जूठन आत्मकथा का सारांश | ओमप्रकाश वाल्मीकि |

जूठन आत्मकथा का सारांश | ओमप्रकाश वाल्मीकि |

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जूठन आत्मकथा का सारांश :– आत्मकथा के एक छोटे और आरंभिक अंश का आपने अध्ययन किया है। पिछली इकाइयों में जिस तरह आपने कहानी और निबंध के सार का अध्ययन किया है, वैसा यहाँ नहीं मिलेगा। एक होनहार व्यक्ति के पाँचवीं कक्षा तक की परीक्षा पास करने तक की ही चर्चा इस छोटे से अंश में हो सकी है। लेकिन इसके माध्यम से भी कई महत्वपूर्ण तथ्य रेखांकित हुए हैं। सबसे पहले लेखक ने बरला गाँव के वातावरण और उसकी चौहद्यी का चित्र प्रस्तुत किया है, जो संपूर्ण भारतीय गाँवों की स्थिति को स्पष्ट करता है।

जूठन आत्मकथा का सारांश

वर्ण व्यवस्था पर आधारित इस ग्राम-व्यवस्था में भंगियों, चमारों, धोबियों, कुम्हारों तथा अनेक अछूत जाति के लोगों को उच्च समझी जाने वाली जातियों से अलग-थलग और थोड़ी दूरी पर गंदी बस्तियों में अत्यंत कठोर परिस्थितियों में जीवन बिताने के लिए विवश किया जाता है।

इसका एक जीताजागता और एक गलाजत भरा चित्र उपस्थित करने के बाद लेखक ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा है कि ‘बस यह था वह वातावरण जिसमें बचपन बीता। इस माहौल में यदि वर्ण-व्यवस्था को आदर्श-व्यवस्था कहने वालों को दो-चार दिन रहना पड़ जाए तो उनकी राय बदल जाएगी।’ यह टिप्पणी लेखक की जीवन-दृष्टि को संकेतित करती है, जो पूरी आत्मकथा में स्थान-स्थान पर अत्यंत तीव्रता और आक्रोश के साथ व्यक्त हुई है।

गाँव का पूरा खाका प्रस्तुत करने के बाद लेखक ने अपनी जाति (चूहड़ा या भंगी) के प्रति ऊँची जाति, विशेष कर त्यागियों के दुर्व्यवहार की भी चर्चा की है। बेगार, गाली-गलौज और घोर प्रताड़ना के साथ ‘ओ चूहड़े’, ‘अबे चूहड़े’ जैसे संबोधन का जिक्र करते हुए लेखक ने बताया है कि उनकी ज़िंदगी कुत्ते-बिल्ली जैसे जानवरों से भी बदतर बना दी गई थी।

चूहड़े का स्पर्श भी पाप समझा जाता था। उस समय देश को आज़ादी मिले आठ साल हो गए थे। सर्वत्र गांधी जी के अछूतोद्धार की प्रति-ध्वनि सुनाई पड़ती थी।

कानूनी तौर पर सरकारी स्कूलों के द्वार अछूतों के लिए खोल दिए गए थे। लेकिन जनसामान्य की मानसिकता अभी पहले जैसी ही बनी हुई थी। इसलिए स्कूल में प्रवेश पाने की कठिनाई के कारण लेखक को पढ़ने-लिखने के लिए उसके पिता ने सेवाराम मसीही की शरण में भेजा। वहाँ से भी किसी खटपट के कारण उसे अलग होना पड़ा। बड़ी मुश्किल से सरकारी स्कूल में उसे दाखिला मिल सका।

वहाँ अध्यापकों से लेकर ऊँची जाति के विद्यार्थियों द्वारा उसे जिस प्रकार से प्रताड़ित किया जाता था, उसे देखकर रोंगटे खड़े हो जाते थे। हेडमास्टर कलीराम लेखक को पढ़ाई से अलग कर स्कूल के अंदर और बाहर की सफाई का भार सौंप देते थे।

