डॉ. नगेंद्र की आलोचना दृष्टि
डॉ. नगेंद्र की आलोचना दृष्टि :— शुक्लोत्तर हिंदी आलोचना के क्षेत्र में निरंतर सक्रिय रहकर प्रभूत ग्रंथों की रचना एवं संपादन करने वालों में डॉ. नगेंद्र सर्वोपरि हैं। अपनी पहली आलोचनात्मक निबंध ‘छायावाद‘ (1937ई.) से लेकर मृत्युपर्यंत लगभग 62 वर्षों तक वे इस क्षेत्र में छाए रहे। इनकी पहली आलोचनात्मक कृति ‘सुमित्रानंदन पंत’ (1938ई.) शुक्ल जी के जीवनकाल में ही निकल चुकी थी।
शुक्ल जी ने अपने हिंदी साहित्य के इतिहास में इस पुस्तक की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि ‘काव्य की छायावाद कही जाने वाली शाखा चले काफी दिन हुए। पर ऐसी कोई समीक्षा-पुस्तक देखने में न आई जिसमें उक्त शाखा की रचना प्रक्रिया (Technique) प्रसार की भिन्न-भिन्न भूमियाँ सोच-समझकर निर्दिष्ट की गई हों। केवल नगेंद्र की ‘सुमित्रानंदन पंत’ पुस्तक ही ठिकाने की मिली है” (हिंदी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ-564)।
डॉ. नगेंद्र शुक्ल जी द्वारा मिली प्रशंसा से उत्साहित होकर ही हिंदी आलोचना की ओर अधिक सक्रिय हुए जिसकी स्वीकृति उन्होंने स्वयं की है- ‘पहली कृति का ही हार्दिक स्वागत हुआ…. और कविता का खुमार सचमुच ही धीरे-धीरे टूटने लगा, बाह्य जीवन के विषय में मेरा जो दृष्टिकोण और मूल्य बनते जा रहे थे उनमें बुद्धि तत्त्व की मात्रा बढ़ने लगी थी, अतः उनकी अभिव्यक्ति के लिए आलोचनात्मक गद्य का माध्यम अधिक सुगम और अनुकूल पड़ा।’ (आस्था के चरण, पृष्ठ 4-5) । डॉ. नगेंद्र के सफल आलोचक बनने की पृष्ठभूमि में एक और कारण यह भी था कि वे अध्यापक के साथ-साथ अथक परिश्रमी भी थे।
डॉ. नगेंद्र की आलोचना दृष्टि
डॉ. नगेंद्र अपने दृष्टिकोण में व्यक्तिवादी और रसवादी है और युग के वातावरण के अनुरूप उन पर फ्रायड का भी गहरा प्रभाव पड़ा था। उन्होंने अपनी आलोचना की शुरुआत व्यावहारिक आलोचना से की थी किंतु धीरे-धीरे उनकी रूचि काव्यशास्त्र की ओर हो चली। इस संदर्भ में डॉ. रामदरश मिश्र ने लिखा है- ‘डॉ. नगेन्द्र ने अपनी आलोचना यात्रा का आरंभ किया समकालीन सर्जना के परीक्षण से, किंतु वे साथ ही साथ शास्त्र से भी जुड़ते गए।
इसलिए उन्होंने समकालीन साहित्य चेतना को तो परखा ही, साथ ही साथ उसे पहले के साहित्य और साहित्य चिंतन के संदर्भ में रखकर उन बुनियादी तत्त्वों की खोज में अपने को प्रवृत्त किया जो एक युग के साहित्य को दूसरे युग के साहित्य से, एक देश के साहित्य को दूसरे देश के साहित्य से जोड़ते हैं। इतना ही नहीं बल्कि अनेक विधाओं, ऊपरी चमत्कारों, अनेक विषयों के मूल में स्थित तात्विक चारूता की खोज में लीन हुए और इस खोज में अनेक शास्त्रकारों के चिंतन ने उनके विश्वास को बल प्रदान किया।’ (हिंदी आलोचनाः प्रवृत्तियाँ और आधार भूमि, पृष्ठ-206)।
नगेंद्र की आलोचना दृष्टि व व्यावहारिक आलोचना
