले गए । इस सभी के बाद भी मेरी कुछ पाने की तृष्णा नहीं गयी (पुरानी नहीं हुई) बल्कि हम स्वयं जीर्ण हो गए । ही गयी पुरानी नहीं हुई
गीत गोविन्द
गीतगोविन्द जयदेव की काव्य रचना है। गीतगोविन्द में श्रीकृष्ण की गोपिकाओं साथ रासलीला, राधाविषाद वर्णन, कृष्ण के लिए व्याकुलता, उपालम्भ वचन, कृष्ण की राधा के लिए उत्कण्ठा, राधा की सखी द्वारा राधा के विरह सन्ताप का वर्णन है। ‘श्री गीतगोविन्द’ काव्य में बारह सर्ग हैं, जिनका चौबीस प्रबन्धों में विभाजन हुआ है। इन प्रबन्धों का उपविभाजन पदों अथवा गीतों में हुआ है। प्रत्येक पद अथवा गीत में आठ पद्य हैं। गीतों के वक्ता कृष्ण, राधा अथवा राधा की सखी हैं। गीतिकाव्य खण्डकाव्य गीतिकाव्य खण्डकाव्य
अत्यन्त नैराश्य और निरावधिवियोग को छोड़कर भारतीय प्रेम के शेष सभी रूपों अभिलाषा, ईर्ष्या, प्रत्याशा, निराशा, कोप, मान, पुनर्मिलन तथा हर्षोल्लास आदि का बड़ी तन्मयता और कुशलता के साथ वर्णन किया गया है। प्रेम के इन सभी रूपों का वर्णन अत्यन्त रोचक, और सजीव होने के अतिरिक्त इतना सुन्दर है कि ऐसा प्रतीत होता है, मानो कवि शास्त्र अर्थात् चिन्तन को भावना का रूप अथवा अमूर्त को मूर्त रूप देकर उसे कविता में परिणत कर रहा है। जयदेव ने इस काव्य में वैदर्भी रीति का प्रयोग किया है तथा उनमें अनुपम माधुर्य भी है। मानवीय सौन्दर्य के चित्रण में प्रकृति को बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। गीतिकाव्य खण्डकाव्य
इस सन्दर्भ में ‘गीतगोविन्द‘ काव्य में ऋतुराज वसन्त, चन्द्र-ज्योत्स्ना, सुरभित समीर तथा यमुना तट के मोहक कुंजों का बड़ा ही सुन्दर वर्णन देखने को मिलता है। यहाँ तक कि इस काव्य में पक्षी तक प्रेम की शक्ति और महिमा का गान करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। गीतिकाव्य खण्डकाव्य गीतिकाव्य खण्डकाव्य
अमरुक शतक
अमरुकशतक संस्कृत का एक गीतिकाव्य है। इसके रचयिता अमरु या अमरुक हैं। इसका रचना काल नवीं शती माना जाता है। इसमें 100 श्लोक हैं जो अत्यन्त शृंगारपूर्ण एवं मनोरम हैं। अमरुकशतक के पद्य शृंगार रस से पूर्ण हैं तथा प्रेम के जीते जागते चटकीले चित्र खींचने में विशष समर्थ हैं। प्रेमी और प्रेमिकाओं की विभिन्न अवस्थाओं में विद्यमान शृंगारी मनोवृत्तियों का अतीव सूक्ष्म और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण इन सरस श्लोकों की प्रधान विशिष्टता है।
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