जायसी का व्यक्तित्व :— मलिक मुहम्मद जायसी निर्गुण भक्ति काव्यधारा की प्रेमाश्रयी शाखा, जिसे सूफी काव्य के रूप में भी जाना जाता है, के प्रतिनिधि कवि हैं। जायसी के काव्य में सूफी आराधना के तत्व तथा लोक जीवन के विविध पक्षों से संबंधित अभिव्यक्तियाँ हैं। उनकी ‘अखरावत’ तथा ‘आखिरी कलाम’ साधना परक रचनाएँ हैं, जबकि ‘पद्मावत’ में साधना और लोक जीवन परस्पर एक-दूसरे से घुले-मिले हुए हैं। जायसी की भक्ति में प्रेम केंद्रीय तत्व हैं। ‘पद्मावत’ में पद्मावती ब्रह्म की प्रतीक है जबकि रत्नसेन साधक का ।
इस काव्य-ग्रंथ में में रत्नसेन का प्रमुख लक्ष्य पद्मावती की प्राप्ति है – अर्थात साधक द्वारा ब्रह्म को पाने का उद्योग इस काव्य में वर्णित है। लेकिन इस यात्रा में जायसी लोक जीवन के विभिन्न पक्षों को भी उकेरते हैं। ‘पद्मावत’ एक प्रबंधात्मक कृति है जिसमें अवधी के ठेठ रूप का इस्तेमाल जायसी ने किया है। आगे जायसी के काव्य के इन प्रमुख पक्षों की विस्तृत जानकारी दी जा रही है।
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जायसी का व्यक्तित्व और रचना-संसार
अन्य मध्यकालीन रचनाकारों की तरह जायसी के जीवन और व्यक्तित्व के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं है। जो जानकारी उपलब्ध है, वह भी पर्याप्त विवादग्रस्त है। कुछ जानकारी इनकी कविताओं से ही प्राप्त होती है। मलिक मुहम्मद जायसी में ‘मलिक‘ शब्द इनका कुलनाम बताया जाता है तथा जायसी ‘जायस’ में प्रवास के कारण नाम में आया । मुहम्मद नाम में कुलनाम और प्रवास के कारण आया शब्द जुड़ने से इनका नाम बना मलिक मुहम्मद जायसी।
जन्म तथा परिवार
जायसी के जन्म की तिथि के संदर्भ में भी मतभेद हैं। अंतःसाक्ष्यों का तर्कपूर्ण विश्लेषण करने से जायसी का जन्म-वर्ष 870 हिजरी (1464 ई.) और मृत्यु 949 हिजरी (1542 ई.) में मान सकते हैं। उनकी पंक्ति है, “भा औतार मोर नौ सदी।तीस बरिस ऊपर कवि बदी।।’ जन्म और मृत्यु के संदर्भ में जो बातें कहीं गयी हैं, उनका आधार वह पंक्ति ही है, पर तर्क और व्याख्या सबकी अलग है। ‘आखिरी कलाम’ में जायसी ने जायस के बारे में लिखा है :
जायस नगर मोर अस्थानू। नगर क नावँ आदि उदयानू ।
तहाँ दिवस उस पहुने आएउँ। मा बैराग बहुत सुख पाएऊँ।।
‘पद्मावत’ में भी उन्होंने लिखा है, “जायस नगर धरम अस्थानू। तहाँ आइ कवि कीन्ह बखानू।” अब इस बात पर भी अटकलें लगाई जाती हैं कि जायस जायसी का जन्म-स्थान है या ये जायस में कहीं से आकर बसे थे। ये अटकलें इसीलिए हैं, क्योंकि प्रामाणिक साक्ष्यों का अभाव है।
जायसी मलिक शेख ममरेज और मानिकपुर के शेख अलहदार की पुत्री की संतान बताए जाते हैं। यह जन प्रसिद्ध है कि जायसी बचपन में ही माता-पिता को खो चुके थे। साट तु फकीरों के साथ समय बिताया और कुछ समय अपने नाना के पास मानिकपुर भी रहे। यह भी बताया जाता है कि मृत्यु के समय जायसी अत्यंत वृद्ध और संतानहीन थे।
