जीने की कला निबंध का प्रतिपाद्य :– महादेवी वर्मा - Rajasthan Result

जीने की कला निबंध का प्रतिपाद्य :– महादेवी वर्मा

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जीने की कला निबंध को पढ़ने के बाद यह समझ लिया होगा कि महादेवी वर्मा ने इसमें क्या संग्रह में महादेवी ने नारी समस्या के अनेक पहलुओं पर विस्तार से विचार किया है। प्रस्तुत निबंध में जीने की कला को केंद्र में रखकर भारतीय नारी की दुर्दशा के मूलभूत कारणों को अत्यंत तर्कसंगत ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।

जीने की कला निबंध

इस निबंध में सबसे पहले महादेवी जी ने जीने की कला के लिए जीवन के उच्च सिद्धांतों और उनके सही व्यवहार को अनिवार्य सिद्ध किया है। ये दोनों एक-दूसरे पर पूर्णतः निर्भर हैं। व्यवहार-विहीन सिद्धांतों का बोझ ढोने वाला मनुष्य उस पशु के समान है, जिसे बिना जाने ही शास्त्रों और धर्मग्रंथों का भारवाहक बनना पड़ता है।

 

उनकी स्पष्ट मान्यता है कि सत्य, अहिंसा, क्षमा आदि मानवी गुणों को हम सिद्धांत रूप में जानकर भी न समाज का उपकार कर सकते हैं और न ही अपना भला। परिस्थिति, स्थान, काल-विशेष में इनके वास्तविक अर्थ और यथार्थ को समझकर ही हम इन्हें उपयोगी और मानवीय बना सकते हैं। एक निर्दोष व्यक्ति के प्राणों की रक्षा के लिए बोला गया असत्य और की गई हिंसा सत्य और अहिंसा से श्रेष्ठ माना जाएगा।

इसी तरह एक क्रूर अत्याचारी को क्षमा करने वाले क्रोधजित (क्रोध पर काबू पाने वाले) से दण्ड देने वाला क्रोधी लोगों के लिए आदर्श बन सकता है। सिद्धांतों की जितनी भारी गठरी लेकर हम कर्म-क्षेत्र के द्वार पर पहुँचते हैं, शायद ही दुनिया के किसी अन्य देश के व्यक्ति को उतना भारी बोझ लेकर कर्म-क्षेत्र में पहुंचना पड़ता हो।

लेकिन कार्य-क्षेत्र में हम सबसे अधिक निष्क्रिय सिद्ध हुए हैं। क्योंकि हम अपने सिद्धांतों को सदुपयोग से बचाकर उसी प्रकार सुरक्षित रखने में ही सिद्धि मान लेते हैं, जिस प्रकार एक कंजूस अपने धन को व्यय से बचाकर रखने में ही अपनी सफलता मान लेता है।

यहाँ आप यह न समझ लें कि इस निबंध में सिद्धांतों का विरोध किया गया है। इस संबंध में महादेवी की स्पष्ट मान्यता है कि जीवन के सिद्धांत जीवनयापन के मार्ग-निर्देशक आदर्श हैं, उनके प्रकाश में ही हम जीवन का सही लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन हमने जीवन को उचित कार्य से विमुख कर उसके व्यवस्थापक नियमों या सिद्धांतों को ही अपने पैर की बेड़ियाँ बना ली।

फलस्वरूप लक्ष्य तक पहुँचने की इच्छा भी भूल गए। इस प्रकार निबंध लेखिका ने अत्यंत प्रभावशाली ढंग से प्रतिपादित किया है कि समूचे देश में जीने की कला न जानने का अभिशाप व्याप्त है। लेकिन स्त्रियों ने इस अभिशाप के कारण जो घोर पीड़ा सही है, उसे सहकर भी जीवित रहने पर अभिमान करने वाला कोई विरला ही होगा।

यहाँ तक के अंश को निबंध की भूमिका या पृष्ठभूमि कहा जा सकता है। इसके बाद निबंधकार ने भारतीय नारी की दुर्दशा के सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक-धार्मिक कारणों को विस्तार से विवेचित-विश्लेषित किया है।

भारतीय नारी के शोषण की समस्या पर विचार करते हुए महादेवी जी ने यह स्वीकार किया है कि उसमें वे सभी गुण विद्यमान हैं, जिनसे किसी अन्य देश की नारी देवी बन सकती है। उसमें सहन-शक्ति, त्याग, आत्म-बलिदान, पवित्रता आदि की पराकाष्ठा दिखायी देती है, जिसका अत्यंत भाव-विह्वल ढंग से लेखिका ने प्रतिपादन किया है। अपने इन गुणों के कारण भारतीय नारी में हमारी संस्कृति का वह कोष सुरक्षित है।

