घनानन्द का विरह वर्णन | घनानन्द |

घनानन्द का विरह वर्णन | घनानन्द |

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घनानन्द का विरह वर्णन :— वास्तव में घनानन्द कवि के काव्य को विरह काव्य कह सकते है। इन्होंने शृंगार रस में भी वियोग पक्ष को महत्व दिया है। इनका वियोग वर्णन मार्मिकता को छूता है।

विरह प्रेम की अमूल्य निधि : काव्य में अधिक सरसता होने पर ही श्रेष्ठ काव्य कहा जा सकता हैं। सरसता रस के प्रयोग से ही आती है और रसों का राजा शृंगार रस है और उसमें भी वियोग शृंगार को प्रधानता काव्य मर्मज्ञों ने प्रदान की है। विरह- प्रेम की वह अमूल्य निधि है जिसमें से प्रेम की पीर सदैव फूटा करती है। पवित्र प्रेम, सुख-दुःख में समता विरह में ही होने से वियोग शृंगार को रसों का मूल कहा गया है।

घनानन्द का समस्त काव्य विरह गीतों से ही परिपूर्ण है। उसकी नायिका की विरहाग्नि के कारण भौंरा तथा कौओं का रंग भी काला पड़ गया है। घनानन्द के अलावा सूर को छोड़कर इतना मार्मिक तथा गहन, संयत और प्रशान्त वियोग वर्णन हिन्दी जगत में किसी कवि ने नहीं किया है।

घनानन्द का विरह वर्णन

प्रेम विषयक धारणा : घनानन्द ने स्वयं भी यह घोषित कर दिया है कि प्रेम के काव्य को वे ही व्यक्ति समझ सकते हैं जो उच्च कोटि के प्रेमी हों तथा जिन्होंने हृदय की गहराइयों में प्रेमव्यथा का अनुभव किया हो, जैसा कि इस पद द्वारा व्यक्त है कि

प्रेम सदा अति ऊँची लैहे सु कहै इहि भाँति की बात छकी।

सुनि के सबके मन लालच दौरे, पै बोरे लखें सब बुद्धि चकी || 

जग की कविताई के धोखें रहै, ह्याँ प्रवीनन की मीत जाति जकी। 

समुझे कविता घनआनन्द की, हिय – आँखिन नेह की पीर तकी ॥ 

 

विरहिणी की विरह जनित वेदना का कवि वर्णन कर रहा है कि उसे प्रिय के विरह में सोना, जागना, हँसना और रोना भी अच्छा नहीं लगता है।

अन्तर उदेग दाह आँखिन प्रवाह आँसू 

देखी अटपटी चाह भीजनि दहिन है। 

सोइबो न जागिबो हो, हँसिबों न रोइबो हूँ 

खोय खोय आप ही मैं चेटक लहनि हैं ।

जान प्यारे आवत बसंत पै आनन्दघन 

विरह विषय दसा मूल लौं कहिन है। 

जीवन मरन, जीव मीच बिना बन्यौ आय 

हाय कौन विधि रची लेही की रहनि है ।

 

इसी प्रकार वियोग दशा में रत्नाकर की गोपियों की दशा भी शोचनीय हो जाती है। उन्हें भी सोना और जागना समान प्रतीत होता है वे कहती हैं कि

कहै रत्नाकर न जागति न सोवति है,

जागत औ सौवत में सोवति जगति है।

 

प्रेमिका प्रिय के दर्शन हेतु आतुर

प्रेमिका अपने प्रियतम के दर्शन करने को विकल है। यद्यपि वह यह भी समझती है कि उसका प्रेमी उसके हृदय के अन्तर्गत समाया हुआ है लेकिन वह किस प्रकार उसे बाहर निकाल कर दर्शन कर सके। क्योंकि प्रेम की दशा तो विचित्र है वहाँ अपने शरीर की सुध-बुध नहीं रहती है। इसलिए प्रेमिका अपने प्रियतम से निवेदन करती है कि वह उसके हृदय के अन्दर से निकलकर उसे दर्शन देकर कृतार्थ करे। विरहिणी प्रेमिका अपने प्रियतम से निवेदन करती हुई कह रही है कि

