गुन बाधि कियो हिय फिरि खेल कियौ | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद |
गुन बाधि कियो हिय फिरि खेल कियौ हेरत ही उरझै ।
गासि गो कसि प्रीति के फंदनि मैं घनआनन्द छंदनि क्यौं सुर |
सुधि लेसि न भूलेहु ताकी सुजान सुजानि सकौं न दुरी गुर ।
अब याही परेखें उदेग-भरयौ दुःख- ज्वाल परयौ जुर-मुर || (२२)
गुन बाधि कियो हिय
प्रसंग : यह पद्य रीतिमुक्त काव्य धारा के प्रमुख कवि घनानन्द की रचना ‘सुजानहित’ से उद्धृत किया गया है। पहली नजर के प्रेम और बाद में उसमें छल-कपट का प्रवेश सच्चे प्रेमी के लिए बड़ा ही उलझन भरा और कष्टदायक हुआ करता है। कष्ट की उसी मानसिकता का व्याख्येय पद्य में चित्रण करते हुए कविवर घनानन्द कह रहे हैं
व्याख्या : एक बार देखते ही उस निष्ठुर प्रिय ने मेरे मन को पहली नजर में अपने सुन्दरता के गुण से अपने प्रेम के बंधन में बाँध लिया। उसके बाद निष्ठुरता पर उतर उसने बड़े ही उलझन भरे खेल किए। अर्थात् अपने प्रेम के खेलों और बाद में अचानक मुँह मोड़कर मेरे मन को उलझा दिया।
जो मन-प्राण प्रेम के फंदे (बंधन) में कसकर पूरी तरह से ग्रसित हो चुका हो, उसके बंधन भला छल-कपट भरे व्यापारों और क्रिया-कलापों से र्कसे सुलझ सकते हैं? अर्थात् प्रेम की समस्याएं प्रेम के आदान-प्रदान से ही सुलझा करती हैं, छल कपट या हेरा-फेरी से नहीं पता नहीं कि प्रिय सुजान अपने प्रेमी की सुध क्यों नहीं ले रहा। ऐसी स्थिति में कोई छिपी गाँठ खुल भी कैसे सकती है। अर्थात् मन की कोई गुप्त उलझन कैसे सुलझ सकती है।
अब, उस प्रिय की निष्ठुरता के कारण मन में मात्र इस बात की ही पछतावा रह गया है। हमेशा मन को उद्विग्न भी किया रहता है कि उसके प्रेम के कारण नायक ही विरहह-दुख की ज्वाला में पड़ गया है। उसके कारण अब हर समय का जाया और मुरझाना ही बाकी रह गया है। अर्थात् प्रेम-विरह की जलन एवं निराशा के सिवा अब इस जीवन में कुछ भी बाकी नहीं रह गया।
विशेष
1. विरही प्रेमी के मन की पश्चाताप भरी उमड़ निश्चय ही प्रभावी और मार्मिक बन पड़ी है। पाठक को भी प्रभावित करती है ।
2. उपालम्भ भरा मनस्ताप विशेष उल्लेख्य कहा जा सकता है।
3. ‘गुन’ पद में श्लेष अलंकार हैं। उल्लेख, प्रश्न, वर्णन और अनुप्रास आदि विविध अलंकारों की छटा भी दर्शनीय है ।
4. पद्य की भाषा सानुप्रासिक प्रसाद – गुणात्मक है। उसमें सहज संगीतात्मकता भी है। और गत्यात्मक चित्रात्मकता भी।
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