तुलसीदास का जीवन परिचय और रचना संसार
तुलसीदास का जीवन परिचय :— मध्यकालीन भक्त कवियों का उद्देश्य प्रधानतः अपने आराध्य की महिमा का बयान करना तथा समाज की मुक्ति के लिए अपने दृष्टिकोण के अनुसार साधना की पद्धति और उसका मानदंड तय करना था, इसीलिए मध्यकालीन भक्त कवियों के जीवन के संदर्भ में स्वयं उनकी ओर से बहुत कम जानकारी प्राप्त होती है।
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तुलसीदास का जीवन परिचय
तुलसीदास भी ऐसे ही भक्त कवि हैं जिन्होंने अपने को ज्यादा से ज्यादा नेपथ्य में रखा है तथा राम के ऐश्वर्य का बखान अधिक से अधिक किया है। उस समय की अस्थिर सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों तथा तुलसीदास आदि भक्त कवियों के संरक्षण के दायरे से बाहर होने के कारण भी उनके लेखन का यथारूप हमें बहुत सीमित मात्रा में प्राप्त होता है। इस सीमा के कारण परवर्ती अधिकारी विद्वानों के मत एवं व्याख्या के अनुसार तुलसीदास के जीवन एवं रचना संसार का निर्धारण किया जाता रहा है।
तुलसीदास के संदर्भ में एक अच्छी बात यह है कि अपनी दो रचनाओं– ‘रामचरितमानस’ तथा ‘पार्वती मंगल’ के लिखे जाने के वर्ष का उल्लेख उन्होंने स्वयं कर दिया है। अकबर के दरबार के टोडरमल से उनके संबंध होने के पक्के प्रमाण हैं। रहीम से भी उनका संबंध होना बताया जाता है। अतः जन्म और रचना के वर्षों में थोड़ा-बहुत अंतर हो सकता है, लेकिन इतना तय है कि मुगल काल के उत्कर्ष के समानांतर ही वे अपने भक्तिकाव्य की रचना कर रहे थे; रामराज्य की परिकल्पना रख रहे थे तथा उसे राम के आदर्श और पारिवारिक, सामाजिक एवं राजनीतिक व्यक्तित्व के माध्यम से पेश कर रहे थे।
तुलसीदास के जीवन के संबंध में हमें जिन लिखित रचनाओं से जानकारी प्राप्त होती है उनमें से कोई भी ऐतिहासिक रचना नहीं है। उनकी प्रामाणिकता अक्षुण्ण नहीं है, लेकिन ये रचनाएँ प्रारंभिक आधार-सामग्री जरूर मुहैया कराती हैं। ऐसी रचनाओं में प्रमुख हैं :—
‘मूलगोसाईंचरित’ (वेणीमाधवदास); ‘गोसाईंचरित’ (भवानीदास); ‘तुलसीचरित’ (रघुबरदास); ‘गौतमचंद्रिका’ (कृष्णदत्त मिश्र); ‘घटरामायन’ (तुलसीसाहब); ‘भक्तमाल’ पर भक्तिरसबोधिनी टीका (प्रियादास); ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ (गोकुलनाथ) आदि। इन पुस्तकों के अतिरिक्त काशी, अयोध्या, राजापुर तथा सोरों से प्राप्त सामग्री हैं जिनमें तुलसीदास की रचनाओं की हस्तलिखित प्रतियाँ तथा उनसे संबंधित रचनाएँ हैं, इनसे तुलसीदास के जीवन और काव्य से संबंधित जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। इन रचनाओं में एकरूपता नहीं होने के कारण तुलसीदास के जीवन तथा काव्य से संबंधित विवाद एवं अलग-अलग दावेदारियों का जन्म भी होता है