अन्तर मैं दासी पै प्रवासी को सो अन्तर है, 

मेरी न सनत दैया अपनी यौ ना कहौ । 

लोचननि तोर हैं सुझावौ सब सूझौ नाहिं, 

बूझी न परति, ऐसे सोचनि कहा दहौ || 

हों तो जानराय, जाने जाँहु न अजास याहें, 

आनन्द के घन छाय छाय उकरे रहा ॥ 

मूरति मया की हाहा सूरति दिखायै नेक, 

हमैं खोय या विधि हों कौन धौ लहा लहौ ।

 

विरह-वेदना का आधिक्य :—

अपनी वियोगावस्था में दुःखों का निवारण करने के लिए प्रेयसी ने सभी उपाय कर लिए हैं लेकिन उसकी विरह-वेदना तीव्र ही होती जाती है, वह कम नहीं होती है। अन्त में उसे यह निश्चय हो गया है कि यह वेदना तो प्रियतम के मिलन से ही दूर हो सकेगी। इस भाव को व्यक्त करती हुई प्रेयसी कह रही है कि –

भये कागद- नाव उपाव सबौ घनआनन्द नेह नदी गहरै ।

बिन जानि संजीवन कौन हरै सजनी, विरहा- विथा की लहरै ॥

 

गोपियाँ अपने प्रियतम के न मिलने पर अत्यन्त आतुर होकर पक्षियों को पकड़कर पंखहीन कर डालने वाले बहेलिए के कार्य तथा व्यवहार से भी असह्य पीड़ा प्रदान करने वाली सुजान की प्रीति की तुलना करते हुए अपने प्रियतम को बहेलिए से भी अधिक पीड़ा पहुँचाने वाला व्यक्त करते हुए कहती हैं कि

अधिक बधिक ते सुजान, रीति रावरी है, 

कपट चुगो दै फिरि निपट करौ बुरी । 

गुनन पकरि ले, निपाँख करि घोर देह, 

मरिहि न जियै, महा विषम दया छुरी || 

हौं न जानौं, कौन धौं, ही या में सिन्नि स्वारथ की, 

लखी क्यों परति प्यारे अन्तर – कथा दुरी । 

कैसे आशा द्रुम पै बसेरा लहै प्रान खग, 

बनक निकाई घनआनन्द नई जुरी ॥

 

प्रिय का कठोर होना :—

प्रेमिका का प्रिय अत्यन्त कठोर हृदय का है। वह उससे रूठा हुआ है। वह इतना निर्दयी है कि उसके हृदय में दया उत्पन्न करने के प्रायः सभी साधना व्यर्थ हो चुके हैं। प्रेमिका सोचती है कि सम्भव है उस निष्ठुर के नेत्रों के समक्ष वह अनेक शारीरिक यातनाएँ सहन करे ताकि उसके हृदय में दया उत्पन्न हो जाय । इस भाव को व्यक्त करते हुए कवि ने प्रेमिका द्वारा वर्णन कराया है कि

आस गुन बांधिके भरोसो -सिल धरि छाती, 

पूरेपन सिन्धु में न बूढ़त सकाय हों । 

दुख दब हिय जारि, अन्तर उदेग- जाँच, 

रोम-रोम त्रासनि निरन्तर तचात हों | 

लाख-लाख भाँतिन की दुसह दुसानि जानि, 

साहस सघरि सिर आरे लौ चलाय हौं । 

ऐसे धनआनन्द गही है टेक मन माँहि, 

एरे निरदई तोहि दया उपजाय हौं ।

 