इनकी संतानहीनता को लेकर भी कई प्रकार के मत प्रचलित हैं। एक जनश्रुति के अनुसार इनके सात पुत्रों की अकाल मृत्यु छत गिरने से हुई थी। इसके पीछे गुरु का शाप बताया जाता है। कहा जाता है कि जायसी कुरूप थे। जायसी के बाएँ कान की श्रवणशक्ति जाती रही थी। ‘स्तुति खंड’ में आत्म परिचय देते हुए जायसी लिखते हैं :
एक नैन कबि मुहमद गुनी।
सोइ बिमोहा जेइँ कबि सुनी ।।
चाँद जइस जग बिधि औतारा।
दीन्ह कलंक कीन्ह उजिआरा ।।
जग सूझा एकइ नैनाहाँ।
उवा सूर अस नखतन्ह माहाँ ।।
एक जस दरपन और तेहि निरमल भाउ।
सब रूपवंत पाँव महि मुख जीवहिं कइ चाउ ।। ,
परंतु मुँह की कुरूपता देख कर हँसने वाले भी इनकी कविता सुन कर द्रवित हो उठते थे ‘जेई मुख देखा तेइँ हँसा सुना तो आए आँसु।।
जायसी शेरशाह सूरी के शासन-काल में थे। उन्होंने लिखा है, ‘सेरसाहि दिल्ली सुलतानू। चारिउ खंड तपइ जस भानू ।‘ पद्मावत के प्रारंभ में जायसी शेरशाह को आशीर्वाद भी देते हैं :
दीन असीस मुहम्मद करहु जुगहिं जुग राज ।
पातसाह तुम जग के जम तुम्हार मुहताज ।।
जायसी स्पष्टतः सूफी मत से संबंधित थे। परंतु इनके गुरु के संदर्भ में भी विद्वानों में एक राय नहीं है। कुछ लोग सैयद अशरफ जहाँगीर को इनका गुरु बताते हैं, तो कुछ लोग शेख मुहीउद्दीन को। पर ये दोनों जायसी के गुरु प्रतीत नहीं होते। कुछ लोग शाह मुबारक बोलदे और शाह कमाल को भी इनका गुरु बताते हैं। ‘चित्ररेखा’ की पंक्तियों का हवाला देकर कालपी वाले मुहीउद्दीन महँदी को जायसी का गुरु कहा गया है :
महँदी गुरु सेख बुरहानू ।
कालपि नगर तेहिंक अस्थानू ।।
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि जायसी के जीवन में विविधता थी। उनका जीवन सपाट-समतल मैदान नहीं था। इस जीवन के संदर्भ में कुछ संकेत भले मिलते हैं, पर उसके संदर्भ में कुछ भी स्पष्ट नहीं कहा जा सकता।
आचार्य रामचंद्र शुक्लने इनकी तीन पुस्तकों का उल्लेख किया है, ‘पद्मावत’, ‘अखरावत’ और ‘आखिरी कलाम’ । इसके अतिरिक्त कुछ अन्य पुस्तकों का उल्लेख भी इनके नाम पर मिलता है ‘चित्ररेखा’, ‘मसलानामा’, ‘कहरानामा’, “सखरावत’, ‘चंपावत’, ‘इतरावत’ आदि । परंतु इन रचनाओं की प्रामाणिकता असंदिग्ध नहीं है। वैसे जायसी की प्रसिद्धि का आधार ‘पद्मावत’ ही है। संक्षेप में इनकी तीन रचनाओं की जानकारी दी जा रही है। –
अखरावत
‘अखरावत’ को बहुत सारे विद्वान जायसी की आखिरी रचना मानते हैं। सैयद कल्बे मुस्तफा इनमें सबसे प्रमुख हैं और अन्य विद्वानों ने इनके मत को ही थोड़े हेर-फेर के साथ प्रस्तुत किया है। सैयद कल्बे मुस्तफा ने लिखा है, “अल्फाज का इंतिखाब, जुबान की रवानिगी, बंदिश की चुस्ती पता देती है कि यह नज्म शायर जायसी के दौरे-आखिर का नतीजा है।’ इसके बावजूद इसका सटीक रचनाकाल हमें ज्ञात नहीं होता।
‘अखरावत’ में वर्णमाला के एक-एक अक्षर को ध्यान में रख कर सैद्धांतिक विचार प्रस्तुत किए गए हैं। इस ग्रंथ का प्रारंभ जायसी ने सृष्टि की आदि शून्यावस्था से किया है। जब न गगन था, न धरती, सूर्य, चाँद । उस शून्य में करतार ने प्रथम पैगंबर मुहम्मद की ज्योति उत्पन्न थी.
