तपै लाग अब जेठ असाड़ी | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | मलिक मुहम्मद जायसी | - Rajasthan Result

तपै लाग अब जेठ असाड़ी | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | मलिक मुहम्मद जायसी |

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तपै लाग अब जेठ असाड़ी । मै मोकहै यह छाजनि गाढ़ी।।

तन तिनुवर या यूरों खरी। मैं विरहा आगरि सिर परी।।

साँठि नाहि लगि बात को पैा। बिनु जिय भए मुंज तन ,छा।।

बंध नाहि और कंघन कोई। बाक व आव कहाँ केहि रोई।।

ररि बरि भई टेक बिहूनी। संभ नाहि उठि सके न थूनी।।

बरसहि नैन चुहि घर माहाँ।। तुम्ह बिनु कत न छाजन छाहाँ।।

कोरे कहाँ ठाठ नव साजा। तुम्ह बिन कंतन छाजन छाजा।।

तपै लाग अब जेठ असाड़ी

उपर्युक्त काव्यांश मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा लिखित ‘पद्मावत’ प्रबंध काव्य के “नागमती वियोग खंड” में से लिया गया है।  राजा रत्नसेन जोगी बनकर सिहलदीप गये हुए हैं और लगभग एक साल बीत चुका है। उनकी पत्नी नागमती उनके योग में अपनी भावनाओं को बारहमासा के रूप में व्यक्त करती हैं।

“बारहमासा” की शुरुआत आषाढ़ माह से होती है और यह जेठ-आषाड़ पर ही समाप्त होता है। हमने आपको बताया था कि जायसी ने नागमती के विरह वर्णन में सामान्य नारी की विरह वेदना को वाणी दी है। उपर्युक्त चौपाइयाँ इसका सबसे उपयुक्त प्रमाण है।

इन चौपाइयों के दो अर्थ किये जाते हैं। एक अर्थ अनुसार जेठ-आषाढ़ की तपती धूप में विरह से दग्ध होकर नागमती किस तरह रोगग्रस्त हो गयी है, इसका मार्मिक चित्रण है।

दूसरे अर्थ के अनुसार नागमती अपने घर के छप्पर की दुर्दशा का वर्णन करती है। और अपने पति से प्रार्थना करती है कि वह आये और घर के छप्पर को ठीक कराये। यहाँ विरोधाभास यह है कि जायसी यह भूल गये हैं कि नागमती मामूली ग्रामीण स्त्री नहीं है वरन् इतिहास प्रसिद्ध चित्तौड़गढ़ की रानी है। वह झोपड़ी में नहीं महलों में रहती है।

लेकिन जायसी ने अगर ऐसा वर्णन किया तो इसका कारण यह था कि उनके जीवानानुभव में तो ग्रामीण स्त्री की पीड़ा ही थी। जायसी ने नागमती के बहाने सामान्य नारी हृदय की पीड़ा को वाणी देकर लोक जीवन के साथ अपनी गहरी संक्ति को व्यक्त किया है। उपर्युक्त चौपाइयों की व्याख्या करते हुए हमें इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखना होगा। चौपाइयों के दो अर्थों का आधार क्या है। आधार है कवि द्वारा प्रयुक्त द्विअर्थी शब्द।

उदाहरण के लिए पहली चौपाई में प्रयुक्त “छाजनि” का अर्थ छाजन नामक रोग भी है और छप्पर भी है। दूसरी चौपाई में “तन” शरीर के अर्थ में है और “तान” के अर्थ में भी “आगरि” का अर्थ खान से भी है और अर्गला से भी। “सॉठि” पूंजी को भी कहते हैं और सरकंडे को भी इस प्रकार दोहरे अर्थ वाले शब्दों का प्रयोग करके जायसी ने उपर्युक्त चौपाइयों को दो अर्थों में प्रस्तुत किया है। हम यहाँ दोनों अर्थों को प्रस्तुत कर रहे हैं।

व्याख्या

1: नागमती जेठ-आषाढ़ के माह में अपनी दशा का वर्णन करते हुए कहती है कि अब मेरे शरीर में विरह की जेठ-असाढ़ी तपने लगी है अर्थात् विरह की ज्वाला में शरीर दग्ध हो रहा है। यह तपन मेरे लिए गहन या सघन छाजन रोग हो गयी है। इस रोग से शरीर कमजोर हो गया है और सूखता जा रहा है।