इससे इनकार करने पर उसे स्कूल से निकाल दिया जाता है। अपने पिता के प्रोत्साहनपूर्ण साहस के सहारे वह सारी यातनाओं को झेलकर भी पाँचवीं की परीक्षा पास कर लेता है। अपनी शिक्षा-दीक्षा की अमानवीय परिस्थितियों के साथ ही लेखक ने बुवाई बड़ी जातियों के घरों और पशुशालाओं की सफाई के बदले मिलने वाली अधिक गाली और कम मज़दूरी को बड़े मार्मिक ढंग से दर्शाया है।

आत्मकथा के निर्धारित अंश के अंत में लेखक ने जूठन की अमानवीय प्रथा का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया है। शादी-ब्याह के मौकों पर जब मेहमान और बाराती खाना खा रहे होते हैं तो चूहड़े दरवाज़ों के बाहर बड़ेबड़े टोकरे लेकर बैठे रहते हैं। खाने की समाप्ति के बाद जूठी पत्तलें उनके टोकरों में डाल दी जाती है, जिन्हें घर ले जाकर वे जूठन इकट्ठी करके कुछ खा लेते हैं और शेष भविष्य के लिए सुखाकर सुरक्षित रख लेते हैं।

सुखदेव सिंह की लड़की की शादी पर जूठन की आस में ही लेखक के माँ-बाप और भाई-बहनों ने एक पखवाड़े तक उनके यहाँ रात-दिन बेगारी की थी। इसका जिक्र करते हुए लेखक ने लिखा है, ‘बारात खाना खा रही थी। माँ टोकरा लिए दरवाज़े के पास बैठी थी। मैं और मेरी छोटी बहन माया माँ से सिमटे बैठे थे।

इस उम्मीद में कि भीतर से जो मिठाई और पकवानों की महक आ रही थी, वह हमें भी खाने को मिलेगी।’ भोजन की समाप्ति के बाद जब चौधरी सुखदेव सिंह दिखाई दिए तो उसकी माँ ने कहा – चौधरी जी एक पत्तल में कुछ डालकर हमारे बच्चों को दे दो। वे भी तो इसी दिन का इंतज़ार कर रहे थे। इसपर चौधरी सुखदेव सिंह ने टोकरे की ओर इशारा करके कहा कि ‘टोकरा भर जूठन ले जा रही है…ऊपर से जाकतों (बच्चों) के लिए खाणा माँग री है?

अपनी औकात में रह चूहड़ी। उठा टोकरा…..और चलती बन।’ माँ ने इस अपमान का प्रतिकार करते हुए टोकरा वहीं बिखेर दिया और सुखदेव सिंह से कहा कि उसे उठाकर अपने घर में रख लो और सुबह बारातियों को नाश्ते में खिला देना। यह सुनकर सुखदेव सिंह माँ पर झपटा लेकिन शेरनी की तरह माँ ने उसका सामना किया।

इस घटना के बाद लेखक के परिवार से जूठन का सिलसिला समाप्त हो गया। वस्तुतः इस घटना के कारण ही लेखक ने आत्मकथा को ‘जूठन’ शीर्षक दिया है, जो इसकी अंतर्वस्तु के साथ ही उसके प्रतिपाद्य को भी रेखांकित करता है। उच्च और सम्मानित पद पर नौकरी प्राप्त करने के पच्चीस-तीस वर्ष बाद सुखदेव सिंह अपने पोते को लेखक के घर भेजता है, किसी इंटरव्यू के सिलसिले में और स्वयं उसके घर जाकर सम्मानपूर्वक भोजन करता है।

इस प्रकार ‘जूठन’ शीर्षक आत्मकथा की समूची अंतर्वस्तु का संकेत निर्धारित अंश से मिल जाता है।

फसलों की कटाई

‘जूठन’ में आत्मकथाकार के जीवन की बहुत सारी घटनाएँ, उसके विद्यार्थी जीवन से लेकर नौकरी पेशे में रहते हुए इतने सारे अनुभव हैं, जिन्हें जाने-बूझे बिना दलित समस्या की गंभीरता और सामाजिक महत्व को नहीं समझा जा सकता। ऐसी कुछ घटनाओं का उल्लेख आपके लिए उपयोगी हो सकता है।

