चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प की समीक्षा। गुरु गोविंद सिंह द्वारा कृत।
चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प पर विचार करने से पहले, इसके रचना-काल की साहित्यिक भाषिक प्रवृत्तियों को ध्यान में रखना आवश्यक है। उस युग (अर्थात् उत्तरमध्यकाल अथवा रीतिकाल) में काव्यभाषा के रूप में ‘ब्रज’ का प्रयोग हो रहा था।
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चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प
समस्त हिन्दी-प्रदेश में शृंगार-भक्ति-वीरता-समन्वित काव्य-रचना का माध्यम ब्रज ही थी जिसे प्रायः ‘भाषा’ के नाम से जाना जाता था। वास्तव में समूचे मध्ययुग का ‘हिन्दी’-काव्य ‘भाषा’-काव्य कहलाता था। शायद संस्कृत-प्राकृत और अपभ्रंश से अलगाने के लिए ही, ब्रज अवधी आदि में रचित काव्य को ‘भाषा’ काव्य कहा जाने लगा।
कबीर ने शायद इसीलिए कहा था-‘संसिकरत कबिरा कूप-जल, भाषा बहता नीर’। जायसी-कथित ‘लिखि भाषा चौपाई कहै’ और तुलसी की स्वीकारोक्ति ‘भाषा भनिति मोर मति भोरी’ से भी यही तथ्य स्पष्ट होता है। आचार्य-कवि केशवदास जब कहते हैं कि ‘भाषा बोल न जानतीं, जेहिं के कुल के दास’ तो ‘भाषा’ से उनका अभिप्राय ‘संस्कृत’ से इतर ‘ब्रजभाषा’ ही था। इनके लगभग तक शताब्दी पश्चात् आचार्य भिखारीदास ने इस बात को पूर्णतः स्पष्ट कर दिया कि ‘भाषा’ से अभिप्राय ‘ब्रजभाषा’ है
भाषा ब्रजभाषा रुचिर, कहैं सुमति सब कोइ। (काव्य निर्णय, अध्याय-1, छंद-14)
उन्होंने भारत-भर के विभिन्न हिन्दी कवियों का नामोल्लेख करते हुए यह भी स्पष्ट किया कि ब्रज भाषा केवल ‘ब्रजक्षेत्र’ (उत्तर प्रदेश के आगरा-मथुरा-वालियर अंचल) तक ही सीमित नहीं; समस्त कवियों की वाणी में ‘ब्रजभाषा’ का निखार देखा जा सकता है:—
ब्रजभाषा हेत ब्रजवास ही न अनुमानौ, ऐसे-ऐसे कविन की बानी हूं सो जानिये। (काव्यनिर्णय, अध्याय-2, छंद-16)
पंजाब में रचित हिन्दी-काव्य की भाषा भी इससे भिन्न नहीं थी। सिख-पंथ के प्रथम गुरु नानक (पंद्रहवीं शताब्दी) से लेकर नवमगुरु तेगबहादुर (सत्रहवीं शताब्दी) तक-सभी की वाणी ‘ब्रजभाषा’काव्य में रची गई। भिखारीदास के उपर्युक्त ‘काव्यनिर्णय’ की रचना संवत् 1703 विक्रमी में हुई। उसमें पंजाब के सिख गुरुओं अथवा अन्य स्थानीय कवियों की ब्रज-बाणी का उल्लेख संभवतः इस कारण न हो सका, क्योंकि उसकी लिपि गुरुमुखी थी।
अन्यथा वास्तविकता यह है कि पंजाब और पंजाबेतर भारत में रचित उत्तरमध्यकालीन हिन्दी-काव्य की प्रवृत्तियों में भले ही परिस्थितिजन्य भिन्त्रता दिखाई देती हो, तथापि ‘इस भिन्नता में भी ‘ब्रजभाषा’ के रूप में साँस्कृतिक और भावात्मक एकता का एक सूत्र विद्यमान रहा।” (डॉ० रामप्रकाश-रचित ‘आचार्य अमीरदास और उनका साहित्य’, अध्याय-1, पृष्ठ-12)।