आधुनिक युग में तुलसी दास के साहित्य के अकादमिक अध्ययन की शुरूआत विल्सन ने की। 1828 ई. तथा 1832 ई. में प्रकाशित अपने शोधपूर्ण निबंध- ‘ए स्केच ऑफ द रिलीजस सेक्ट्स ऑफ द हिंदूज’ में विल्सन ने तुलसीदास के जीवन और साहित्य पर प्रकाश डाला। गार्सा द तासी द्वारा लिखित हिंदी साहित्य के प्रथम इतिहास- ‘इस्त्वार द ला लितरेत्युर ऐंदुई ए ऐंदुस्तानी’ (1839 ई.) में तुलसीदास के विषय में दी गई जानकारी विल्सन की सूचनाओं पर ही आधारित है।
एफ. एस. ग्राउज ने सर्वप्रथम ‘रामचरितमानस’ का अंग्रेजी में अनुवाद किया। ग्रियर्सन ने तुलसीदास पर कई शोधपूर्ण अध्ययन प्रस्तुत किए।
हिंदी में तुलसीदास के जीवन और काव्य पर विचार करने वालों में शिवसिंह सेंगर, बाबू श्यामसुंदर दास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पं. रामनरेश त्रिपाठी, माताप्रसाद गुप्त आदि प्रारंभिक महत्वपूर्ण विद्वान हैं।
तुलसीदास का जीवन
सामान्यतः तुलसीदास का जन्म 1532 ई. में होना बताया जाता है। परंतु या जन्म वर्ष सर्वमान्य नही है ‘मूलगोसाईंचरित’ में उनका जन्म संवत् 1554 (1497 ई.) में माना गया है। विल्सन तथा गार्सा द तासी ने उनका जन्म संवत् 1600 (1543 ई.) में माना है। ‘घट रामायन’ के लेखक तुलसी साहब, रामगुलाम द्विवेदी, डा. ग्रियर्सन आदि ने तुलसीदास का जन्म संवत् 1589 (1532 ई.) माना है तथा इसे ही सर्वाधिक स्वीकृति प्राप्त हुई है।
तुलसीदास के जन्म के वर्ष की तरह जन्म-स्थान को लेकर भी विद्वानों में मतैक्य नहीं है। वैसे तो काशी, अयोध्या, चित्रकूट के निकट हाजीपुर (विल्सन तथा गार्सा द तासी के अनुसार) आदि को भी अलग-अलग विद्वानों ने तुलसीदास के जन्म-स्थान के रूप में चिह्नित किया है, परंतु जिन दो स्थानों के लिए ज्यादा दावे-प्रतिदावे हैं, वे हैं- राजापुर (जिला- बाँदा, उत्तर प्रदेश) तथा सोरों (जिला- एटा, उत्तर प्रदेश)। सोरों के समर्थक विद्वानों में पं. रामनरेश त्रिपाठी, डॉ. राजाराम रस्तोगी, डॉ. दीनदयालु गुप्त आदि हैं।
राजापुर को तुलसीदास का जन्म-स्थान मानने वाले लेखकों की संख्या किंचित अधिक है। शिवसिंह सेंगर, मिश्र बंधु, बाबू श्यामसुंदर दास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल आदि ने राजापुर को ही तुलसी का जन्म-स्थान माना है। उत्तर प्रदेश शासन भी राजापुर को ही मान्यता देता है। यही स्थान अब तुलसीदास के जन्म-स्थान के रूप में आम स्वीकृति पा चुका है। तुलसीदास के पिता का नाम आत्माराम दूबे तथा माता का नाम हुलसी था। तुलसीदास की माता के नाम का उल्लेख रहीम के एक पद में मिलता है:—
सुरतिय, नरतिय, नागतिय, सब चाहति अस होय ।
गोद लिए हुलसी फिरें, तुलसी सो सुत होय ।।