जिसकी रक्षा किसी अन्य के द्वारा संभव नहीं थी। आज भी वह त्यागमयी माता, पतिव्रता पत्नी, स्नेहमयी बहन और आज्ञाकारिणी पुत्री है; जबकि अत्यंत विकसित देशों की स्त्रियाँ अपने भौतिक सुखों के लोभ में अपनी युगों पुरानी संस्कृति का परित्याग कर चुकी हैं। भारतीय नारी को त्याग, बलिदान और स्नेह के नाम पर सब कुछ न्योछावर करना आता है, लेकिन जीने की कला ही नहीं आती, जो इन अलौकिक गुणों को सार्थक और सजीव करती है।

बाल-विवाह और विधवा-समस्या पर अत्यंत भावुक ढंग से विचार करते हुए महादेवी जी ने नारी का एक अत्यंत करुण चित्र प्रस्तुत किया है। हिंदू गृहस्थ की दुधमुंही बालिका से शापमयी युवती में परिवर्तित होती हुई विधवा’ एक अज्ञात व्यक्ति के लिए अपने हृदय की तमाम इच्छाओं को निर्ममतापूर्वक कुचल देती है। सतीत्व और संयम के नाम पर तमाम सारी यंत्रणाएँ झेलते हुए भी वह दूसरों के अमंगल के भय से दो बूंद आँसू और आह भी नहीं निकाल सकती।

भारतीय आचार संहिता में नारी के लिए अत्यंत उच्च आदर्श और सिद्धांत प्रतिष्ठित हैं। व्यवहार में इनकी हास्यास्पदता को सिद्ध करते हुए महादेवी जी ने लिखा है कि एक ओर उसे अर्धांगिनी (पुरुष का आधा अंग) के उपहास का भार ढोना पड़ता है तो दूसरी ओर सीता-सावित्री के अलौकिक तथा पवित्र आदर्श से उसे दबा दिया जाता है।

इन उच्चादर्शों से दबी-कुचली वह एक खरीदी गई सेविका की भाँति अपने शराबी, दुराचारी तथा जानवर से भी नीचे गिरे स्वामी (पति) की सेवा में लगी रहती है। पति के अमानुषिक दुर्व्यवहार को सहन करने के बावजूद देवताओं से अगले जन्म में भी उसी का संग पाने का वरदान मांगने वाली पत्नी सभी को आश्चर्य में डाल देती है। पिता के एक इशारे पर अपने सारे रंगीन स्वप्नों को दफनाकर बिना आह भरे अयोग्य-से-अयोग्य पुरुष की पत्नी बनने को तैयार पुत्री नारी जीवन के अभिशाप को साकार करती है।

पिता की सम्पत्ति और वैभव का उपभोग करने वाले भाई की कलाई पर राखी बांधने वाली दरिद्र बहन का स्नेह देखकर चकित रह जाना पड़ता है। दायित्वहीन अपने अनेक पुत्रों द्वारा उपेक्षित और निरादृत माँ का चोट खाया हुआ हृदय जब पुत्रों की कल्याण-कामना करता है तो स्त्री-स्वभाव की गरिमा साकार हो जाती है। लेकिन स्त्री सुलभ इन सारे गुणों पर महादेवी जी ने प्रश्न-चिह्न भी लगा दिया है।

उनके अनुसार त्याग, सहनशीलता, निःस्वार्थ स्नेह, साहस आदि गुणों का तब तक कोई मूल्य नहीं है, जब तक इनके साथ विवेक, सजीवता और सार्थकता का भाव नहीं जुड़ जाता। इन सारे गुणों से सम्पन्न नारी को निबंध लेखिका ने ‘शव’ की संज्ञा दी है।

आपके मन में नारी को ‘शव’ की संज्ञा देने से लेखिका के अन्याय की बात उठ सकती है। लेकिन ऐसी बात है नहीं। यहाँ महादेवी जी की आक्रोशपूर्ण सहानुभूति ही प्रकट हुई है। शव अपमान का विरोध नहीं कर सकता, किसी भी आघात को वह शांति से सह सकता है, उसे चाहे जल में फेंक दें या चिता पर जला दें, वह आह नहीं भरेगा और उसकी खुली आँखों में न आँसू आएगा और न ही उसके शरीर में कंपन होगा।

लेखिका ने नारी की इन कमजोरियों के कारण उसे निस्पंद शव कहा है। वे उसकी निष्क्रियता की प्रशंसा करने में अपने को असमर्थ पाती हैं। क्योंकि अपनी सहनशीलता, त्याग और बलिदान की प्रशंसा सुनते-सुनते वह इसे अपने धर्म का अंग मान बैठी है। लेखिका इस जड़ता से उसकी मुक्ति चाहती है।

