किसान जीवन के संदर्भ में गोदान का मूल्यांकन कीजिए | - Rajasthan Result

किसान जीवन के संदर्भ में गोदान का मूल्यांकन कीजिए |

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गोदान का मूल्यांकन :–  “गोदान’ में होरी-धनिया “मोटा-झोटा खाकर मरजाद के साथ रहना” चाहते हैं। वे एक किसान के रूप में जीवन बसर करते रहने के लिए प्रयत्नशील हैं। गाय पालने की एक छोटी-इच्छा जरूर है, परंतु नीति और धर्म के मार्ग पर चलकर इस इच्छा को पूरी करना चाहते हैं।

मेहनती हैं, ईमानदार हैं – परंतु वर्तमान व्यवस्था में वे अपनी मर्यादा का पालन नहीं कर पाते किसानी और मर्यादा में से उन्हें किसी एक को तिलांजलि देनी है। होरी किसान बने रहना चाहता है, परंतु रह नहीं पाता।

गोदान का मूल्यांकन

प्रेमचंद ने होरी की इस कामना के विरोधियों के अंतःसंबंध और उनके हथकण्डों का पर्दाफाश किया है। प्रेमचंद प्रथमतः ज़मींदार विरोधी थे। इस तंत्र की पद्धति का उद्घाटन करते हुए साम्राज्यवाद विरोधी हो गए। “गोदान” में अंग्रेज़ी राज का पोषण राज्य-कर्मचारियों के द्वारा होता है।

होरी के गाँव में पटेश्वरी सरकारी नौकर है। वह एक बार धमकाते हुए कहता है, “मैं ज़मींदार या महाजन का नौकर नहीं हूँ, सरकार बहादुर का नौकर हूँ, जिसका दुनिया भर में राज है और जो तुम्हारे महाजन और ज़मींदार दोनों का मालिक है।” (“गोदान”, पृ.155)

प्रेमचंद ने ज़मींदारों की असलियत का बयान करते हुए शक्तिशाली ब्रिटिश राज्य के शोषण एवं आतंक की ओर इशारा किया है। राय साहब कहते हैं, “हम बिच्छू नहीं हैं कि अनायास ही सबको डंक मारते फिरें। न गरीबों का गला बाना कोई बड़े आनंद का काम है।” परंतु करें क्या?

“अफसरों को दावतें कहाँ से दूँ, सरकारी चन्दे कहाँ से दूँ?…आएगा तो असामियों ही के घर से। आप समझते होंगे, ज़मींदार और ताल्लुकेदार सारे संसार का सुख भोग रहे हैं। उनकी असली हालत का आपको ज्ञान नहीं; अगर वह धर्मात्मा बन कर रहे तो उनका जिन्दा रहना मुश्किल हो जाए। अफसरों को डालियाँ न दें, तो जेलखाना हो जाए।” (”गोदान”, पृ.145)

एक दूसरे प्रसंग में वे कहते हैं, “वसूली सरकार के घर गई। बकाया असामियों ने दबा लिया। तब मैं कहाँ जाऊं?” (”गोदान’, पृ.142) तात्पर्य यह है कि होरी का शोषण सूत्र अंग्रेज़ी राज तक जाता है। प्रेमचंद ने चूँकि अंग्रेज़ों की शोषण प्रक्रिया का उद्घाटन नहीं किया है, इसलिए वे आवश्यकतानुसार उस ओर इशारा करके अपनी मूल कथा-भूमि में लौट आते हैं।

यदि होरी से पूछा जाए तो वह यही कहेगा कि लगान की अधिकता सबसे अधिक पीड़क है। धनिया सोचती है – “यद्यपि अपने विवाहित जीवन के इन बीस वर्षों में उसे अच्छी तरह अनुभव हो गया था कि चाहे कितनी ही कतर ब्योंत करो, कितना ही पेट-तन काटो, चाहे एक-एक कौड़ी को दाँत से पकड़ो; मगर लगान बेबाक होना मुश्किल है।” (”गोदान”, पृ.7) फिर ज़मींदार का कारिन्दा कभी लगान की रसीद नहीं देता। इसलिए जब भी ज़मींदार किसी किसान को दण्डित करना चाहता है, उस पर बकाया लगान का दावा कर देता है।

इस तरह दो-तीन बार लगान चुका देने के बाद एक स्थिति ऐसी आती है जब किसान रुपए नहीं जुटा पाता और फिर उसे खेत से बेदखल कर दिया जाता है। उसके मौरुसी हक छीन लिए जाते हैं। (गोबर कहता है, ”मैं अदालत में तुमसे गंगाजली उठवाकर रुपए दूंगा; इसी गाँव में एक सौ सहादतें दिलाकर साबित कर दूंगा कि तुम रसीद नहीं देते। सीधे-सादे किसान हैं, कुछ बोलते नहीं, तो तुमने समझ लिया कि सब काठ के उल्लू हैं।” (“गोदान”, पृ.187) .