व्यावहारिक आलोचना का प्रधान उपजीव्य रचनात्मक कृतियाँ हैं जो आलोचक की रूचि, राग-बोध तथा सौंदर्यानुभूति की दिशा व्याप्ति और गहराई बतलाती है। इस दृष्टि से डॉ. नगेंद्र की व्यावहारिक समीक्षा की चार दिशाएँ निर्धारित हो सकती हैं- कालखंड का ऐतिहासिक साहित्यिक विवेचन काव्य-प्रवृत्ति-समीक्षा, कलाकार विवेचन और कृति विवेचन। कालखंड के ऐतिहासिक साहित्यिक विवेचन के अंतर्गत डॉ. नगेंद्र की आलोचना में रीतिकाल और आधुनिक काल ही महत्त्वपूर्ण है। डॉ. नगेंद्र रीतिकाल के प्रेमी और प्रशंसक हैं।
उन्होंने इस संदर्भ में अपने एक भाषण में संकेत करते हुए कहा था कि ‘मैं रीति काव्य का प्रेमी हूँ और रहूँगा- ऐसा कहने में भय नहीं। काव्य के प्रति दृष्टि बदल सकती है। परंतु जीवन के तत्वों के प्रति जो दृष्टिकोण रहता है, वह स्थिर ही होता है। रोमानी काव्य के प्रति हम जिस आनंदवादी दृष्टिकोण को अपनाते हैं उसी दृष्टिकोण के आधार पर रीतिकाव्य का भी मूल्यांकन करना चाहिए, वही वास्तविक दृष्टि है।’ (27.12.66 को भारतीय हिंदी परिषद के बाईसवें वार्षिक अधिवेशन में ‘रीतिकाव्य का पुनर्मूल्यांकन’ में डॉ. नगेंद्र द्वारा दिए गए भाषण का अंश)।
रीतिकाव्य की आलोचना में डॉ. नगेंद्र का यही दृष्टिकोण सर्वत्र दिखता है। रीति-कवियों का मूल्यांकन करते हुए उन्होंने बताया है कि रीतिकालीन कवियों के मधुर छंदों ने पराभव मूढ़ समाज की कोमल वृत्तियों को सरस रखते हुए उसकी जड़ता को दूर करने में अत्यंत महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। इसी को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने बताया है कि वाक्यं रसात्मकं काव्यं की कसौटी के आधार पर रीति-काव्य को तिरस्कृत नहीं किया जा सकता। कला की दृष्टि से रीतिकाव्य की महत्ता असंदिग्ध है। इस संदर्भ में डॉ. नगेंद्र ने लिखा है कि ‘मुक्तक परंपरा की गोष्ठीमंडन कविता का जैसा उत्कर्ष रीतिकाव्य में हुआ वैसा न उसके पूर्ववर्ती काव्य में और न परवर्ती काव्य में ही संभव हो सका।’ (अनुसंधान और आलोचना,पृ.-34)
रीतिकाव्य के बाद आधुनिक काल में प्रवाहित विभिन्न वादों के विवेचन के अतिरिक्त डॉ. नगेंद्र ने इस युग में विकसित विभिन्न साहित्य रूपों जैसे – आलोचना, उपन्यास, शोध, आधुनिक साहित्य और नाटक आदि काव्य विधाओं की सम्यक समीक्षा प्रस्तुत कर अपनी जागरुकता का परिचय दिया है। नाटक की आलोचना में वे फ्रायडीय मनोविज्ञान से प्रभावित हैं। अपनी आलोचना कृति ‘आधुनिक हिंदी नाटक’ में उन्होंने विषय वस्तु की दृष्टि से सांस्कृतिक चेतना, नैतिक चेतना, समस्या के अंतर्गत वैयक्तिक और राजनीतिक समस्याओं पर आधारित नाटकों की आलोचना के उपरांत उसकी अभिव्यंजना पक्ष पर विचार किया है। नगेंद्र की आलोचना दृष्टि नगेंद्र की आलोचना दृष्टि