तुलसीदास के बचपन से जुड़ी कई किंवदंतियाँ एवं अप्रामाणिक उल्लेख प्राप्त होते हैं। ‘मूलगोसाईंचरित’ में यह बताया गया है कि तुलसीदास के जन्म के पाँच दिन बाद ही माँ की मृत्यु हो गई। चुनिया (दासी मुनिया की सास) नामक दासी ने इनका लालन-पालन किया परंतु छ: वर्ष बाद उसकी भी मृत्यु हो गई। पिता ने अशुभ मानकर त्याग दिया। तुलसीदास के आश्रयविहीन, दुखमय एवं संसाधनहीन बचपन का संकेत उनकी रचनाओं से भी प्राप्त होता है।
‘कवितावली’ तथा ‘विनय-पत्रिका’ में तुलसीदास ने अपने कष्टमय बचपन का जिक्र बार-बार किया है। ‘कवितावली’ में उन्होंने जिक्र किया है कि बचपन से ही दीनहीन होने के कारण चने के चार दाने के लिए द्वार-द्वार ललचाते, बिललाते फिरना पड़ा है :—
बारेतें ललात-बिललात द्वार-द्वार दीन,
जानत हौ चारिफल चारि ही चनकको।।
तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ में अपने गुरु का जिक्र करते हुए लिखा है :—
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि ।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर ।।
इन पंक्तियों के आधार पर तुलसीदास के गुरु का नाम नरानंद या फिर नरहरिदास बताया जाता है। ग्रियर्सन ने नरहरिदास को रामानंद की परंपरा में बताते हुए तुलसीदास को इस परंपरा की आठवी पीढ़ी में रखा है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने तुलसीदास के गुरु का नाम बाबा नरहरिदास तो बताया है परंतु ये रामानंद की परंपरा से भिन्न हैं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मानना है, “तुलसीदास जी रामानंद संप्रदाय की वैरागी परंपरा में नहीं जान पड़ते। उक्त संप्रदाय के अंतर्गत जितनी शिष्य परंपराएँ मानी जाती हैं उनमें तुलसीदास का नाम कहीं नहीं है। रामानंद परंपरा में सम्मिलित करने के लिए उन्हें नरहरिदास का शिष्य बताकर जो परंपरा मिलाई गई है वह कल्पित प्रतीत होती है। वे रामोपासक वैष्णव अवश्य थे, पर स्मार्त वष्यात अवश्य थे, पर वैष्णव थे।”
बाबा नरहरिदास से तुलसीदास ने प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की थी तथा रामकथा भी इन्हीं से सुनी थी। आगे चलकर शेष सनातन से तुलसीदास ने इतिहास, वेद, पुराण, दर्शन आदि की शिक्षा पाई।
जनश्रुति के अनुसार तुलसीदास की शादी दीनबंधु पाठक की पुत्री रत्नावली से हुई थी। इन्हें अपनी पत्नी से अत्यधिक लगाव था। ऐसा कहा जाता है कि एक बार जब पत्नी मायके चली गई तब अँधेरी रात में नदी पार कर वे ससुराल पहुंचे थे। वहाँ पत्नी ने फटकार लगाई :
हाड़ मांस की देह मम तापर जितनी प्रीति ।
तिसु आधी जो राम प्रति अवसि मिटिहि भवभीति।
पत्नी से उलाहना मिलने के बाद तुलसीदास विरक्त हो गए। दांपत्य जीवन से विरक्ति के बाद तुलसीदास भक्ति की ओर उन्मुख हो गए। उन्होंने अयोध्या, प्रयाग, काशी, मिथिला, बदरिकाश्रम, ब्रज आदि की तीर्थयात्राएँ कीं। उनके जीवन का ज्यादातर समय राजापुर, अयोध्या, चित्रकूट तथा काशी में व्यतीत हुआ। अंत में वे काशी में स्थाई रूप से निवास करने लगे। पं गंगाराम ज्योतिषी, टोडरमल तथा रहीम उनके मित्रों में थे। काशी में तुलसीदास कुछ समय तक किसी मठ के महंथ भी रहे थे ।