उदाहरण के लिए, पाँचवीं के बाद के स्कूल-जीवन की एक घटना को लिया जा सकता है। कक्षा में अध्यापक मनोयोगपूर्वक द्रोणाचार्य का पाठ पढ़ा रहे थे। उनकी गरीबी का मार्मिक चित्रण करते हुए उन्होंने द्रोणाचार्य द्वारा अपने पुत्र अश्वत्थामा को भूख से तड़पते हुए देख पानी में आटा घोल कर पिलाने की घटना का जिक्र कर सभी विद्यार्थियों को करुणाभिभूत कर दिया।

इस पर किशोर लेखक ने प्रश्न किया कि ‘अश्वत्थामा को दूध की जगह आटे का घोल पिलाया गया और हमें चावल का माँड। फिर किसी भी महाकाव्य में हमारा जिक्र क्यों नहीं आया?’ इस प्रश्न से क्रुद्ध अध्यापक ने अपने उत्तर में उसे मुर्गा बनाकर शीशम की छड़ी से प्रहार करते हुए कहा कि ‘चूहड़े के, तू द्रोणाचार्य से बराबरी करे है……ले तेरे ऊपर मैं महाकाव्य लिलूँगा….

उसने ‘मेरी पीठ पर सटाक-सटाक छड़ी से महाकाव्य रंग दिया था। यह महाकाव्य आज भी मेरी पीठ पर अंकित है। भूख और असहाय जीवन के क्षणों में सामंती सोच का यह महाकाव्य मेरी पीठ पर ही नहीं, मेरे मस्तिष्क के रेशे-रेशे पर अंकित है।’

अपने विद्यार्थी जीवन में ही लेखक का अम्बेडकर साहित्य से परिचय हुआ। इसके बाद गांधी जी के अछूतोद्धार और उनकी उदारता के प्रति भी उसमें संदेह जागृत हुआ। इसकी चर्चा करते हुए उसने लिखा है, गांधी जी ने “हरिजन” नाम देकर अछूतों को राष्ट्रीय धारा से नहीं जोड़ा, बल्कि हिंदुओं को अल्पसंख्यक होने से बचाया। उनके हितों की रक्षा की।’

महाराष्ट्र के अंबरनाथ और चन्द्रपुर में अपने ट्रेनिंग और सेवाकाल में ओमप्रकाश वाल्मीकि के मराठी दलित साहित्य और उसके महत्वपूर्ण रचनाकारों से परिचय ने उन्हें नई चेतना प्रदान की। इसके बीज उनके देहरादून के कॉलेज जीवन में ही अंकुरित हो चुके थे। इसी का परिणाम ‘जूठन’ शीर्षक उनकी आत्मकथा है।

अपनी कहानियों, कविताओं, आलोचनात्मक टिप्पणियों के माध्यम से वे दलित साहित्य को हिंदी साहित्य की मुख्य धारा में सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए निरंतर कार्यरत हैं। इस संदर्भ में ही उनकी आत्मकथा की अंतर्वस्तु और उसके प्रतिपाद्य का सही ढंग से मूल्यांकन किया जा सकता है।

जूठन आत्मकथा की भाषा

आत्मकथा की भाषा में भी वे सारी विशेषताएँ आ जाती हैं, जो कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध आदि विधाओं के लिए निर्धारित की गई हैं। परिवेश और वातावरण, पात्रानुकूलता, भावानुकूलता, विषयानुकूलता, पात्रों के संवाद आदि ऐसे तत्व हैं, जो आत्मकथा में भी उपेक्षणीय नहीं हैं। यह आत्मकथाकार पर निर्भर करता है कि वह भाषा के किस स्वरूप का कब और कैसे इस्तेमाल करे। जूठन आत्मकथा का सारांश

यह भी संभव है कि आत्मकथा लेखक अपनी निश्चित और स्तरीय परिनिष्ठित भाषा का ही शुरू से अंत तक प्रयोग करे। लेकिन ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भाषा के संबंध में वातावरण, परिवेश और पात्रानुकूलता के साथ ही अपनी निश्चित भाषा के भी कुशल प्रयोग का परिचय दिया है।