फ्रायड के प्रभाव के कारण उनका नाट्य विवेचन अत्यंत मनोवैज्ञानिक है। अपने इसी मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर उन्होंने सांस्कृतिक चेतना से युक्त नाटकों में जीवन का स्वस्थ उपभोग या जीवन के विरुद्ध जमकर युद्ध के अभाव का दर्शन कराया है। समाज की मर्यादाओं से उत्पन्न सेक्स की समस्या संबंधी हिंदी नाटककारों के समाधान का आधार भी उनके अनुसार ‘बैद्धिक अथवा आर्थिक न होकर आध्यात्मिक है युग धर्म (गाँधीवाद) का प्रभाव इसके लिए उत्तरदायी है। (आधुनिक हिंदी नाटक, पृष्ठ-52)
-प्रवृत्ति आलोचना के अंतर्गत डॉ. नगेंद्र छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और नई कविता की समीक्षा की है। आधुनिक काल में उत्पन्न उक्त वादों की उत्पत्ति की आलोचना के मूल में इनका सिद्धांत यह है कि प्रत्येक परवर्ती काव्य-धारा का संबंध पूर्ववर्ती काव्यधारा से होता है। वह उसके परिवेश से ही निकलती है। उन्होंने साहित्यिक एवं सामाजिक परिस्थितियों की सापेक्षता में ही विभिन्न वादों की आलोचना की है जो उनकी सहृदयता एवं निष्पक्षता का ही द्योतक है। छायावाद को उन्होंने ‘स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह’ बताया है जो वस्तुतः बाह्य से अभ्यंतर का प्रवेश था। नगेंद्र की आलोचना दृष्टि नगेंद्र की आलोचना दृष्टि
यह उपयोगिता के प्रति भावुकता का विद्रोह, नैतिक रुढ़ियों के प्रति मानसिक स्वच्छंदता, बंधनों के खिलाफ कल्पना का शिल्प का और विद्रोह था। छायावाद संबंधी समस्त भ्रांतियों का निराकरण करते हुए डॉ. नगेंद्र अपना निर्णय देते है कि ‘भाव पर बल देने पर भी छायावादी काव्य प्रथम श्रेणी में नहीं आ सकते, क्योंकि कुंठा की प्रेरणा प्रथम श्रेणी के काव्य को जन्म नहीं दे सकती। किंतु जिस कविता ने जीवन के सूक्ष्मतम मूल्यों की पुनः प्रतिष्ठा द्वारा नवीन सौंदर्य-चेतना जगाकर एक वृहद समाज की अभिरूचि का परिष्कार किया उसका महत्त्व अक्षय है। (आधुनिक हिंदी कविता का मुख्य प्रवृत्तियाँ, पृष्ठ-22)।
सामाजिक चेतना को उबुद्ध करने की दृष्टि से उन्होंने प्रगतिवादी कविता को श्रेष्ठ माना है, किंतु प्रयोगवादी और नई कविता के संबंध में उनका प्रश्न यह है कि वास्तव में यह कविता किसके लिए लिखी जा रही है।
काव्य युग कलाकर तथा कृति-तीनों दिशाओं में डॉ. नगेंद्र ने कार्य किया है, किंतु उनकी दृष्टि अन्य साहित्यालोचकों की अपेक्षा कलाकार या कवि पर ही अधिक केंद्रित रही है। युग की आलोचना करते समय भी उन्होंने उन युगीन परिस्थितियों को अपने विवेचन के अंतर्गत लिया है, जिन्होंने कवि या कलाकार की मानसिक स्थिति को और उसकी कृति को भी प्रभावित किया है। नगेंद्र की आलोचना दृष्टि नगेंद्र की आलोचना दृष्टि