गगन हुता नहिं महि हुती, हुते चंद नहिं सूर।
सेसई अंधकूप महँ रचा मुहम्मद नूर ।।
आखिरी कलाम
आखिरी कलाम’ की रचना, शाहे वक्त आदि के संदर्भ में जायसी ने खुद ही लिखा है। ‘शाहे वक्त’ के संदर्भ में लिखा है, ‘बाबर साह छत्रपति राजा। राजपाट उन कहं विधि साजा।।‘ रचना समय के संदर्भ में लिखा है, ‘नौ सौ बरस छतीस जो भये। तब एहि कथा के आखर कहे ।।’ अर्थात 936 हिजरी (1532 ई.) में बाबर के समय ‘आखिरी कलाम’ की रचना हुई। जायसी ने इस काव्य में मसनवी शैली के अनुरूप ईश्वर-स्तुति की है। नौ सदी में जन्म की बात कह कर उन्होंने भूकंप और सूर्यग्रहण की भी बात की है।
मुहम्मद साहब स्तुति, बाबर की प्रशस्ति, सैयद अशरफ की वंदना, जायस नगर का वर्णन आदि के बाद उन्होंने प्रलय का वर्णन किया है। आचार्य शुक्ल के अनुसार, “जायसी ने अपने ‘आखिरी कलाम’ को कुराण के अनुकरण पर ही बनाया है। प्रलय और अंतिम न्याय के दृश्य पूर्णत: इस्लाम सम्मत हैं। इस ग्रंथ में मुहम्मद साहब की महत्ता का विशिष्ट रूप से प्रतिपादन है।”
पद्मावत
जायसी की लोकप्रियता का मुख्य आधार ‘पद्मावत’ ही है। ‘पद्मावत’ की रचना समय के संदर्भ में उन्होंने लिखा है, ‘सन् नौ सै सैंतालिस अहै। कथा आरम्भ बैन कवि कहै।।’ इस तथ्य की व्याख्या विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग प्रस्तुत की है। कुछ विद्वानों ने 947 हिजरी (1540 ई.) में इस रचना का आरंभ होना बताया है किंतु इसका अर्थ आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस प्रकार किया है,“इसका अर्थ होता है पद्मावत की कथा के प्रारंभिक वचन, आरंभ बैन कवि ने सन् 927 हिजरी (सन् 1520 ई.) के लगभग में कहे थे।”
इस संदर्भ में यह भी ध्यान देना जरूरी है कि इस रचना में ‘शाहे वक्त’ के रूप में शेरशाह सूरी का जिक्र है, ‘सेरसाहि दिल्ली सुल्तानू । चारिउ खंड तपइ जस भानू ।।‘ शेरशाह दिल्ली की गद्दी पर 1540 ई. में बैठा था। इसीलिए ज्यादातर विद्वान 1540 ई. में ही ‘पद्मावत’ का आरंभ स्वीकार करते हैं।
‘पद्मावत’ के काव्यरूप को लेकर भी विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। नित्यानंद तिवारी जैसे विद्वान इसे रोमांचक आख्यान कहते हैं, तो कुछ विद्वान इसे आख्यान कहते हैं। आख्यान में इतिहास मिश्रित होता है। अधिकांश विद्वान इसे प्रबंध काव्य ही मानते हैं। ‘पद्मावत’ एक प्रेमाख्यान है, किंतु इसकी कथा शुद्ध काल्पनिक नहीं है। इसमें इतिहास के तत्व भमौजूद है। इसका अंतःसाक्ष्य पद्मावत में उपलब्ध है :
सन् नौ सै सैंतालिस अहा। कथा आरंभ बैन कवि कहा।।
सिंहलद्वीप पदमिनी रानी। रतनसेन चितउर गढ़ आनी।।
अलाउद्दीन देहली सुलतानू। राघव चेतन कीन्ह बखानू ।।
सुना साहि गढ़ छेकन आई। हिंदू तुरकन्ह भई लराई।।
आदि अंत जस गाथा अहै। लिखि भाखा चौपाई कहै।