हिन्दी-काव्य में विगत कई शताब्दियों से ब्रजभाषा का प्रयोग हो रहा था। धीरे-धीरे वैष्णव-भावना के संपर्क संसर्ग से, उसके साथ ही ब्रजभाषा का प्रसार व्यापक होता चला गया। पंजाब में ‘रचित हिन्दी काव्य में भी ब्रजभाषा का प्रयोग एक सांस्कृतिक अनिवार्यता के रूप में हुआ। हिन्दी और पंजाबी के मूर्धन्य विद्वान डॉक्टर हरिभजन सिंह के कथानानुसार “सिख-गुरु पंजाब के इतर क्षेत्रों के साथ अपने – सांस्कृतिक सम्बन्ध बनाये रखने के प्रबल इच्छुक थे।
परिणामस्वरूप, पंजाब के सभी गुरुओं, गुरु-भक्तों, गुरु-दरबारी कवियों, उदासियों, निर्मलों एवं अन्य हिन्दी कवियों की वाणी का माध्यम केवल ‘ब्रज’ भाषा हो गई।” (गुरुमुखी में लिखित हिन्दी काव्य, पृष्ठ-11) गुरु गोविंद सिंह-रचित ‘चंडी-चरित्र’ भी इसी परंपरा की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। ”
गुरु गोविंद सिंह की समस्त वाणी के बृहत् संकलन ‘दशमग्रंथ’ में अनेक स्थलों पर ‘ब्रजभाषा’ का ‘भाषा’ के रूप में उल्लेख हुआ है (जैसा कि समूचे मध्ययुगीन हिन्दी काव्य में प्रचलन था)। श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध पर आधारित ‘कृष्णावतार’ में उन्होंने कहा है :—
दसम कथा भागौत की भाषा करी बनाइ। (कृष्णावतार, छंद-2491)
इसी प्रकार ‘चंडी चरित्र उक्ति विलास’ के आरम्भ में भी उन्होंने ‘भाषा’ (अर्थात् ब्रजभाषा) में यह कृति प्रस्तुत करने की बात कही है
भाषा सुभ सभ करौं, धारिहौं कृत्ति मैं। (चंडी चरित्र 6)
तात्पर्य यह है कि ‘चंडी चरित्र उक्ति विलास’ की भाषा ‘ब्रज’ है इस सम्बन्ध में किसी प्रकार के विवाद की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। डॉ० ओमप्रकाश की यह अवधारणा उचित प्रतीत नहीं होती कि ‘चंडी चरित्र उक्ति विलास की भाषा पर टिप्पणी करना कठिन कार्य है’ (वही, भूमिका-पृष्ठ-15)।
यह सही है कि पहले-पहल यह रचना गुरुमुखी लिपि में लिपिबद्ध हुई। देवनागरी से थोड़ी-बहुत भिन्नता (मात्रा, हलन्त, अर्धाक्षर, संयुक्ताक्षर, द्वित्व आदि के संदर्भ) के कारण मूल पद्यों के उच्चारण में कुछ अन्तर आना भी स्वाभाविक है। इस रचना (चंडी चरित्र) का पंजाब में एवं अन्यत्र रहने वाले पंजाबी परिवारों में धार्मिक दृष्टि से पाठ-पारायण आदि होता है- इस कारण भी मौखिक परंपरा में मूल रचना से कुछ विकृति आ सकती है। परन्तु इन कारणों से इस काव्यकृति के भाषा-स्वरूप का निर्णय या विवेचन विवादास्पद नहीं समझा जाना चाहिए।
पिछले पृष्ठों में उद्धृत असंख्य उदाहरणों से यह प्रमाणित हो जाता है कि इस काव्य की भाषा सहज-सुललित, परिनिष्ठित ब्रज है। खड़ी बोली, पंजाबी अथवा कहीं-कहीं फारसी का पुट या प्रभाव अस्वाभाविक नहीं। इस तरह का भाषायी संस्पर्श या प्रभाव तो कबीर, मीरां, केशव, बिहारी आदि अन्य कवियों की ब्रज-रचनाओं में भी देखा जा सकता है।