कृतियों की समीक्षा करते समय भी, उन्होंने कृति के मूल में छिपे हुए कवि के व्यक्तित्व को बाहर लाने की कोशिश की है। कवि या कलाकर की आलोचना के अंतर्गत डॉ. नगेंद्र ने देव, सुमित्रानंदन पंत, तुलसीदास, केशव, बिहारी, मैथिलीशरण गुप्त, सियारामशरण गुप्त, दिनकर, बच्चन, गिरिजाकुमार माथुर, निराला, महादेवी, प्रसाद, प्रेमचंद, दिनकर, आचार्य शुक्ल और श्यामसुंदर दास आदि का सम्यक विवेचन प्रस्तुत किया है।
लेकिन इन सबमें उन्होंने देव और पंत की विवेचना विशद रूप में की है। रीतिकाल की पृष्ठभूमि में देव का भाव पक्ष अत्यंत समृद्ध होने एवं अपने शोध का विषय होने तथा पंत की सूक्ष्म कलात्मक अभिव्यंजना के कारण इन दोनों कवियों पर उनकी लेखनी ज्यादा चली है। रीतिकालीन कवियों का कला-पक्ष समृद्ध माना जाता था एवं उनका भाव पक्ष स्थूल एवं बहिर्मुखी मान जाता था, किंतु देव का भावपक्ष अपेक्षाकृत सूक्ष्म एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टि से पुष्ट था।
डॉ. नगेंद्र देव की समीक्षा इसी आधार पर करते है। भाव पक्ष के अंतर्गत देव के काव्य में शृंगार वर्णन की दोनों दशाओं का वर्णन सूक्ष्मता से किया गया है। जहां संयोग शृंगार में रूप वर्णन और मिलन दोनों का वर्णन मिलता है वहीं वियोग वर्णन में भी देव ने पीड़ा की गहरी अनुभूति को दर्शाया है। इस संबंध में डॉ. नगेंद्र ने लिखा है कि :—नगेंद्र की आलोचना दृष्टि
‘यह कवि पीड़ा की गहरी अनुभूतियों से परिचित था, अतः इसे अतिश्योक्ति और उहात्मक पर निर्भर नहीं रहना पड़ा। इसलिए विरह की आग विकलता और ताप के वर्णन में भी देव ने भावना की गंभीरता और स्वाभाविकता को ही अभिव्यक्त किया है, उनकी तीव्रता भी अनुभूति पर आश्रित है। अलंकार के चमत्कार पर नहीं।’ (देव और उनकी कविता-पृ.109)।
देव के कला पक्ष का विवेचन करते हुए उन्होंने बताया है कि रीतिकालीन कला में पाई जाने वाली कृत्रिमता देव में नहीं है, और उनका अभिव्यंजना पक्ष भी अनुभूति से ही प्रेरित है।
सुमित्रनंदन पंत को पढ़ने से पता चलता है कि पंत जी चिंतनशील व्यक्ति हैं और वे अपने बाह्य और अंतर दोनों के निर्माण में सदैव सचेत रहते हैं। पंत जी प्रधानतः कलाकार है और उनकी कला मनन प्रवृत्ति का फल है। इसी आधार पर पंत जी की आलोचना करते हुए डॉ. नगेंद्र ने लिखा है कि:—
‘छायावादी कवियों में पंत जी का प्रभुत्व प्रकृति और मानव का संपर्क तथा कला क्षेत्र पर हुआ। जहां तक मननशीलता का संबंध है, यहाँ पंत जी का विशेष स्थान है। कलाकार की, दृष्टि से पंत जी का स्थान हिंदी में सर्वोच्च है।’ (सुमित्रानंदन पंत, पृ.-131)।
डॉ. नगेंद्र के व्यावहारिक-समीक्षा की एक विशेषता यह भी है कि वह अत्यंत व्यापक और सहृदयतापूर्ण है। डॉ. नगेन्द्र की आलोचना कृति ‘सुमित्रानंदन पंत’ की आलोचना करते हुए स्वयं पंत ने लिखा है कि, “उन्होंने (डॉ. नगेंद्र ने) पर्याप्त अध्ययन एवं मनन के पश्चात अत्यंत सहृदयता के साथ मेरी रचनाओं के गुण-दोषों का विवेचन किया है।” (सुमित्रानंदन पंतः डॉ. नगेंद्र, निवेदन-सुमित्रानंदन पंत)। ,