इन पंक्तियों में जायसी ने कहा है कि आद्यंत जैसी कथा है, उसे ही वे ‘भाखाचौपाई’ में निबद्ध करके प्रस्तुत करते हैं। सिंहल द्वीप की पद्मिनी की कथा जायसी ने सुनाई है। यह कथा सिंहल द्वीप की रानी से लेकर हिंदू तुर्क लड़ाई तक विस्तृत है। तात्पर्य यह कि जायसी ने जो वृत्त ग्रहण किया है वह आदि से अंत तक एक ही गाथा है। यह लोककथा के निकट जान पड़ता है। संभवतः इसीलिए चंद्रबली पांडेय का दावा है कि ‘पद्मावत’ की कथा ‘रसपूर्ण और अत्यंत प्राचीन’ है। काव्यबद्ध करने का प्रथम श्रेय जायसी को है। इस कथन की पुष्टि के लिए चंद्रबली पांडेय ने निम्न पंक्तियों का सहारा लिया है :
कवि वियास कंवला रसपूरी। दूरि सो नियर नियर सो दूरी।।
नियरे दूर फूल जस काँटा। दूरि सो नियरे जस गुर चाँटा।।
अर्थात कवि इसके द्वारा यह व्यक्त करना चाहता है कि यहाँ एक से बढ़ कर एक कवि हुए हैं और यह कथा भी रस से भरी पड़ी है, फिर भी किसी कवि से न बन पड़ा कि इस कथा को काव्य का रूप दे। यह कार्य तो मुझ जैसे अहिंदू से बन पड़ा।
ध्यान से देखने पर इस कथा का कुछ हिस्सा तो ऐतिहासिक है, परंतु कुछ हिस्सों की ऐतिहासिकता खंडित भी है। यह लोक प्रचलित कथा के ऐतिहासिक संदर्भो के सम्मिश्रण से निर्मित हुआ है।
जायसी का परिवेश
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने मध्ययुगीन भक्ति आंदोलन को दो वर्गों में बाँटा है- निर्गुण भक्ति काव्यधारा और सगुण भक्ति काव्यधारा । फिर दोनों वर्गों के दो उपवर्ग बनाए। निर्गुण के उपवर्ग ज्ञानाश्रयी शाखा तथा प्रेमाश्रयी शाखा हैं, तो सगुण के उपवर्ग कृष्णभक्ति धारा और रामभक्ति धारा ।
मलिक मुहम्मद जायसी इस प्रेमाश्रयी धारा के कवि माने जाते हैं। यह ठीक बात है कि तुर्को-अफगानों के साथ हिंदुस्तान में मुस्लिम धर्मावलंबी शासक आए। इनके आने से देश में व्यापक संघर्ष का उदय हुआ और राजनीति तथा समाज दोनों हलकों में यह संघर्ष जारी था। हिंदुस्तान में इसके पहले भी विजेता बन कर अनेक जातियाँ (रस) आई थीं।
पर वे यहाँ न सिर्फ बसे, अपितु हिंदू संस्कृति और जाति में विलयित भी हो गए। इस्लाम इस रूप में पहला धर्म था, जो हिंदू धर्म में विलयित नहीं होता है। वह एक संगठित धर्म-समुदाय के रूप में भारत में स्वतंत्र रूप से अस्तित्वमान रहा। विभिन्न स्तर पर जारी दो-तीन सौ वर्षों के संघर्ष ने दोनों समुदायों के सम्मिश्रण की ऐतिहासिक आवश्यकता उत्पन्न की। इस ऐतिहासिक आवश्यकता के बीच प्रेमाश्रयी कवियों का आविर्भाव हुआ। इन कवियों में निस्संदेह जायसी सर्वश्रेष्ठ कवि थे।
कुछ विद्वान बताते हैं कि मलिक मुहम्मद जायसी एक ऐसे समय में हुए जब भारतीय समाज और जीवन में धार्मिक संघर्ष को सांस्कृतिक समन्वय में बदलने की आवश्यकता थी। जायसी आदि तमाम सूफी कवियों ने इस सांस्कृतिक समन्वय की प्रक्रिया को आरंभ किया, उसे एक विस्तृत भूमि तक पहुँचाया। मुल्ला दाउद की ‘चंदायन’ जायसी के पहले की रचना मानी गई है, कुतुबन की ‘मृगावती’ भी जायसी के थोड़े पहले की रचना है।
