तारनि लोक, उधारनि भूमिहिं | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | चण्डी- चरित्र | गुरु गोविंद सिंह |

तारनि लोक, उधारनि भूमिहिं | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | चण्डी- चरित्र | गुरु गोविंद सिंह |

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तारनि लोक, उधारनि भूमिहिं, दैत-संहारिनी चंडि तुही है।

कारन ईस कला, कमला, हरि, अद्रि-सुता जहं देख उही है ।

तामसता ममता नमता कविता कवि के मन मध्य गुही है ।

कीनौ है कंचन लोह जगत्त में पारस- मूरति जगह छुही है ॥ 4 ॥

तारनि लोक, उधारनि भूमिहिं

प्रसंग : प्रस्तुत पद्य दशम गुरु गोविंद सिंह जी की रचना ‘चण्डी-चरित्र’ में से लिया गया है। इस काव्य में कवि ने अपनी भावनाओं एवं पौराणिक मान्यताओं के अनुरूप देवी चण्डी और उसके अनेक रूपों का स्तुतिपरक गायन एवं चरित्र चित्रण किया है। देवी मां को अपने अनेक नये रूपों में स्मरण कर, उसे भवतारिणी, उद्घारिणी आदि बताकर उनके स्वरूप एवं चरित्र का उद्घाटन करते हुए कवि कह रहा है

 

व्याख्या : हे माँ चण्डी अनेक प्रकार के भयानक दैत्यों का संहार करके उनके विषम प्रभावों और संसार-सागर से अपने भक्तों को पार उतारने वाली एकमात्र तुम्हीं हो। तुम्हीं पापियों के अत्याचारों से जन और उसकी भूमि का भी उद्धार करने वाली सर्वशक्तिमान मातृरूपा देवी हो। जिसे विश्व में ईश्वर की कला कहा जाता है

उस ईश, लक्ष्मी, हरि और पर्वतराज की कन्या पार्वती आदि जहां जितने भी स्वरूप दिखाई देते हैं, उन सब की कथा या रूपात्मक रचना का मूल कारण तुम्हारी सत्ता एवं अस्तित्व ही है। अर्थात् इस सृष्टि के कारणभूत तत्व के रूप में तुम सब जगह, सबमें पूर्णतया परिव्याप्त हो ।

हे देवि ! तामसिकता और राजस आदि गुणों को नमित अर्थात् अधीन करके कवि के मन में सात्वोद्रेक आदि के रूप में कविता को जन्म देने वाली, अर्थात् कवि – कविता का कारण भी तुम हो और कवि के हृदय में कविता रूप में अवस्थित भी तुम्हीं हो! इस प्रकार स्थूल-सूक्ष्म सभी प्रकार के तत्वों, प्राणियों, पदार्थों और अभूत भावों आदि सभी कुछ में तुम्हारा ही स्वरूपाकार एवं अस्तित्व विद्यमान है।

जिस प्रकार लोहा पारस – पत्थर का स्पर्श पाकर सोना बन जाता है, उसी प्रकार इस पारस- मूर्ति स्वरूप मां चण्डी की कृपा का स्पर्श जिस किसी को भी प्राप्त हो जाता है, वह पाप-रूप लोह होते हुए भी कंचनवत् उच्च एवं महत्वपूर्ण, सभी के लिए सहज काम्य एवं ग्राह्य बन जाता है।

भाव यह है कि वह माँ चण्डी एक सर्वव्यापक परम तत्व है। उसकी कृपा पाकर ही व्यक्ति कुछ कर पाने में समर्थ तो हो ही पाता है, इस संसार-सागर से उसका उद्धार भी तभी सम्भव हो सकता है। अन्यथा कुछ भी संभव नहीं।

विशेष

1. कवि ने देवी चण्डी की परिकल्पना पौराणिक मान्यताओं के अनुरूप सर्व-उद्धारिणी के रूप में की है।

2. सभी देवी-देवताओं आदि के अस्तित्व का कारण भी चण्डी को ही बताया है।

3. काव्य-कला की अधिष्ठात् भी उसी को चितारा है।

4. पारस- स्पर्श का परम्परागत उदाहरण सहज बन पड़ा है ।

5. दूसरी पंक्ति में क्रम-भंग दोष द्रष्टव्य है।

6. पद्य में उल्लेख, वर्णन, विशेष और अन्त्यानुप्रास अलंकार है। ‘सवैया’ छंद है।

7. भाषा मुख्यतः तत्सम प्रधान है; पर पंजाबी का प्रभाव भी स्पष्ट द्रष्टव्य है। जैसे– ‘तुही, उही’ आदि । माधुर्य गुण प्रधान है।

8. वर्णन-शैली गाथात्मक एवं अनुशंसात्मक है।

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