फिर ज़मींदार किसानों पर बकाया लगान का दबाव या दावा ऐसे नाजुक अवसरों पर करते हैं, जब किसान सबसे ज्यादा संकट में होते हैं या जब उन्हें लगता है कि किसान किसी भी तरह से रुपए नहीं जुटा सकते। रायसाहब ने होरी से बकाया लगान की माँग तब की, जब पहली बरसात हुई और किसान खेत बोने के लिए जाने वाले थे।

ऐसे नाजुक अवसर पर महाजन उद्धारक का बाना पहनकर कर्ज देने के लिए सामने आता है और किसान ज़मींदार की चंगुल से निकलकर महाजन की गिरफ्त में आ जाता है और कर्ज वह मेहमान है जो एक बार आकर जाने का नाम नहीं लेता।

प्रेमचंद ने ‘गोदान’ में कर्ज और सूद का थोड़ा-बहुत हिसाब दिया है – होरी ने “मंगरु शाह से आज पाँच साल हुए, बैल के लिए साठ रुपए लिए थे; उसमें साठ दे चुका था; पर वह साठ रुपए ज्योंके-त्यों बने हुए थे। दातादीन पण्डित से तीस रुपए लेकर आलू बोए थे। आलू तो चोर खोद ले गए, और उसके तीन बरसों में सौ हो गए थे। दुलारी विधवा सहुआइन थी, जो गाँव में नोन, तेल, तमाखू की दूकान रखे हुए थी। बँटवारे के समय उससे चालीस रुपए लेकर भाइयों को देना पड़ा था। उसके भी लगभग सौ रुपए हो गए थे; क्योंकि आने रुपए का ब्याज था। (गोदान, पृ.32)

शोभा एक बार मँगरु साह से पूछता है – “अच्छा, ईमान से बताओ साह, कितने रुपए दिए थे, जिसके अब तीन सौ रुपए हो गए हैं। “जब तुम साल के साल सूद न दोगे, तो आप ही बढ़ेंगे।” “पहले- -पहल कितने रुपए दिए थे तुमने? पचास ही तो।” (गोदान, पृ.154)

इसी तरह “तीस रुपए का कागद लिखने पर कहीं पचीस रुपए मिलेंगे और तीन-चार साल तक न दिए गए तो पूरे सौ हो जाएंगे।” (गोदान, पृ.87) भारतीय किसान को शोषण के पंजों में जकड़कर ज़मींदारी और महाजनी प्रथा ने इस प्रकार निचोड़ दिया है कि उन्हें अपने जीवन में किसी प्रकार का उत्साह और उमंग नहीं बच पाती, जीवन में केवल अंधकार छा जाता है

जैसे प्रेमचंद लिखते हैं जीवन में न कोई आशा है, न कोई उमंग, जेसे उनके जीवन के सोते सूख गए हों और सारी हरियाली मुरझा गई हो। जेठ के दिन है, अभी तक खलिहानों में अनाज मौजूद है, मगर किसी के चेहरे पर खुशी नहीं है। बहुत कुछ तो खलिहान में ही तुलकर महाजनों और कारिन्दों की भेंट हो चुका है, और जो कुछ बचा है वह भी दूसरों का है। भविष्य अंधकार की भांति उनके सामने है। उनके जीवन में स्वाद का लोप हो गया है।’

इसी तरह होली में नकल करते हुए महाजनी शोषण का भण्डा-फोड़ किया गया है।

फिर दूसरी नकल हुई, जिसमें ठाकुर ने दस रुपए का दस्तावेज लिखकर पाँच रुपए दिये, शेष जनराने और तहरीर और दस्तूरी और ब्याज में काट लिए।

किसान आकर ठाकुर के चरण पकड़कर रोने लगता है। बड़ी मुश्किल से ठाकुर रुपए देने पर राजी होते हैं। जब कागज लिख जाता है और असामी के हाथ में पाँच रुपए रख दिये जाते हैं तो वह चकराकर पूछता है ‘यह तो पाँच ही हैं मालिक! पाँच नहीं, दस हैं। घर जाकर ‘नहीं सरकार, पाँच हैं!’ “एक रुपया नजराने का हुआ ‘हाँ, सरकार!’ ‘एक तहरीर का?

गिनना। कि नहीं? ‘

सरकार!’ “एक कागद का? ‘हाँ, सरकार!’ ‘एक दस्तूरी का? ‘हाँ, सरकार!’ ‘एक सूद का?’ ‘हाँ, सरकार!’ ‘पाँच नगद, दस हुए कि नहीं? ‘हाँ, सरकार!अब यह पाँचों भी मेरी ओर से रख लीजिए।’ “कैसा पागल है?