कृति-समीक्षा के अंतर्गत डॉ. नगेंद्र ने ‘साकेत’ और ‘कामायनी’ पर विशेष रूप से लिखा है। साकेत में भौतिक जीवन का व्यापक चित्रण मिलता है तो कामयानी में देशकाल निरपेक्ष मानव मन के विविध पहलुओं का सूक्ष्म अंकन हुआ है। साकेत के सृजन के मूल में दो प्रेरणाएँ थीं- राम भक्ति और भारतीय जीवन को समग्र रूप में देखने और समझने की लालसा।
इन्हीं के आधार पर डॉ. नगेंद्र ‘साकेत‘ की सफलता का मूल्यांकन प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि ‘तुलसी का जीवन साधना के लिए था, मैथिलीशरण का जीवन स्वयं साधना है। उसमें जीवन को जीने की पूर्ण आकांक्षा है। इसलिए मानस की अपेक्षा साकेत में जीवन का अंश अधिक है।’ (साकेतः एक अध्ययन, पृ.-154)।
साकेत स्वरूप से जीवन काव्य है। उसमें प्राचीन का विश्वास और नवीन का विद्रोह दोनों समन्वित होकर एक हो गए हैं। उसमें वर्तमान की समस्याएँ हैं, और उनका समाधान भी मौजूद है। इसी दृष्टि से डॉ. नगेंद्र ने उसे भारतीय जीवन का प्रतिनिधि ग्रंथ माना है। इसी तरह ‘कामायनी के अध्ययन की समस्याएँ’ में उन्होंने रसास्वादन को काव्य का मूल प्रयोजन माना है।
इस समालोचनात्मक रचना में डॉ. नगेंद्र ने ‘रसास्वादन’ को समझाने के लिए आई.ए.रिचर्डस द्वारा निरुपित ‘काव्यास्वादन की प्रक्रिया’ का सहारा लिया है तो महाकाव्यत्व को प्रमाणित करने के लिए लोंजाइनस की ‘उदात्त’ संबंधी अवधारणा का सहारा लिया है। कामायनी के संदर्भ में डॉ. नगेंद्र का यह निष्कर्ष सर्वथा निर्विवाद है कि कामायनी का आधारभूत दर्शन शैवाद्वैत-काश्मीरी शैवदर्शन- प्रत्यभिज्ञा दर्शन है।
इन दोनों कृतियों के अतिरिक्त भी गौण रूप से कुछ कृतियों का संक्षिप्त किंतु सूक्ष्म विवेचन उन्होंने किया है। इस दृष्टि से उनका जयभारत, हिमकिरीटिनी, वासवदत्ता, कुरूक्षेत्र, राम की शक्तिपूजा, प्रेमाश्रम, इरावती, सुखदा, त्यागपत्र, बिल्लेपुर बकरिहा और हिंदी के आदिकाल का विश्लेषण आदि उल्लेखनीय है।
डॉ. नगेंद्र अपने शोध प्रबंध ‘सीतिकालीन पृष्ठभूमि में देव का स्थान’ लिखते-लिखते रीतिकाव्य से जुड़ गए और उनकी रूचि सैद्धांतिक आलोचना की ओर होने लगी। इसी संदर्भ में उन्होंने पहले भारतीय काव्यशास्त्र का सम्यक परिचय प्राप्त कर पाश्चात्य काव्य शास्त्र के स्रोत ग्रंथों का अंग्रेजी के माध्यम से अध्ययन किया। दोनों साहित्यशास्त्रों के मूलवर्ती समान तत्त्वों से प्रेरित होकर उन्होंने भारतीय काव्यशास्त्र के क्षेत्र को पुनराख्यान द्वारा विस्तृत बनाने की बात सोची।
डॉ. नगेंद्र ‘साहित्य के मान’, साहित्य का धर्म, ‘काव्य-बिम्ब’, ‘कविता क्या है’ ‘रीतिकाव्य की भूमिका’ ‘अरस्तू का काव्यशास्त्र’, आदि निबंधों और भूमिका लेखन से जो सैद्धांतिक आलोचना का सिलसिला शुरू किया, उसकी पराकाष्ठा ‘रससिद्धांत’, में जाकर हुई। ‘रस’ की जो नई और आधुनिक व्याख्या शुक्ल जी से शुरू हुई, वह डॉ. नगेंद्र के यहाँ अपने चरम उत्कर्ष पर दिखती है।