बावजूद इसके, कुतुबन जायसी के आसपास के ही रचनाकार हैं। जायसी में सांस्कृतिक समन्वय की प्रक्रियागत पूर्णता है, संवेदनात्मक संरचना उच्च भूमि तक पहुँची हुई है, भाषा अपने निर्बाध प्रवाह के साथ है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने साहित्य के इतिहास में जिसे भक्तिकाल कहा है, वह भारत में जनजागरण के विराट संदर्भो को भी निर्मित करता है। श्री रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी ‘संस्कृति के चार अध्याय’ और श्री रामविलास शर्मा ने अपनी विभिन्न पुस्तकों में जनजागरण के संदर्भो का उल्लेख किया है। भक्तिकालीन जनजागरण व्यापक रूप में लोकजागरण के रूप में स्वीकृत है। जनजागरण की प्रक्रिया तब शुरू होती है, जब वहाँ की बोलचाल की भाषा में साहित्य रचा जाने लगता है, जब जाति का निर्माण होने लगता है।
जाति यहाँ ‘कास्ट’ का अर्थ नहीं देती, वह नेशन’ अथवा ‘नेशनहुड’ को व्यंजित करती है। सूफी काव्य में सांस्कृतिक समन्वय की जिन चेष्टाओं को हम देख पाते हैं या भाषा के रूप में अवधी के जिस विकास को देखते हैं, उसने जाति, धर्म की कठोर दीवारों को सिरे से ध्वस्त भले न किया हो, पर शिथिल अवश्य किया। इसने ‘जाति’ के रूप में विकसित होने की संभावनाओं को तीव्र किया।
इस दृष्टि से सूफी काव्य का हिंदी साहित्य में अन्यतम स्थान है। यही वह समय है जब धार्मिक विश्वासों की रूढ़ टकराहट से ऊबा भारतीय जन, विभिन्न विचारों, व्यवहारों, विश्वासों के मध्य भक्ति के माध्यम से मनुष्य मात्र की सार्थकता की खोज करता है, उसकी एकता की खोज करता है। इसी समय हिंदू—मुस्लिम सभ्यताएँ सांस्कृतिक व्यवहार और जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में एक-दूसरे पर प्रभाव डालती हैं।
जायसी का व्यक्तित्व जायसी का व्यक्तित्व
इसी के थोड़े पहले कबीरदास हो चुके थे। उन्होंने हिंदू और मुसलमान दोनों संप्रदायों की धार्मिक कुरीतियों पर चोट की, उनके प्रतिनिधियों को फटकारा । इस क्रम में वे निरंतर नए रास्तों की खोज करते हैं और उस पर बढ़ते चलते हैं। जायसी या अन्य सूफी कवियों के यहाँ एक धक्के में सब कुछ समाप्त नहीं हो जाता। वे इस्लाम के प्रति आस्थावान बने रहते हैं। हिंदी सूफी काव्य इस्लाम के प्रति आस्थावान होकर भी मुख्य रूप से काव्य साहित्य ही है। काव्य में भी मुख्य रूप से प्रबंध काव्य ही।
यह एक ऐसी विशेषता है जो इसे फारसी सूफी काव्य से पृथक करती है। ईरान के सूफियों ने इस्लाम की सीमा में ही प्रेम को जाना था। पर हिंदी सूफी कवि इस्लाम की सीमा का अतिक्रमण करते हैं। इसका कारण मुख्यतः सांस्कृतिक सम्मिश्रण की प्रक्रिया है। भारत आने के बाद सूफी मत का संपर्क हिंदू विचार: पारा से हुआ।
जायसी का व्यक्तित्व जायसी का व्यक्तित्व
इससे सूफियों में कुछ नवीन भावों, विचारों का जन्म हुआ। इसके कारण ही ये सभी हिंदू जीवन में प्रचलित कहानियों को चुनते हैं। इन कवियों के यहाँ जीवन और भाषा का प्रवाह समाज से आया, तो उसकी दार्शनिकता इस्लाम से। जायसी जैसे कवि तो इस भेद को भी मिटाते से जान पड़ते हैं।
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