‘नहीं सरकार, एक रुपया छोटी ठकुराइन का नजराना है, एक रुपया बड़ी ठकुराइन का। एक रुपया छोटी ठकुराइन के पान खाने को, एक बड़ी ठकुराइन के पान खाने को। बाकी बचा एक, वह आपकी क्रिया-करम के लिए।

लगान और सूद के अलावा भी किसानों के शोषण के कई अन्य तरीके ज़मींदारों ने खोज निकाले हैं जिनमें बेगार, नजराना, डाँड, दस्तूरी, शगुन आदि अनेक गैर-कानूनी कर शामिल हैं। इन्हें वसूल करने का अधिकार ज़मींदार, कारिन्दे, महाजन, सरकारी कर्मचारी, पटवारी, पुलिस, कचहरी सभी के पास है और भारतीय किसान “सबका नरम चारा” बना हुआ है। प्रेमचंद उपन्यास की कथा को रोक-रोककर इन हथकंडों से पाठकों को परिचित कराते रहते हैं।

प्रेमचंद मानते हैं कि किसी अच्छे या भले ज़मींदार से इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता क्योंकि “यह संबंध ही ऐसा है कि एक ओर प्रजा में भय, अविश्वास और आत्महीनता के भावों को पुष्ट करता है और दूसरी ओर ज़मींदारों को अभिमानी, निर्दय और निरंकुश बना देता है।” (“गोदान”, पृ.87) इसलिए प्रेमचंद को जब भी अवसर मिला है, उन्होंने इस बिचौलिये वर्ग के रूप में ज़मींदारों के अस्तित्व का विरोध किया है।

जिस तरह ज़मींदार और महाजन एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, उसी तरह महाजन और धर्म भी एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं। ज्यों ही कोई आसामी रुपए देने में आनाकानी करता है, महाजन उसकी धार्मिक भावनाओं को उकसाता है। दातादीन ने होरी को तीस रुपए कर्ज़ दिए थे, जो अब दो सौ रुपए हो गए। गोबर कानून सम्मत सत्तर रुपए देना चाहता है।

इस पर पण्डित दातादीन होरी को कहता है । “सुनते हो होरी, गोबर का फैसला? मैं अपने दो सौ छोड़ के सत्तर रुपए ले लूँ, नहीं अदालत करूँ। इस तरह का व्यवहार हुआ तो के दिन संसार चलेगा? और तुम बैठे सुन रहे हो; मगर यह समझ लो, मैं ब्राह्मण हूँ। मेरे रुपए हजम करके तुम चैन पाओगे।

मैंने ये सत्तर रुपए भी छोड़े अदालत भी न जाऊंगा, जाओ। अगर मैं ब्राह्मण हूँ तो अपने पूरे दो सौ रुपए लेकर दिखा दूंगा और तुम मेरे द्वार पर आओगे और हाथ बाँधकर दोगे।” (गोदान, पृ.184) जाहिर है कि होरी पर इस धमकी का असर पड़ता है और वह दो सौ रुपए चुकाने के लिए राजी हो जाता है। फिर जजमानी का एक आर्थिक रूप भी है। ब्राह्मणों को मिलने वाली जजमानी की व्याख्या करते हुए पं.दातादीन कहते हैं,

“ज़मींदारी मिट जाय, बंकघर टूट जाय, लेकिन जजमानी अंत तक बनी रहेगी। जब तक हिन्दू जाति रहेगी, तब तक ब्राह्मण भी रहेंगे और जजमानी भी रहेगी। सहालग में मजे से घर बैठे सौ-दो सौ फटकार लेते हैं। कभी भाग लड़ गया, तो चार-पाँच सौ मार लिया। कपड़े, बरतन, भोजन अलग। कहीं न कहीं नित ही कार-परोजन पड़ा ही रहता है। कुछ न मिले तब भी एक दो थाल और दो-चार आने दक्षिणा मिल ही जाते हैं।” – (गोदान, पृ.206)

भी होरी की बरबादी में जहाँ धर्म की भूमिका है, वहाँ बिरादरी का भय भी कम नहीं है। गोबर और झुनिया के संबंध से बिरादरी को एतराज है। पंचों ने होरी पर सौ रुपए नकद और तीस मन अनाज की डाँड लगा दी। होरी ने रुपयों के लिए अपना घर गिरवी रखा तथा फसल पर पैदा हुआ अनाज डाँड में दे दिया। गोदान का मूल्यांकन गोदान का मूल्यांकन

