झीनी झीनी बीनी चदरिया | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | संत कबीरदास |
झीनी झीनी बीनी चदरिया
झीनी झीनी बीनी चदरिया ।।
काह के ताना काह के भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया।
इँगला पिंगला ताना भरनी, सुशमन तार से बीनी चदरिया।।
आठ कमल दल चरखा डोलै, पाँच तत्व गुण तीनी चदरिया।
साई को सियत मास दष लागे, ठोक ठोक के बीनी चदरिया।।
सो चादर सुर नर मुनि ओढ़िन, ओढ़ि के मैली कीनी चदरिया।
दास कबीर यतन से ओढ़िन, जयों का त्यों धरि दीनी चदरिया।।
झीनी झीनी बीनी चदरिया
संदर्भ :— कबीरदास मध्यकालीन निर्गुण भक्ति साहित्य के प्रमुख कवि हैं। पद जीवन की संभाव्यता, उसकी निर्मिति, ईश्वर और माया से उसके संबंध को प्रस्तावित करता है। इसमें इन तमाम संदर्भो को कबीर ने वस्त्र निर्माण की प्रविधि के व्याज से बताया है तथा एक व्यापक रूपक का निर्माण किया गया है।
व्याख्या :— कबीरदास कहते हैं कि जिस चादर का निर्माण किया है वह चादर ‘झीनी झीनी’ है। झीना होना चादर की जीर्णता, पुरानेपन का भी अर्थ देता है और उत्कृष्टता श्रेष्ठता का भी। परंतु आखिरी पंक्ति में कबीरदास ने जिस आत्मविश्वास का परिचय दिया है, वह उत्कृष्टता श्रेष्ठता का वाचक ज्यादा प्रतीत होता है। पुराने का संदर्भ उम्र की प्रौढ़ता से हो सकता।
आगे कबीरदास पूछते हैं कि यह चादर किस ताने बाने से निर्मित हुई है? किस तार या सूत से निर्मित हुई है? कबीरदास कहते हैं कि इंगला पिंगला ताना बाना है और सुषमन तार से शरीर रूपी चादर का निर्माण हुआ है। अष्टचक्र दल चरखा है जिससे सूत का निर्माण होता है।
पाँच तत्त्व (क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर) और तीन गुणों (सत्, रज, तम) से इस शरीर का निर्माण हुआ है। ईश्वर को शरीर रूपी कपड़े को सिलने में दस महीने लगते हैं। जैसे कुम्हार ठोक ठोक कर घड़े का निर्माण करता है, वैसे ही ईश्वर ठोक ठोक कर इस चादर का निर्माण करता है।
ईश्वर द्वारा निर्मित शरीर रूपी इस चादर को सभी देवता, मनुष्य, ऋषि मुनि ओढ़ते हैं, पहनते हैं। दार्शनिक धरातल पर जीव चूंकि ईश्वर का अंश है। अतः जीवात्मा भी परमात्मा की तरह ही पवित्र और निर्मल है।
परंतु जीव जीवन क्रम में विभिन्न विषय-वासना, माया के अधीन जीवन जीता है। इस कारण वे इस ईश्वर प्रदत्त और ईश्वर अंश जीवात्मा को मैला कर देते हैं। वासनायुक्त कर देते हैं। कबीरदास कहते हैं कि ईश्वर के दास कबीर ने इस शरीर और आत्मा को बहुत संयम और साधना से ओढ़ा है। इस साधना और संयम के कारण ही ईश्वर ने इस शरीर को जैसा पवित्र और निर्मल बनाया था, उसे वैसा ही रखा है।
विशेष
i) इस पद में कबीर ने अपने दैनंदिन जीवन के अनुभव, उसकी शब्दावली से रूपक का निर्माण किया है। इसका लक्ष्यार्थ निश्चितरूपेण वह निर्गुण ईश्वर ही है, जो कबीर का आराध्य है, परंतु इस पद में जिस आत्मविश्वास का प्रसार हुआ है, वह भाषा में उनके अनुभव के ढल जाने की क्षमता के कारण ही।
ii) कबीरदास की आराधना में सारे मत मतांतरों की शब्दावली, उनकी आचार व्यवहार नीति दिखाई पड़ती है। इस पद में योग की शब्दावली का व्यवहार हुआ है।
iii) कबीरदास के संदर्भ में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को जिस रूप में कहना चाहा उसे उसी रूप में कह दिया। बन गया तो सीधे सीधे, नहीं तो दरेरा देकर। यह पद भाषा के स्तर पर उनकी इस मान्यता को स्पष्ट करता है।
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