जीने की कला निबंध में महादेवी जी ने नारी की दुर्दशा के लिए उसकी स्वयं की कमजोरियों की अपेक्षा पुरुष प्रधान समाज के हथकण्डों को अधिक उत्तरदायी ठहराया है। हिंदू समाज ने अपनी प्राचीन गौरव-गाथा का उसे प्रदर्शन मात्र बनाकर रख दिया है। स्त्री को मूक और असहाय रूप से इस गौरव के भार को वहन करना पड़ रहा है।

पूँजीवादी समाज में धन की प्रभुता उसके लिए जितनी घातक सिद्ध हुई, धर्म और अधिकार की प्रभुता भी उसके लिए उतनी ही घातक, पीड़ादायक सिद्ध हुई है। समाज में धनार्जन का दायित्व मिल जाने से पुरुष को पूँजीपतित्व अपने आप प्राप्त हो गया, सम्पत्ति की अधिक शक्ति के कारण अधिकार भी उसे सहज रूप से मिल गया।

शास्त्र और दूसरे सभी प्रकार के सामाजिक नियमों का निर्माता होने के कारण वह स्वयं को अधिक-से-अधिक स्वतंत्र और स्त्री को कठिन-से-कठिन बंधन में रखने में समर्थ हो गया। सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक उपकरणों से निर्मित पुरुष प्रधान व्यवस्था का यह तंत्र इतना ठोस और कारगर साबित हुआ कि उसमें ढलकर स्त्री केवल दासी या सेविका के रूप में ही निकलने लगी।

अपने अपमान के प्रति विद्रोह तो क्या, अपनी दशा के विषय में प्रश्न करना भी उसके लिए जीवन में यातना और मृत्यु के बाद नरक मिलने का साधन मान लिया गया। आज के वैज्ञानिक और यंत्र-युग में दासता के इस पुराने किंतु दृढ़ यंत्र के निर्माण-कौशल पर महादेवी ने आश्चर्य प्रकट करते हुए लिखा है कि ‘इसमें मूक यंत्रणा सहने वाला व्यक्ति ही सहायता देने वाले के कार्य में बाधा डालता रहा है।’

यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि अपनी संस्कारग्रस्तता, रूढ़िवादिता और अज्ञान के कारण नारी-मुक्ति का विरोध स्वयं नारियाँ ही कर रही हैं। बालविवाह, पुनर्विवाह, विधवा-विवाह के संदर्भ में इसके अनेक उदाहरण मिल सकते हैं।

बाल्यावस्था से ही लड़की अपने आपको पराये घर की वस्तु मानने लगती है, जिसमें न जाने की इच्छा भी उसके लिए पाप है। महादेवी जी ने इस तथ्य को विशेष रूप से रेखांकित किया है कि विवाह के व्यवसाय में लड़की की इच्छा और उसकी योग्यता का कोई स्वतंत्र मूल्य नहीं है। उसका सारा कौशल पति के प्रदर्शन तथा गर्व की वस्तु बन जाता है। उसके सारे गुण उसे अपने-आपको पति की इच्छानुकूल बनाने के लिए ही आवश्यक हैं।

दूसरों के कल्याण-कार्यों के लिए नहीं। जिस गृह को बचपन से उसका गृह माना जाता है, वहाँ उसे अन्न-वस्त्र के अतिरिक्त कोई अन्य अधिकार प्राप्त नहीं होता। जिस पति के लिए उसका जीवन समर्पित होता है, उस पति के जीवन पर भी यदि उसका कुछ स्वत्व होता तो नारी की दासता में भी प्रभुता का सुख प्रवाहित होने लगता।

निबंध के अंत में महादेवी जी ने ‘जीने की कला’ की समस्या का कोई सीधा समाधान तो नहीं दिया लेकिन इसके प्रति विश्वास व्यक्त किया है। इस संबंध में उनकी स्पष्ट मान्यता है कि अपने स्वार्थ के कारण पुरुष समाज का कलंक है और नारी अपनी अज्ञानमय सहिष्णुता के कारण पाषाण की तरह उपेक्षणीय।

दोनों के मनुषत्व-युक्त मनुष्य हो जाने पर ही जीने की नारी को रूप अत वस्तु का न पुत्री के रूप में अधिकार है, न माता के रूप में, न पत्नी के रूप में और न बहन के में । में ही। विधवा के रूप में तो उसकी जो दारुण स्थिति है, वह अवर्णनीय है।  उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि महादेवी के इस निबंध में उनके नारी विषयक सामाजिक चिंतन और विचारों की प्रधानता है।

यह भी पढ़े :–

  1. महादेवी वर्मा का जीवन परिचय ||
  2. उसने कहा था कहानी की समीक्षा कहानी के तत्वों के आधार पर कीजिए ||
  3. उसने कहा था कहानी के आधार पर लहना सिंह का चरित्र चित्रण कीजिए ||

 

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