उल्लेखनीय है कि ‘चंडी-चरित्र’ की रचना उत्तरमध्यकाल के भी अंतिम चरण (विक्रमी संवत की अठारहवीं शताब्दी के मध्य) में हुई। फिर, इसके रचनाकार गुरु गोविंद सिंह एक बहुश्रुत, बहुपठित, अध्यवसायी लोक-साधक थे। उनके गुरु-दरबार, शिष्य-समुदाय और कार्यकर्ता (योद्धा)-समाज में हर वर्ग, जाति और क्षेत्र के लोग थे जिनके लिए वे ऐसी उत्साह-प्रद एवं धर्म-वृत्ति जगाने वाली रचना प्रस्तुत कर रहे थे।
इस दृष्टि से उनकी काव्यभाषा में ‘ब्रज’ से इतर भाषाओं और बोलियों का प्रभाव अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। यों तो ‘चंडी चरित्र’ में प्राप्त ब्रजभाषा-लालित्य के अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं (पीछे विभिन्न संदर्भो में दिये भी गये हैं), फिर भी एक बानगी द्रष्टव्य है।
याते प्रसन्न भये हैं महामुनि देवन के तप में सुख पावें।
यज्ञ करें इक वेद ररें भव ताप हरें मिलि ध्यान लगावें।।
झाल रु ताल मृदङ्ग उपाङ्ग रबाब लिये सुर साज मिलावें।
किन्नर गन्धर्व गान करें गण यक्षक अप्सरा नृत्य दिखावें।।54।।
इस छंद को कौन विद्वान-समीक्षक ‘ब्रज-काव्य’ की परिधि से बाहर रख सकता है। युगीन प्रवृत्ति का निर्वाह
फारसी प्रयोग
‘चंडी-चरित्र’ की भाषा का मूल स्वरूप ‘ब्रज’ होते हुए भी, कवि ने इसमें अपनी समकालीन भाषिक प्रवृत्रियों की झलक अनेकत्र प्रस्तुत की है। सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दी में ‘रेखता’ नाम से हिन्दी-फारसी-मिश्रित रचना की परंपरा प्रचलित थी। इसकी शुरूआत चौदहवीं शताब्दी में अमीर खुसरो ने अपने द्विभाषिक कोश ‘खालिक बारी’ से की। फिर चौदहवीं पंद्रहवीं शताब्दी में इस शैली का विकास ‘दक्खिनी’ हिन्दी के रूप में आंध्र, महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि के दक्षिणी क्षेत्रों में हुआ।
उत्तर भारत में इसे ‘रेखता’ के नाम से प्रश्रय मिला और कालांतर में इसी से ‘उर्दू’ शैली का भी विकास हुआ। चंडी चरित्र के रचनाकार ने भी ‘रेखता’ शीर्षक के अन्तर्गत हिन्दी-फारसी-मिश्रित भाषा का प्रयोग करते हुए छंद-रचना की है (‘रेखता’ छंद का नाम नहीं; एक शैली-विशेष है)
रेखता
कही है हकीकत तमाम खुददेवी सेती,
लीन महिषासुर हमारा छीन धाम है।
कीजे सोइ बात मात तुम को सुहात जोइ,
सेवक कदीम तक आये तेरी साम हैं।
दीजे बाज़ा देश हमें मेटिये कलेश लेश,
कीजिये अभेष उन्है वडो यह काम है।
कूकर को मारत न कोउ नाम लेके
तांहि मारत हैं तांको लेके खाविंद को नाम है।।22।।
इस ‘मनहर कवित्त’ छंद में प्रयुक्त हकीकत (वस्तुस्थिति), मालूम, कदीम (पुराने), साम (शरण), खाविंद (स्वामी) आदि फारसी-प्रयोग युगीन प्रवृत्ति-निर्वाह के द्योतक हैं। अन्यत्र भी अनेक पदों में फारसी शब्दों का सहज प्रयोग मिलता है। उल्लेखनीय है कि गुरु गोविन्द सिंह का संस्कृत, हिन्दी, पंजाबी के अतिरिक्त फारसी भाषा पर भी अच्छा अधिकार था।