रस का उनकी आलोचना में केंद्रीय महत्त्व है, क्योंकि वे मानते हैं कि काव्य के तीन सर्वमान्य तत्त्वों-भाव, कल्पना और बुद्धि में मैं भाव को ही आधार मानता हूँ। शेष दो उसके सहायक हैं। अतः काव्य का आस्वाद मूलतः भाव का ही आस्वाद है- इंद्रियगम्य प्रकृत भाव का नहीं, वरन् कल्पनागम्य शुद्ध अथवा निर्वैयक्तिक भाव का। आस्वाद के इसी रूप को शास्त्र में रस कहा गया है। इस प्रकार काव्य के संदर्भ में आनंद का विशिष्ट अर्थ रस है और यही काव्य का प्रयोजन है। (आलोचक की आस्था, पृ.-5)
रस के अतिरिक्त डॉ. नगेंद्र ने अन्य काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों की विशद विवेचना की है जिनमें रीति, वक्रेक्ति, ध्वनि, अलंकार आदि प्रमुख हैं। काव्यशास्त्र प्रमुख उनके समर्थ चिंतन और निर्मल काव्य- -दृष्टि से और भी समर्थ और समग्र बन गया है। उन्होंने परंपरा का गहरा अध्ययन प्रस्तुत करते हुए जगह-जगह पर अपनी भौतिक स्थापनाएँ (साधारणीकरण आदि के प्रसंग में) भी की हैं और आचार्यों के मतों के साथ अपनी स्पष्ट सहमति और असहमति भी व्यक्त की है।
साधारणीकरण के संदर्भ में उनका मत है कि कवि की अपनी अनुभूति का ही साधारणीकरण होता है, अतः रस की स्थिति के मूल में वही निहित है। अपनी आलोचनात्मक कृति ‘नई आलोचना, नए संदर्भ के नई आलोचना खंड में उन्होंने पश्चिम में विकसित आलोचना की नवीन प्रवृत्तियों का अध्ययन और आकलन किया है। इसमें उन्होंने पश्चिम की नई आलोचना के मुख्य विचारकों जान क्रो रेन्सम, ऐलन टेंट, राबर्ट पैन वारेन, रिचर्ड पी. ब्लैकमर, क्लींथ ब्रुक्स आदि की मूल स्थापनाओं को समझकर उन्हें बड़ी स्पष्टता से प्रस्तुत किया है। इसी में उन्होंने अंग्रेजी और हिंदी की कुछ कविताओं को सामने रखकर उनकी बहुत ही गहरी संरचनात्मक व्याख्या भी की है जो संरचनात्मक आलोचना के सुंदर प्रतिमान के रूप में दिखते हैं।
इस तरह डॉ. नगेंद्र के व्यावहारिक और सैद्धांतिक आलोचना के आधार पर कहा जा सकता है कि वे पाश्चात्य व भारतीय समालोचना के सेतु थे, जिन्होंने इसके विरोधात्मक स्वरूप को त्यागकर इसे पूरक बना दिया। उन्होंने हिंदी आलोचना के इतिहास में पहली बार कवि-व्यक्तित्व की ओर साहित्य प्रेमी का ध्यान आकृष्ट किया और अपनी शुद्ध साहित्यिक दृष्टि के आधार पर रीतिकाल एवं छायावाद का पुनर्मूल्यांकन प्रस्तुत किया। निश्चित रूप से डॉ. नगेंद्र शुक्ल जी के बाद के युग की आलोचना के प्रमुख आधार स्तंभ थे और उनकी आलोचना दृष्टि अत्यंत समृद्ध थी।
यह भी पढ़े :—
- डॉ. नगेन्द्र की जीवनी – भाषा शैली, आलोचना दृष्टि, ग्रंथावली
- रामचंद्र शुक्ल की आलोचना-दृष्टि
- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जीवन परिचय
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