भारतीय नारी का आदर्श प्रेम :—

भारतीय आदर्श पतिव्रता नारी के जीवन की उत्कृष्टता इसी में है कि वह कष्ट सहन करती हुई भी अपने पति के लिए मंगल कामना करें, चाहे उसका पति कितना ही निष्ठुर क्यों न हो। घनानन्द की प्रेयसी भी अपने पति के प्रति मंगल कामना करती हुई कह रही है –

इत बांट परी सुधि, रावरे भूलनि, केसे उराहनो दीजिए जू।

 अब तौ सब सीस चढ़ाय लई, जु कछु मन भाई सु कीजिए जू। 

घनआनन्द जीवन प्रान सुजान, तिहरियै बातनि जीजियै जू। 

नितनीके रहौ दुम्हें चाड़ कहा, पै असीस हमारी यौ लीजिए जू। 

 

हरिओध की राधिका भी कृष्ण के वियोग में मंगल कामना करती हुई कहती है कि

प्यारे आवै सुबयन कहें, प्यार से गोद लेवैं । 

ठंडे होंठों नयन दुःख हों दूर मैं मोद पाँऊँ । 

ये भी है भाव मम उर के और ये भाव भी हैं। 

प्यारे जीवें जग हित करें गेह चाह न आवैं ॥ 

 

प्रेम की एकनिष्ठता :—

घनानन्द ने प्रेम की एकनिष्ठता का वर्णन किया है। एकनिष्ठता ने इन्हें प्रेम की उस भूमिका में पहुँचा दिया है जहाँ पहुँच कर प्रेम केवल प्रिय को चाहने वाला ही रह जाता है, प्रिय भी प्रेमी चाहता है या नहीं, इसकी छानबीन नहीं होती। प्रिय की ओर से तिरस्कृत होने पर भी प्रेमी उसे चाहता रहता है। प्रेयसी अपने एकनिष्ठ प्रेम का वर्णन करती हुई कहती है कि

एकै आस एके बिसवास प्रान गहैं लास, 

और पहिचानि इन्हें रही काहू सों न है । 

चातिक लौं चाहें घनआनन्द तिहारी ओर, 

आठौं जाम नाम लै, बिसारि दीनी मौन है। 

जीवन आधार जान सुनियै पुकार नेंकु, 

अनाकानी दैबो दैया घाय केसो लौन है । 

नेह-निधि प्यारे गुन, भारे है न रूखे हुजै, 

ऐसो तुम करो तौ बिचारन के कोन है।

 

उपर्युक्त एकनिष्ठता के प्रेम की परम्परा हिन्दी के सभी कवियों ने अपनाई है। रत्नाकर, मीरा, सूरदास, तुलसीदास तथा बिहारीलाल जी ने इसी भाव को व्यक्त किया है।

प्रेमी तथा प्रेमिका चेतना विहीन :—

हिन्दी तथा संस्कृत साहित्य में यह भी परम्परा रही है कि दु:ख के आधिक्य में पवित्र प्रेमी तथा प्रेमिका दोनों को ही जड़ चेतन का ज्ञान नहीं रहता है। वे अपने प्रेमी के प्रति जड़ चेतन सभी को दूत बनाकर अपने सन्देश को भेजते हैं तथा पूछते फिरते हैं। तुलसी के राम खग, मृग तथा मधुकर श्रेणी से अपनी मृगनयनी सीता को पूछते फिर थे ।

कालिदास ने भी मेघ को दूत माना है। इसी प्रकार घनानन्द की विरहिणी नायिका पवन को दूत बनाकर उससे अनुरोध करती है कि पवन उसके प्रियतम की चरणरज लाकर उसे प्रदान करे जिसे वह आँखें में लगाकर वियोग पीड़ा से छुटकारा पा सके।

सन्देश वाहक के माध्यम द्वारा वियोगिनियाँ अपनी मर्म दशा का चित्रण, तीव्र व्यथा का उद्घाटन करती हैं ताकि उनका प्रेमी उनकी इस अवस्था से अवगत हो जय। घनानन्द की नायिका भी पवन को दूत बनाकर उससे विनय करते हुए कह रही है कि