मेरे सिर पर विरह की खान आ पड़ी है। मेरे पास कोई पंजी तो है नहीं इसलिए अब स्नेह से कौन मेरी बात पूछेगा? बिना प्राण के मेरा शरीर मज की तरह एंछा हो गया है। बिना पति के मेरा कोई बंधु है न कोई सहारा देने वाला है।

 

मुहँ से कोई बात नहीं निकलती। मैं किससे रो-रोकर अपनी दुखद कथा सुनाउँ? मैं रो-रोकर दुबली हो गयी हूँ और बिल्कुल बेसहारा भी है। जब यंभ ही नहीं रहा तो थुनी कहाँ उठ सकती है अर्थात् बिना पति के सहारे के मैं भी आधारहीन हो गयी हूँ।

मेरी आँखें आँसू बरसाती रहती हैं, सारा घर आँसुओं से भर गया है। हे कंत, तुम्हारे बिना न शोभा है, न छाँह है। तुम्हारे न होने से हे कंत, अब कौन नया साज सजाएगा तुम्हारी अनुपस्थिति में तो बस्त्र भी शोभा नहीं देते।

नागमती जेठ असाड़ के माह में अपने घर की दीन-हीन दशा का वर्णन करते हुए कहती है कि अब जेठ-असाढ़ की गर्मी पड़ने लगी है। मेरे लिए फस का छप्पर दुखदायी हो गया है। इसका तान सिमटकर फूस का ढेर मात्र रह गया है। मैं उसके नीचे खड़ी सूखती जा रही हूँ। छप्पर में लगी अर्गला निकल गई है और दरवाजा खोलने वालों के सिर पर आ गिरती है।

छप्पर के नीचे उसके अगले सिरे पर मजबूती के लिए बाँधा जाने वाला सरकडे के बत्ते का तो कहना ही क्या जबकि सरकंडा ही गिर चुका है। डोरी के खुल जाने से गूंज भी कमजोर पड़ गयी है। बंधन भी नहीं रहा और छप्पर जिस पर टिका रहता है वह दीवार भी नहीं है। सहारे के लिए छोटी आडी लगी हुई बाक भी नहीं है। ऐसे में रो-रोकर अपनी व्यथा किसे कहूँ।

यह दुपल्ली की छान भी अपनी जगह से खिसक गयी है। उसमें जो खंभा लगा था वह भी नहीं रहा। इससे सहारे के लिए लगाई जाने वाली बल्ली (थूनी) भी नहीं लग सकती। छप्पर भी धुआं निकालने के लिए जो धूमनेत्र (नैन) बने थे, उनमें से अब पानी घर में टपकता है। हे कंत, तुम्हारे बिना यह छप्पर अब छाँह नहीं करता। पूरे बाँस (कोरे) भी नहीं है जिससे कि छप्पर का नया ठाठ बनाया जा सके। हे कत, तुम्हारे बिना छाजन नहीं छाई जा सकती।

विशेष:

1. उपार्यक्त चौपाइयों में जायसी का काव्य पर लोक जीवन के प्रभाव की अभिव्यजना ।

(उपर्युक्त दोनों अर्थों में से दूसरे अर्थ केवल विरह की भावात्मक वेदना को ही व्यक्त नहीं करता बल्कि पति के न रहने से ग्रामीण स्त्री की दीन-हीन दशा का भी अत्यंत मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करता है। व्याख्या के बाद “विशेष’ के अंतर्गत उपर्युक्त काव्यांश की भाव और शिल्प संबंधी विशेषताओं का संक्षेप में उल्लेख कीजिए।)

2. उपर्युक्त चौपाइयों में श्लेष अलंकार के द्वारा दो अर्थों को व्यक्त किया गया है। (जब वाक्य में एक से अधिक अर्थ वाले शब्द या शब्दों का प्रयोग किया जाए और उनके द्वारा एक से अधिक अर्थों को व्यक्त किया जाए तो वहाँ श्लेष अलंकार होता है। जैसे “मैं मोकहै यह छाजनि गाही’ में ‘डाजनि’ के दो अर्थ हैं। इससे इस पक्ति के दो भिन्न अर्थ प्रकट होते हैं।

3. उपर्युक्त पक्तियों की भाषा अवधी है और इनमें भी देशज शब्दों का अधिक प्रयोग है जैसे छाजनि, साठि, ऍछा आदि।

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