औरंगजेब के नाम फारसी-पद्य में लिखा गया उनका पत्र ‘जफरनामा’ साहित्य-जगत् में प्रसिद्ध है। वैसे भी तीन-च न-चार शताब्दियों से उत्तर भारत, विशेषतया पंजाब में मुस्लिम शासन के परिणामस्वरूप फारसी शब्दावली लोक प्रयोग में प्रवेश पा चुकी थी। ‘चंडी-चरित्र’ में उसी परिमाण में यत्किचित् प्रयोग मिलते हैं। अरजी दरजी, तमाशा, फौज, हाल-बेहाल, जुदा, कहर आदि शब्द ब्रज-प्रवाह में घुल मिलकर, उसी के रंग में रंग गये हैं।
(क) चंडि प्रचंड अखंड लिये कर, कालका काल की ज्यों अरजी है। (75)
(ख) ज्यों दरजी-जम मृत्त के सीस मैं बागें अनेक कता करि डारे। (15)
(ग) वैर बड़ाइ लड़ाइ सुरासुर आपुहि देखत बैठि तमासा। (1)
(घ) धाइ गदा गहि, फोरि के फौज को, लोहू बह्यो तिनमांहि त्रिवेनी। (98)
(ङ) हाल बिहाल महा बिकराल, संभाल नहीं जनु काल से हैं। (73)
(च) चक्र चलाइ दयौ कर तैं, सिर सत्रु को मारि जुदा करि दीनौ। (49)
(छ) महाबीर कहरी दुपहरी कौ भानु मानो…. (52)
– इन उदाहरणों से सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि फारसी-शब्द छंद-लय अथवा नाद-संयोजन के औचित्य-निर्वाह-हेतु ही प्रयुक्त हुए हैं; भाषा-ज्ञान के उद्देश्य से नहीं।
पंजाबी-प्रयोग-
‘चंडी चरित्र उक्तिविलास’ का पाठक-श्रोता-वर्ग मूलतः पंजाबी भाषी था। हिन्दी उसकी सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय चेतना की सहचर थी। इस काव्य के रचनाकर के अल्प जीवन (केवल बयालीस वर्ष) का अधिकांश समय (लगभग तीस वर्ष) पंजाब में ही व्यतीत हुआ था। अतः प्रस्तुत काव्य में अनेकत्र पंजाबी शब्दावली के अतिरिक्त संरचना-शैली में भी उसका पुट दिखलाई पड़ता है। कतिपय उदाहरण उल्लेखनीय हैं
अरदास परि पाइँन कर जोरि कै, कही एक अरदास। (85)
आन (आकर) रक्तबीज नृपसुंभ को कीनो आन प्रनाम। (124)
भजना (दौड़ जाना) खेत जीति दैतन लियौ, गये देवते भाजि। (72)
खुबें (सफेद फूलवाली एक खाद्य वनस्पति (सब्जी), त्तुंबे (धुन दिये)
चडि प्रचंड कुदंड ले बानन दैतन के तन तूल ज्यों तुबे।
बीरन के सिर की सित पाग चली बहि स्रोनित ऊपर खुंबे। (148)
कुरमा (कुटुंबी), खुरमा (गुच्छा, खजूर का पक पका फल)
तब लोचन-धूम उठे किलकारि लये संग दैतन के कुरमा।
मनु आँधी बहे धरनी पर छूटि खजूर तैं दूरि परयो खुरमा।(99)
मंगे (मांगे), लंगे (लंगड़े), चंगे (अच्छे)— आदि प्रयोग भी मिलते हैं।
भजे (भागे)— अगनित मारे, गनै को, भजे जु सुर करि त्रास। (19)
सूही (लाल रंग की)— स्रोन सों लाल भई धरती सु मनौ अंग सूही की सारी करी है।
मली (लगा वी)— जोति लै आपने अंग मली है। (11)
खटि (खोदकर) — धरा खटि आठ अकास बराए। (147)
सुटे (डाल दिये) — बान प्रहारि संहारि सुटे हैं (161)