एरे वीर पौन, तेरो सबै ओर गौन, बीरी, 

तो सो और कौन, मनै ढरकौं हीं बानि दै ।

जगत के प्रान, ओछे, बड़े सो समान घन, 

आनन्द निधान, सुखदान दुखियान दे || 

जान उजियारे गुन भारे अन्त मोही प्यारे, 

अब है अमोही बैठे, पीठि परिचानि दै। 

विरह बिथाहि मूरि, आँखिन में राखौं पूरि, 

धूरि तिन पायन की हा हो ! नेकु आनि दै ॥ 

 

अधिक प्रेम या अधिक वेदना शब्दों द्वारा कदापि व्यक्त नहीं की जा सकती द्वारा व्यक्त करने पर उसकी यथार्थता नष्ट हो जाती है। घनानन्द है। शब्दों की नायिका अपने दुख का अनुभव कर सकती है परन्तु उसका कथन नहीं कर सकती ।

वो दुख देखति हौं घन आनन्द रैन बिना बिन जानि सुतन्तर | 

जानै वोई दिन राती, चखाने तें जाय परै दिन-रात को अन्तर ॥

 

रात्रि का उद्दीपक रूप :—

वियोगी का वियोगिनियों को रात्रि का समय अत्यधिक कष्टदायक अनुभव होता है। रात्रि के संयोग के दिनों की रस केलि तथा क्रीड़ाएँ जब उन्हें याद आती हैं तो हृदय में अपार वेदना की अग्नि प्रज्वलित होती है। इसलिए रात्रि तथा उसके उपमान के रूप में नागिन का वर्णन घनानन्द ने किया है जैसा कि अन्य कवि परम्परा भी इसी रूप में मानती आ रही है। नागिन के डस लेने से शरीर में जो विष प्रभाव होता है, उससे भी अधिक भीषण और कष्टदायक प्रभाव वियोगिनी के प्राणों पर रात्रि का होता है। इस भाव को व्यक्त करते हुए घनानन्द की विरहिणी कह रही है कि –

करुवों मधुर लागेँ, वाको विष अंग भएँ, 

याहि देखें रस हू मैं कटुता वरुति है । 

बाके एक, मुख ही ते बाढ़त विकार तन, 

यह सरबंग आनि प्रानिनि ग्रसति है || 

सुन्दर सुजान जू सजीवन तिहारो ध्यान, 

तासौ कोटि गुनी है लहरि सरसति है। 

भारी साँपनि निसा बिसारी, 

पापिन डरारी बैरिनि अनौखी मोहिं डाहनि डसति है ।

 

विरह में सूखकर वस्तुएँ दुःखप्रद :—

विरहावस्था में आननददायक सभी वस्तुएँ कष्टदायक प्रतीत होती हैं। होली का त्यौहार, कोकिल, कपूर, चातक तथा मंघ की सुन्दर व मधुर ध्वनि जो आनन्ददायक थे, अब वे हृदय की वेदना को उदीप्त कर रहे हैं। विरहिणी सोच रही है दुःखी होकर उनसे उलाहना देती हुई कहती है कि

कारी क्रूर कोकिला कहाँ को बैर काढ़ति री, 

कूकि कूकि अब ही करेजो किन कौरि । 

पैडैं परे पापी ये कलापी निस द्यौस ज्यौं ही, 

चातक, घातक त्यों ही तूहू कान फोरि ले ॥ 

आनन्द के घन प्रान जीवन सुजान बिना, 

जानि के अकेली सब धेरौ तल जौरि लै । 

जौं लौं करें आवन विनोद – बरसावन वे, 

तौं लौं रे डरारे बजमारे घन घोरि लै ॥

 

