जी पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको । कविता की सन्दर्भ सहित व्याख्या | भवानी प्रसाद मिश्र |
जी पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको
पर पीछे-पीछे अक्ल जगी मुझको
जी, लोगों ने तो बेच दिये ईमान ।
जी, आप न हों सुनकर ज्यादा हैरान ।
मैं सोच-समझकर आखिर अपने गीत बेचता हूँ
जी हाँ, हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ।
यह गीत सुबह का है, गाकर देखें यह गीत ग़ज़ब का है,
ढाकर देखें; यह गीत जरा सुने में लिक्खा था,
यह गीत वहाँ पूने में लिक्खा था,
यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है,
यह गीत बढ़ाये से बढ़ जाता है,
यह गीत भूख और प्यास भागता है,
जी, वह मसान में भूत जगाता है,
यह गीत भुवाली की है हवा हुजूर
यह गीत तपेदिक की है दवा हुजूर
मैं सीधे-सादे और अटपटे गीत बेचता हूँ
जी हाँ, हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ।
जी पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको
प्रसंग : “गीत फरोश” कविता भवानी प्रसाद मिश्र के काव्य व्यक्तित्व को परिभाषित करती है। जीवन की जटिल स्थितियों के कारण कविकर्म कंठिन होता गया। पूँजीवादी व्यवसायी युग में हर चीज बिकाऊ हो गई। तीखे व्यंग्य का महत्वपूर्ण उदाहरण इस कविता में यह स्थिति है कि कवि को जीने के लिए गीत बेचने वाला बन जाना पड़ा। ऐसी हालत के कारण यह कविता कला और समाज दोनों पर व्यंग्य है।
व्याख्या : कवि अपनी मनोव्यथा को व्यक्त करता हुआ कहता है कि शुरू-शुरू में तो मुझे गीत बेचने में बेहद लज्जा का अनुभव हुआ। मुझे बराबर लगता रहा कि कोई अपने अन्तर्जगत के संवेदनानुभवों को भी क्या बेच सकता है? कविता तो आत्मदान की वस्तु है, वह व्यापार या नफा कमाने की चीज़ नहीं।
उसे बाजार की वस्तु बनाना उसके मूल्य को गिराना है। किन्तु कुछ दिन बाद मुझे अक्ल आई कि इस देश में लोग अपना ईमान या चरित्र बेच रहे हैं। उन्हें किसी भी बुरे काम पर पश्चाताप नहीं होता है। इर बार गलत काम पर लोग आदर्श का बर्क चढ़ा देते हैं और पैसा कमाने के नाम पर अन्धे होकर कुछ भी कर सकते हैं।
देश में मूल्यों का यह अन्धापन सब जगह व्याप्त हो गया है। इसलिए जो लोग ईमान बेचने की बात सुनकर हैरानी जताते हैं या आश्चर्य करने का नाटक करते हैं – उनकी कलई खुल गई है। अब मैं इस व्यक्तिवादी-भोगवादी समाज की नब्ज पहचान चुका हूँ। मुझे पता है कि गीत बेचना बुरा नहीं है। खूब सोच-समझ कर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि गीत बेचकर यदि जीवन यापन हो सके तो हर्ज क्या है?
विशेष
1. कविता में मूल व्यंग्य उस पूँजीवादी-सामन्तवादी व्यवस्था पर है जिसमें “लोगों ने तो बेच दिए ईमान” की हालत पहुँच चुकी है। देश-भक्ति, मानव-सेवा का उपदेश देने वाले लोग देश को लूट रहे हैं।
2. रचना कर्म में प्रवृत्त होने वाला रचनाकार क्या करे जब चारों ओर मूल्यान्धता फैली हो । विवश होकर उसे व कला को बाजार देना पड़ता है।
3. कवि का गांधी विचार-दर्शन अपने समय की विसंगति और विडम्बना पर निर्भयता से ‘बेच दिए ईमान’ का दर्द कह देता है। पूरी स्थिति का यह भयावह बिंब है।
4. ईमान बेचने का अर्थ सन्दर्भ भारतेन्दु के नाटक के ‘जातवाला’ की याद दिलाता है, जो टके के लिए जात बेचने को तैयार है। आर्थिक मूल्यों की प्रधानता वाले समाज में हर वस्तु बिकाऊ हो जाती है क्यों? भवानी भाई और भारतेन्दु की चिंता इस विचार-बिन्दु पर एक हो गई है।
5. आधुनिक समाज की विषम स्थितियों पर यह कविता सटीक टिप्पणी करती है। भारतेन्दु के नाटक “अंधेर नगरी” में चूरन और चने बेचने वालों के लटकों और बोलियों का सर्जनात्मक उपयोग है। “गीत फरोश” में दवा, मेवा, ईमान फरोशों की बोली, लहजे. और लटकों को कविता में डाल दिया गया है।
6. प्रयोग के स्तर पर कवि ने बोलचाल की शब्दावली से भी ज्यादा बोली के लहजे को चुना है। जी पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको जी पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको जी पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको जी पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको जी पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको जी पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको
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