खड़ी बोली का पुट ‘चंडी चरित्र’ के रचनाकर गुरु गोविंद सिंह के जीवन-काल से कुछ ही पहले भारत, विशेषतया दिल्ली और उत्तर प्रदेश के कुछ नगरों में फौजी छावनियों में पनपने वाली हिन्दी (जिसे जबान-ए-उर्दू अर्थात् ‘फौजी भाषा’ कहा गया), अनेक शताब्दियों से लोक बोली के रूप में प्रयुक्त होने वाली खड़ी बोली के रूप में विकसित होने लगी थी। अमीर खुसरो ने इसी लोक बोली में (दिल्ली में रह कर) लोक रंजक काव्य (मुकरियों-पहेलियों-दोसुखनों) आदि की रचना की थी।
मध्यकाल में पंजाब नाथपंथी जोगियों का गढ़ था जिनकी काव्यभाषा में इस लोक-बोली (खड़ी बोली) का सबसे अधिक पुट था। इसके अतिरिक्त गुरु गोविंद सिंह जिस संत-परंपरा के उत्तराधिकारी थे उसकी वाणी में भी लोग-प्रयोग की पयाप्त शब्दावली का संस्पर्श स्वाभाविक था। ‘चंडी चरित्र’ में यत्र-तत्र ‘खड़ी बोली’ प्रयोग का पुट इसी संयुगीन प्रवृत्ति का परिणाम है। यथा चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प
(क) समेत समाधि समाधि लगाई। (7)
(ख) जल जाल कराल बिसाल जहाँ। (9)
(ग) बहुरि भयौ महिषासुर तिन तो क्या किया।
भुजा-जोर करि जुद्ध जीत सब जग लिया। (13)
(घ) सु फेन जयों छत्र फिरे तरता।
भुज कारि भुजंग करे करता। (69)
(ङ) आये चंडि ऊपर सु क्रोध के बनी-ठनी। (181)
(च) हर आसन तें उठ भागा।
संकित अंग महाभय जागा। (213)
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शब्द-चयन
डॉ० ओमप्रकाश ने लिखा है कि ‘उक्ति विलास’ की भाषा-नीति वही है जो ‘रामचरित मानस’ की थी, क्योंकि दोनों ग्रंथों का उद्देश्य समान है। तत्सम शब्दावली इसका मेरुदंड है। आवश्यकतानुसार तद्भव शब्द अपनाये गये हैं, ब्रजभाषा की प्रकृति व्याकरण का नियमन करती है, पंजाबी के कतिपय प्रचलित प्रभाव हैं, विदेशी प्रभाव केवल अपवाद-स्वरूप है। यह ग्रंथ तत्सम शब्दावली से ही आरम्भ होता है और उसकी इतनी बहुलता है कि इसको सामान्य नियम ही मान लेना चाहिए।” (चंडी चरित्र उक्ति विलास, भूमिका पृष्ठ 15)। चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प
उदाहरणार्थ नीचे दी गई शब्दावली उल्लेखनीय है- उरु, आहब (युद्ध), आसिष, कुंभ (हाथी), चमू, तुंड, तुरंगम, त्रास, दंती, तुषार, पार्थ, पुरंदर, पंथ, प्रदक्षिणा, पंचमुखी, भ्राता, मघवा, व्याल, विभास, शक्र, श्रुति, सिंधुर, शृंग आदि।
इसी प्रकार भाषा-गठन में समास-प्रवृत्ति का उपयोग करते हुए कवि ने अधिकांशतः तत्सम शब्दों का चयन करके, उनसे समस्त पद बनाये हैं
अद्रि- -सुता, अरिपूर, अहिराज-समाज, चपल-गति, तन-त्रान, जलांजलि, सरिता-तट, मूढ-मति, रिपु-भाल, पात-विहीन, हर-हार इत्यादि। चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प
