जा मुख हांसी लसी घनआनन्द कैसे | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद |
जा मुख हांसी लसी घनआनन्द कैसे सुहाति बसी तहां नासी |
ज्याय हितै हानियै न हितू हंसी बोसन की कित कीजत हांसी ||
पोखि रसै जिय सोखत क्यौं, गुन बांधि हू डारत दोष की |
पुरा सी हा सुजान अचम्भौ अयान जु भेदि के गांसहि बेधति गांसी ||३३ ||
जा मुख हांसी लसी
प्रसंग : यह पद्य कविवर घनानन्द की रचना ‘सुजानहित’ से लिया गया है। इसमें प्रिय के निष्ठुर हो जाने पर प्रेमी की पीड़ा और मनोव्यथा को चितारा गया है। पहले हँसाकर अब विरह बाण से मार रहे हो, इस प्रकार के पश्चाताप और उपालम्भ के भावों का चित्रण करते हुए इस पद्य में कवि कह रहा है
व्याख्या : कविवर घनानन्द कहते हैं कि कभी जिस मुख पर हंसी चमका करती या शोभा पाया करती थी, वहाँ अब मार डालने की अदा या आदत भला कैसे और किसको अच्छी लग सकती है। वहाँ तो अभी भी हँसी ही अच्छी लग सकती है, और कुछ नहीं।
जीवन देने के लिए जिस प्रेमी के साथ कभी हँस-हँस कर बोला करते थे, अब उसी जीवन को हानि पहुँचाने की नीयत से उस हँसी और प्रेम का मजाक मत उड़ाओ । प्रेमियों से ऐसा अनीतिपूर्ण व्यवहार अचछा नहीं माना जाता। पहले तो तुमने अपने प्रेम रस से पालन किया- अर्थात् प्रेम देकर मन बढ़ाया।
अब विपरीत आचरण व्यवहार करके प्रेमी के जीवन का रस इस प्रकार शोष्जित क्यों कर रहे हो । हे प्रिय सुजान, कितनी विचित्र बात है कि पहले तो अपने सौन्दर्य – प्रेम के गुण से मुझे बाँध लिया अर्थात् अपने प्रेम के बंधन में डाल दिया, अब उसी प्रेम-बन्धर को मेरे गले में पड़ी पाँसी बना रहे हो। अर्थात् प्रेम से इन्कार करके मेरे प्राण तक हर लेना चाहते हो ।
हाय-हाय प्रिय सुजान ! कितना आश्चर्य है कि प्रेम की जिस गाँठ को काटना चाहते थे, उसी गाँठ की नोंक मेरे गले में चुभकर मेरा दम घोंट रही है, इसका तुम्हें तनिक ध्यान नहीं। अर्थात् तुम्हारे प्रेम की गाँठ अब प्राण रहते नहीं खुल सकती। अतः मैं हाय खाकर कहता हूँ कि तुम निष्ठुरता त्याग कर पूर्व प्रेम-रस की रक्षा करो।
विशेष
1. विपरीत स्थितियों को उजागर करके विरही प्रेमी के मन की व्यथा को और प्रेमिका की बेवफाई को सजीव – साकार चितारा गया हैं। विपरीत लक्षणा का स्वरूप और भाव स्पष्ट है।
2. पद्य में विषम, विरोध, प्रश्न और अनुप्रास के साथ-साथ वीप्सा अलंकार भी है।
3. भाषा भावानुरूपिणी प्रसाद गुणात्मक ओर प्रवाहमयी है।
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