इस स्थिति पर टिप्पणी करते हुए प्रेमचंद ने लिखा है कि होरी में “बिरादरी का वह आतंक था कि अपने सिर पर लादकर अनाज ढो रहा था, मानो अपने हाथों अपनी कब्र खोद रहा हो। ज़मींदार, साहूकार, सरकार किसका इतना रौब था? कल बाल-बच्चे क्या खायेंगे, इसकी चिन्ता प्राणों को सोख लेती थी; बिरादरी का भय पिशाच की भाँति सिर पर सवार आंकुस दिये जा रहा था।” (”गोदान’, पृ.108-109) गोदान का मूल्यांकन गोदान का मूल्यांकन

पर प्रेमचंद ने दिखाया है कि धर्म, बिरादरी, सरकार, ज़मींदार ‘पंच ‘ सब वही लोग हैं जो समाज के कर्ता-धर्ता बने हुए हैं। उन्हीं पंचों में से कोई कारिन्दा है, कोई महाजन, कोई पुजारी है, कोई पटवारी। इनकी अलग-अलग भूमिकाएँ हैं। सब मिलकर किसान को तबाह करने में लगे हुए हैं।

कोई किसी से कम नहीं है। सब अलग-अलग तरीके किसान को लूटते हैं। पुजारी धर्म-भावना का सहारा लेता है, पुलिस डांडे के बल से, कचहरी कानून से, बिरादरी दबाव से तथा ज़मींदार सभी हथकंडों से शोषण करता है। धनिया इन सबको “हत्यारा” कहकर अपनी भड़ास निकालती है।

“गोदान” में एक स्थान पर सारे शोषक इकट्ठे हो जाते हैं। हीरा ने होरी की गाय को जहर खिलाकर मार डाला। सारे गाँव में हंगामा हुआ। रायसाहब का कारिन्दा नोखेराम आया, पंडित दातादीन आए, महाजन झिंगुरी सिंह आए, अंग्रेज़ बहादुर के पटवारी पटेश्वरी भी पहुंचे। पुलिस आयी। पंडित जी ने धर्म के दण्ड का ज़ोर दिखाया। पुलिस हीरा के घर की तलाशी लेने के लिए तैयार हुई। होरी की मर्यादा चेता जागी।

सबने मिल-जुलकर थानेदार के लिए रिश्वत की राशि तय की। पंच बिचौलिए बन गए। झिंगुरी सिंह महाजन बन गए। उन्होंने होरी को तीस रुपए उधार दिए। इनमें से आधे पुलिस को और आधे पंचों को मिलने थे। यहाँ प्रेमचंद ने लेखकीय कौशल का प्रयोग करके रिश्वत के रुपए बचा लिए। धनिया का आकस्मिक पराक्रम काम कर गया परंतु मान्य स्थितियों में तो होरी लूट ही लिया जाता। गोदान का मूल्यांकन गोदान का मूल्यांकन

प्रेमचंद ने शोषण की इस प्रक्रिया का चित्रण करते हुए किसी एक व्यक्ति या संस्था को जिम्मेदार नहीं ठहराया है, बल्कि शोषण के संपूर्ण तंत्र को उत्तरदायी ठहराया है। दरअसल वे इन शोषकों के शोषण की कहानी कहने के लिए नहीं बैठे हैं। ये सब लोग तो आवश्यक बुराई के रूप में उपन्यास में आ जाते हैं। लेखक तो होरी की बदहाली की कथा कहना चाहता है।

उसे उसकी विफलताओं की दास्तान सुनानी है, उसकी विडम्बना को उजागर करना है। होरी के बचने का कोई रास्ता खोजना चाहते हैं, वे यह जानते हैं कि इस तंत्र में होरी के बचने का कोई रास्ता नहीं है। वैसे तो होरी का कोई सहायक भी नहीं है, अगर होता तो भी इस तंत्र में उसे कोई सहयोग दिया नहीं जा सकता। गोदान का मूल्यांकन गोदान का मूल्यांकन

 

प्रेमचंद ने इस सवाल का भी दरवाज़ा बंद कर दिया है कि कानून बना देने से भी होरी को कोई सहायता हो सकती है। झिंगुरी सिंह कानून की सीमा बताते हुए कहता है –

“कानून और न्याय उसका है, जिसके पास पैसा है। कानून तो है कि महाजन किसी आसामी के साथ कड़ाई न करे, कोई ज़मींदार किसी काश्तकार के साथ सख्ती न करे, मगर होता क्या है, रोज ही देखते हो। ज़मींदार मुसक बंधवा के पिटवाता है और महाजन लात और जूते से बात करता है। जो किसान पोढ़ा है, उससे न ज़मींदार बोलता है, न महाजन। ऐसे आदमियों से हम मिल जाते हैं और उनकी मदद से दूसरे आदमियों की गर्दन दबाते हैं।…..कचहरी-अदालत उसी के साथ है, जिसके पास पैसा है। हम लोगों को घबराने की कोई बात नहीं।’ (गोदान, पृ.205)

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  1. गोदान उपन्यास का सारांश

 

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