‘चंडी-चरित्र उक्ति विलास’ के शब्द- चयन-कौशल के उदाहरण उन स्थलों में विशेष मिलते हैं जहाँ कवि ने किसी वस्तु-स्थिति को स्पष्ट करने के उद्देश्य से विभिन्न उपमानों और बिम्बों की योजना की है। (इनका विशद विवेचन, आगे ‘अप्रस्तुत-योजना’ और ‘बिम्ब-विधान’ के अंतर्गत किया गया है।) यहाँ दो प्रवृत्तियों का उल्लेख करना आवश्यक है। एक यह कि ‘चंडी-चरित्र’ का रचनाकार ‘पर्याय-चयन’ में पर्याप्त निपुण है। एक ही नाम के लिए विभिन्न प्रसंगों में अनुप्रास, लय, छंद-निर्वाह अथवा अप्रस्तुत-योजना आदि के सम्यक् निर्वाह-हेतु, अनेक पर्याय ग्रहण किये गये हैं। देवी, धूम्रलोचन और रक्तबीज के नाम-पर्यायों की तो भरमार है।
इसकी प्रवृत्ति है नाम-पर्याय के विपर्यय’ की। इस प्रकार भी रोचक परंपरा पंजाब में, विशेषतया उत्तर मध्यकाल के कवियों में खूब प्रचलित रही है। यथा आत्मासिंह जिंदमगिंद (जिंद-आत्मा, भूगिंद सिंह), गोविंद सिंह गोविंद (माधव) मृगेन्द्र (सिंह), मदनलाल-मैन कवि (मदन-मैन), वसंतसिंह- ‘ऋतुराज’। इस प्रवृत्ति का प्रभाव आधुनिक युग के प्रारम्भिक कवियों में भी देखा जा सकता है।
अयोध्यासिंह उपाध्याय ने, महाकवि सुमेरसिंह की प्रेरणा से अपने नाम के पर्याय उलट कर ‘हरिऔध’ उपनाम रखा- हरि – सिंह, औध – अयोध्या। (द्रष्टव्य पं० चंद्रकांत बाली, पंजाब प्रांतीय हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ 330) ‘चंडी चरित्र’ के ‘धूम्रलोचन’ एवं ‘रक्तबीज’ नामक दैत्य योद्धाओं के नाम पोयो का विपर्यय-गत प्रयोग इसी प्रवृत्ति का परिणाम है – 7
धूम्रलोचन
(क) लोचन धूम कहै बल आपनो….। (92)
(ख) धूम्रनैन गिरिराज तट, ऊँचे करी पुकार (95)
(ग) घाव लगै रिसकै दुगधूम सु…. । (98)
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रक्तबीजक
(क) रक्तबीज नृप सुंभसौं, कीनौ आन प्रनाम। (14)
(ख) स्रोनित-बिंद को सुंभ-निसुंभ बुलाइ….। (125)
(ग) बीज-रक्त सुबम्ब बजाइकै आगे… (127) शब्दशक्ति-प्रयोग
चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प
‘चंडी चरित्र उक्ति विलास’ के अनेकानेक उदाहरण पढ़कर स्पष्ट हो जाता है कि इसकी भाषा प्रायः अभिधा-प्रधान है। युद्ध-वर्णनों में योद्धाओं के करतब, शस्त्रास्त्र-संचालन आदि का उल्लेख वाचक शब्दों वाच्यार्थ या मुख्यार्थ-सूचक शब्दों द्वारा ही उपयुक्त रहता है। फिर भी कवि द्वारा अनेक स्थलों पर ‘लक्षणा’ और ‘व्यजंना’ शब्दशक्तियों का माध्यम ग्रहण किया गया है। उल्लेखनीय है कि यह प्रयोग बलात्, चमत्कार-प्रदर्शन के उद्देश्य से न होकर, वर्ण्य वस्तु अथवा भाव-व्यंजना के प्रवाह में स्वाभाविक रूप से हुआ है। यथा चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प
लक्षणा
(क) कूकर को मारत न कोऊ नाम लै के. ताहि मारत है ता को लै के खाविंद को नाम है। (22)
‘स्वामी का नाम लेकर कुत्ते को मारने’ का वाच्यार्थ स्पष्ट नहीं है, उसमें बाध है। ‘कुकर’ का लक्ष्यार्थ है – सेवक, स्वामीभक्त दास आदि । ‘खाविंद’ का लक्ष्यार्थ है पालक, रक्षक आदि। देवगण देवी से विनय करते हुए कहना चाहते हैं कि ‘आपके सेवकों को दैत्यों द्वारा मारने से आपके ही ‘नाम’ या ‘गौरव’ पर आंच आएगी।’ .