विरह में चित्त की विलक्षण दशा :—

विरह काल में चित्त की मनोवृत्ति प्रायः विलक्षण ही हो जाया करती है। विरह तथा विरहिणी के हृदय में अनेक भाव जाग्रत होते हैं। दोनों के विरह का कारण अपनी-अपनी अथवा एक-दूसरे की भूख समझते हैं। प्रेमिका खिन्न अवस्था में बैठी हुई सोच रही है कि पहले प्रिय का रुझन मेरी ओर था, किन्तु अब किसी कारण से नहीं रह गया है। इस परिवर्तित मनोवृत्ति की शिकायत करती हुई प्रेमिका कह रही है कि

कित को ढरिगौ वह ढार अहो, जिहि मो तन आँखिन ढोरत है। 

अरसानि गहि उहि बान कहू, सरमानि सो आनि निहोरत है। 

घनआनन्द प्यारे सुजान सुनौ, तब यो सब भाँतिन भोरत है। 

मन माँहि जौ तोरन ही, तो कहों, बिसबासी सनेह क्यों जोरत है।

 

विरहिणी का हताश होना :—

घनानन्द की विरहिणी वियोग व्यथा की अधिकता से अपने को निस्सहाय अनुभव कर रही है। उसे संसार सूना दिखाई दे रहा है, वह चिन्ता में हर समय लीन रहती है। अश्रुधारा उसके नेत्रों से प्रतिक्षण प्रवाहित होती रहती है। शरीर सुखाकर अपने वियोग के दिन बिता रही है। वह सोच रही है कि मेरे लिए मृत्यु भी तो नहीं आती है जिसके आश्रय में मुझे शानित मिल सके। इस वेदना को प्रकट करती हुई कह रही है कि

कौन की सरन जैयै आपु त्यौं न काहु पैयै, 

सूनो सो चितैये जग, दैया कित कूकियै |

सोचिनि समैया, मति हेरत हिरेयै, उर, 

आँसुन भिजैयै, ताप तैयै तन ||

क्यो करि बितये, केसे कहाँ धौं रितैये मन, 

बिना जान प्यारे कब जीवन तें चूकियै

बनी है कठिन महा मोहि घनआनन्द यौं,

मीचौ मरिगई आसरौ न जित ढकियै ||

 

प्रेम होने तथा प्रेत लगने में समानता :—

घनानन्द प्रेम होने और प्रेत लगने की दशा की समानता दिखलाते हैं। जो दशा प्रेम में होती है। वही दशा प्रेत लगने पर होती है। दोनों के साम्य के द्वारा प्रेमोन्माद होता है। विप्रलम्भ शृंगार की दस काम दशाओं में से उन्माद दशा का भी चित्रण किया गया है। कवि ने प्रेमोन्माद और प्रेत बाधा के बाह्य लक्षणों की समानता के आधार पर पूरा बंधान बाँधा है। कवि दोनों दशाओं में साम्य प्रदर्शन करता हुआ वर्णन करता है कि

खोय दई बुधि, सो गई सुधि, रोय हँसे उन्माद जग्यौ है मौन गहै,

चकि चाकि रहै, चलि बात कहैं तें न दाह दग्यौ है ।

जानि परै नहीं जनि, तुम्हें लखि ताहि कहा कुछ आहि खग्यौ है । 

सोचन ही पचियें घनआनन्द हेतु पग्यौं निधों प्रेत लग्यो है |

 

प्रेमिका की विह्वलता :—

प्रेमी की विरहावस्था में अनेक कष्ट सहन करने पर प्रेमिका का हृदय प्रायः विचलित हो जाता है। वह अपने भाग्य का परिणाम समझ कर सन्तोष कर लेती है। जो कुछ भाग्य में लिखा है वह सहन करना ही पड़ेगा। प्रिय की निष्ठुरता निर्दयता का गम्भीर अनुभव करते हुए भी प्रेमिका प्रिय पर दोषारोपण नहीं करती; प्रियतम के प्रेम की अप्राप्ति को अपने भाग्य का दोष मानती है। प्रेम की अनन्यता और उदाद्यता का यह रूप भारतीय प्रेम पद्धति की प्रधान विशेषता रही है। भाग्य में लिखे हुए पर अटल विश्वास करती हुई विरहिणी कह रही है कि