अपने गाँव के वातावरण के चित्रण में वाल्मीकि ने घेर (पुरुषों की बैठक और पशुशाला), तगा (त्यागी जाति), चूहड़ा (भंगी), बगड़ (बस्ती), जोहड़ी (बावड़ी) आदि ठेठ स्थानीय बोली के शब्दों का प्रयोग किया है। अपने बचपन से लेकर स्कूली जीवन के चित्रण में उन्होंने विभिन्न पात्रों के संवादों की भाषा को भी ज्यों-का-त्यों आंचलिक लहजे में प्रस्तुत किया है। गाँव के त्यागियों की प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए, त्यागियों की सामंती मानसिकता के चित्रण में लेखक ने उनके कथनों को ज्यों-का-त्यों प्रस्तुत किया है।

‘कौवा बी (भी) कबी (कभी) हंस बण सके,’ ‘अरे’! चूहड़े के जाकत (बच्चा, बेटा) कू (को) झाडू लगाणे कू . कह दिया तो कोण सा जुल्म हो गया!’ इससे ग्रामीण परिवेश और अभिजात मानसिकता दोनों का समुचित प्रभावांकन हुआ है। इस तरह के कई प्रसंगों में लेखक. ने बोली के स्थानीय रूप का अविकल प्रयोग कर स्थिति को जीवंत बनाया है।

सुखदेव सिंह त्यागी और अपनी माँ के बीच होने वाली नोंक-झोंक को लेखक ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है – ‘चौधरी जी, ईब (अब) तो सब खाणा खाके चले गए…म्हारे (हमारे) जाकतों (बच्चों) कू भी एक पत्तल पर धर के कुछ दे दो। वो बी तो इस दिन का इंतजार कर रे ते (कर रहे थे)।’

इस पर चौधरी की क्रूरता भरी वाणी है, ‘टोकरा भर तो जूठन ले जा री है.. .ऊप्पर से जाकतों के लिए खाणा माँग री है? अपनी औकात में रह चूहड़ी।’ यह सुनकर टोकरा बिखेरते हुए माँ का जवाब है, ‘इसे ठाके (उठाकर) अपने घर में धर ले। कल तड़के बरातियों को नास्ते में खिला देणा।’ भाषा के ऐसे प्रयोगों द्वारा लेखक ने यथार्थ का अधिक प्रामाणिक बनाने के कौशल का परिचय दिया है। ……

संवादों में स्थानीय रंगत के समावेश के साथ ही लेखक ने अछूत जातियों के रूढ़िवादी संस्कारों, दवा-दारू और उचित उपचार की जगह बीमारी में प्रेत-बाधा के ढोंग को उजागर करने के लिए झाड़-फूंक, टोने-टोटके, ताबीज, भभूत की निरर्थकता को सिद्ध करते हुए उनसे सम्बद्ध पारिभाषिक शब्दावली का भी प्रयोग किया है। भगत, पुच्छा, पौन, ओपरा (भूत की लपेट), बादी देवता आदि शब्द और इनसे सम्बद्ध मान्यताएँ अछूतों में ही अधिक प्रचलित थीं, जो अछूतों के जीवन को और पीछे घसीट रही थीं। जूठन आत्मकथा का सारांश

आत्मकथा में अन्य सामान्य प्रसंगों के वर्णन-विवरण, विवेचन-विश्लेषण में लेखक ने हिंदी की स्तरीय भाषा के मान्य शब्दों का ही प्रयोग किया है। सब मिलाकर इस आत्मकथा की भाषा प्रसंगानुकूल, अभिव्यक्ति के लिए सक्षम और प्रभावांकन के लिए अत्यंत उपयुक्त है।

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  1. वैष्णव की फिसलन का सारांश | हरिशंकर परसाई |
  2. वैष्णव की फिसलन व्यंग्य निबंध का प्रतिपाद्य :— हरिशंकर परसाई

 

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