ख) आठमो सिंधु पचायो हुतौ मनु या रन मैं विधि ने उगर्यो है। (41) (ब्रह्मा ने जो आठवां सागर पचा (पी) लिया था, उसे उसने रण में उगल दिया है।) चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प
यहाँ ‘आठवां सागर पी कर पचा जाना’ का मुख्यार्थ बाध-युक्त है। एक तो सागर सात ही हैं, आठवां है नहीं; दूसरे सागर को पीना और पचा लेना असंभव है। इसी प्रकार, उसे उगलने की संगति भी नहीं बैठती। कवि द्वारा अभिप्रेत लक्ष्यार्थ है- ‘संसार में सात सागर तो ज्ञात और प्रसिद्ध हैं ही, देवी और दैत्यों के युद्ध में जो अपार रक्त प्रवाह प्रवाहित है वह भी मानो एक नया ‘रक्त का समुद्र’ है। युद्ध भूमि को अतिशय रक्त से लथपथ बताना ही अभीष्ट है। चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प
व्यंजना
भाजि गयौ मघवा जिनि कै डर ब्रह्मतै आदि सबै भयभीते।
तेई वै दैत पराइ गए रन हारि निहारि भए रन रीते।।
जंबुक गिद्ध निरास भए बनवास गए जुग कानन बीते।
संत सहाइ सदा जगमाइ सु सुंभ निसुंभ बड़े अरि जीते।।22।।
इस पद का मुख्यार्थ स्पष्ट ही है। जिन दैत्यौं के डर से ‘इंद्र’ और ‘ब्रह्मा’ आदि भी भयभीत हो कर भाग गये थे, वे दैत्य भी युद्ध में चंडी को देखते ही शक्तिहीन होकर, पराजित हो गये’ इस कथन में व्यंजना यह है कि दैत्य तो प्रबल पराक्रमी थे ही, चंडी की शक्ति उनसे भी कहीं अधिक है। – चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प
इसी प्रकार, तीसरे चरण में इस कथन का व्यंग्यार्थ यह है कि देवी-दैत्य-युद्ध लंबा भीषण युद्ध न होने के कारण, न लाशें हैं, न रक्त की नदियाँ और न हड्डियाँ) उपर्युक्त युद्ध सत्युग में हुआ था और अब (गुरु गोविंद सिंह के समय में) कलियुग चल रहा है। ‘त्रेता’ और ‘बापर’ युग बीच में बीत गये। ‘द्वापर’ में ‘महाभारत’ हुआ था, परंतु कवि-कथनानुसार, ‘चंडी का दैत्यों से युद्ध उससे भी भयंकर था।’ यही ‘व्यंजना है। चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प
मुहावरे और सूक्तियाँ
मुहावरों के प्रयोग से भाषा सप्राण हो उठती है। यद्यपि मुहावरों के मूल में ‘लक्षणा’ शब्दशक्ति रहती है, तथापि ‘लक्षणा’ के लिए रचनाकार और पाठक दोनों का बुदिध-कौशल अपेक्षित है, जबकि मुहावरे लोक प्रयोग में प्रचलित होने के कारण भाषा को सहअर्थवत्ता प्रदान करते हैं। मुहावरेदार प्रयोगों में वाचक (मुख्यार्थ-विधायक) प्रयोगों की अपेक्षा चमत्कार और अर्थ-द्योतन की विस्तृत भूमि होती है और साथ ही दुरुहता नहीं होती।