तिन्हैयौं सिराति छाती, तोहि वैं लगति तातीं 

तेरे बाँऔ आयौ है अंगारिन पै लौठिबो।

रैन दिन चैन को न लेस कहुँ पैयै, भाग,

अपने ही ऐसे, दोष कहि धौं लगाइयै ।

 

प्रेमी की निष्ठुरता पर प्रेमिका द्वारा व्यंग्य :—

प्रियतमा प्रियतम के प्रति अपने प्रेम की गम्भीरता और एकनिष्ठता की ओर संकेत करते हुए उसकी निष्ठुरता पर व्यंग्य करती हुई कहती है कि मैंने तेरे लिए अपना सर्वस्व त्याग दिया है फिर भी मुझे इस प्रकार तड़पा-तड़पाकर मारकर तुझे कीर्ति नहीं मिल सकती है क्योंकि अपने प्रेमिकयों को मारकर आज तक किसी को भी प्रतिष्ठा नहीं मिली। इसी भाव को व्यक्त करते हुए कहा है कि

जाहि जौ भजै सो ताहि तजै, धन आनन्द क्यौं, 

हति के हितूनि कहौ काहु पाई पति रे ।

 

संयोग काल में प्रकृति के विभिन्न उपकरण जो सुखमय प्रतीत होते हैं वियोग में वे बहुत ही कष्टकारी मालूम पड़ते हैं। यह बात सत्य भी है कि सुखमय दिनों में प्रकृति के उपहार आनन्दमय लगते हैं लेकिन दुःख में अथवा वियोग में वे अपार पीड़ा देते हैं। चन्द्रमा की चाँदनी जो संयोगावस्था में सूखकर प्रतीत होती थी अब वह वियोगावस्था में काटने को दौड़ रही है।

नेह निधान सुजान समीप तौं, सींचत ही हियरां सियराई ।

 सोई किधौं अब और भई, दई हेरत ही मति जाति हिराई ॥ 

हैं विपरीत महा घन आननद अम्बर तें धर को झर आई ।

 जरति अंग अनंग की आंचनि जोन्ह नहीं सुनई अगिलाई ||

घनानन्द के विरह वर्णन में प्रेम की कितनी मार्मिकता, अनन्यता तथा कनिष्ठता है। वह दिन रात प्रिय दर्शनों की प्रतीक्षा करती रहती है। उसके नेत्र झुक गये हैं। उसने अपने मन प्रियतम के नाम का जप करने का ही एकमात्र प्रण कर लिया है।

तेरी बाट हैरत हिराने और पिराने पथ । 

थाके ये विकल नैना, ताहि निप निति रे। 

हिय में उदेग आगि, जागि रहि राति धाँस । 

तोहिं कौं आधौं साधौं तपि तपि रे ॥ 

जाय घनआनन्द यो दुसह दुहेला दसा । 

बीच परि परि प्रान पिसेय चपि चपि रे । 

जीव ते भई उदास, तऊ है मिलन आस । 

जीवहिं जिवाऊँ नाम तेरो जपि जपि रे ॥

 

इस प्रकार घनानन्द वियोग शृंगार के तो सम्राट हैं। वियोग पर रचनाएँ जीती जागती सी प्रतीत होती हैं। उनके विरह में असह्या वेदना और कसक का समुद्र उमड़ता दिखाई देता है। घनानन्द के प्रेम में चातक के प्रेम के सदृश एकनिष्ठता के दर्शन होते हैं।

यह भी पढ़े :–

  1. जहाँ न धर्म न बुद्धि नहि नीति | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | अंधेर नगरी । भारतेन्दु |
  2. लोभ पाप को मूल है | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | भारतेन्दु हरिश्चंद |
  3. भारतेन्दु की भक्तिपरक कविताओं की मूलभूत विशेषताओं को स्पष्ट करें |

 

 

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