(द्रष्टव्यः डॉ० मनोहर लाल, घनानंद और स्वच्छंद काव्यधारा, पृष्ठ 131) इसी प्रकार, कुछ अनुभव सिद्ध कथन ‘सूक्ति’ की भाँति स्थायी प्रयोग का रूप ग्रहण कर, काव्य की वर्ण्य वस्तु की अर्थ-गरिमा में और वृद्धि कर देते हैं। चंडी-चरित्र के भाषा-शिल्प-सौष्ठव में इन दोनों काव्योपकरणों का भी योगदान रहा है। जैसे ,
” तमाशा देखना-बैर बढ़ाइ, लड़ाइ सुरासुर, आपुहि देखत बैठि तमासा (1)
हाथ लगाना-मुंड को मुंड उतार दयौ, अब चंड को हाथ लगावत चंडी।(115)
मसल डालना-पै पल मैं दल मीझि दयौ . ..।(157)
आवे की तरह तपना-चंडि के बानन, तेज प्रताप ते, दैत जरे जैसे ईट अँवा पै।(168)
पानी न माँगना-फेर सरासन को गहि कै कर, बीर हने तिन पानी न मंगे।(47)
पाप काटना-ऐ हो जगमातु तैं तो काट्यो बड़ौ पाप है। (227)
एक कवित्त में तो प्रत्येक चरण ही मुहावरा प्रयोग के कारण अनूठी अर्थवत्ता का धारक हो गया। चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प
मीन मुरझाने कंज खंजन खिसने,
अति फिरत दिवाने बन बोलैं जित तिल्वी।
कीर औ कपोत बिंब,
कोकिला कलापी बन लुटै फुटै फिरै मन चौनहूँ न कितही।।
ऐसी गुन आगरि उजागरि सुनागरि है
लीनौ मन मेरो हरि नैन कोर चित ही।।89।।
इस छंद में मुरझा जाना, दीवाना हो जाना, लुटे-पिटे फिरना, चौन न मिलना, मन हर लेना आदि मुहावरों की बानगी विलक्षण है।
सूक्तियों की दृष्टि से निम्नलिखित पद द्रष्टव्य है जिसमें विभिन्न ‘शाश्वत सत्यों’ को उपमान बनाकर, चंडी के युद्ध के भीषण प्रभाव का द्योतन कराया गया है चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प चंडी चरित्र के भाषा-शिल्प
भानु ते ज्यों तम पौन ते यौ घन मोर से यौं फनि त्यों सकुचाने।
सूर से कातर कूर से चातुर सिंह से सातर एण डराने।।
सूम से ज्यों यश व्योग ते ज्यों रस पूत कपूत ते वंश यौ हाने।
धर्म सु क्रुद्ध ते ज्यों भ्रम बुद्धि ते चण्डि के युद्ध ते दैत्य पराने।।146।।
“सूर्य के सामने अंधकार नहीं टिक सकता, पवन के सम्मुख बादल नहीं रहते, कायर शूरवीर के सामने नहीं ठहर सकता, सिंह और गीदड़ का क्या मुकाबला, कंजूस की कृपणता यश का लोप कर देती है, विरह-दु:ख आनंद को तिरोहित कर देता है, कपूत से धन-नाश निश्चित है, क्रोध से धर्म-नाश निश्चित है और सद्बुद्धि भ्रम का नाश कर देती है।।
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- ‘चंडी चरित्र’ का प्रतिपाद्य स्पष्ट कीजिए।
- चंडी चरित्र को आप भक्ति काव्य मानते हैं या ‘वीरकाव्य’?
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