तुलसीदास की काव्य-यात्रा 1569-70 ई. के आसपास से शुरू हुई तथा यह उनके मृत्यु पर्यंत, 1623 ई. तक निरंतर चलती रही। तुलसीदास ने अपनी रचना के लिए संस्कृत को छोड़कर जनभाषाओं को चुना तथा राम के जीवन चरित, आदर्श और भक्ति को सर्वसुलभ बना दिया; इसका आम जनता एवं सुलझे हुए धार्मिक लोगों में अपार स्वागत हुआ वहीं एकाधिकारवादी संकीर्ण पंडे-पुरोहितों ने उनका विरोध भी किया। इस विरोध का प्रमाण तुलसीदास की रचनाओं में भी मिलता है
खल परिहास होई हित मोरा ।
काक कहहिं हंसहिं बक दादुर चातकही।
हंसहिं मलिन खल बिमल बतकही।।
कबित रसिक न राम पद नेहू।
तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू।।
भाषा भनिति भोरि मति मोरी।
हँसिबे जोग हँसें नहिं खोरी ।।
तुलसीदास अपने विरोधियों की चर्चा करते हुए कहते हैं कि उनके उपहास से मुझे फायदा ही होगा। कौए तो कठोर ही कहते हैं। जैसे बगुले हंस पर, मेढ़क पपीहे पर हँसते हैं वैसे ही मलिन भावना रखने वाले दुष्ट निर्मल वाणी पर हँसते हैं। जिनकी राम के पद में प्रीति नहीं है, जो न कविता के रसिक हैं उनके लिए इसमें हास-रस है, अर्थात ऐसे लोगों के लिए मेरी कविता उपहास योग्य है। मेरी कविता ‘भाषा’ में है, मेरी बुद्धि मोटी है यह सब उनके लिए हँसने के ही योग्य है।
जीवन के अंतिम दिनों में तुलसीदास को शारीरिक व्याधियों ने आ घेरा । उन्हें कष्टप्रद बाहु। पीड़ा हो गई। इसके निवारण के लिए उन्होंने हनुमान जी से प्रार्थना करते हुए ‘हनुमानबाहुक’ की रचना की। ‘कवितावली’ में भी वृद्धावस्था संबंधी कष्टों का विवरण आया है।
तुलसीदास की मृत्यु के संबंध में जनमानस में एक दोहे का प्रसार है :—
संबत सोरह सै असी असी गंग के तीर |
सावन सुक्ला सत्तमी तुलसी तजेउ सरीर ।।
संवत् 1680 अर्थात 1623 ई. में तुलसीदास की मृत्यु को प्रायः सभी ने स्वीकार किया है।
तुलसीदास का रचना संसार
तुलसीदास के जीवन के अन्य विभिन्न प्रसंगों की तरह रचनाओं (संख्या) को लेकर भी उनके अध्येताओं के बीच मतैक्य नहीं है। शिवसिंह सेंगर ने अपने इतिहास ग्रंथ ‘शिवसिंह सरोज’ में तुलसीदास की रचनाओं की संख्या अठारह बताई है। ग्रियर्सन ने सोलह ग्रंथों का उल्लेख करते हुए यह तथ्य सामने रखा है कि ‘शिवसिंह सरोज’ में उल्लिखित ग्रंथों में से ‘रामशलाका’, ‘कुंडलिया रामायण’, ‘करक (?) रामायण’, ‘रोला रामायण’, ‘झूलना रामायण’, उन्हें प्राप्त नहीं हुई।
उनके द्वारा देखी-पढ़ी गई तुलसी की रचनाएँ हैं- ‘गीतावली’, ‘कवितावली या कवित , रामायण’, ‘दोहावली या दोहा रामायण’, ‘चौपाई रामायण’, ‘सतसई’, ‘पंचरत्न’ (पाँच लघु काव्यों- (i) ‘जानकी मंगल’ (ii) ‘पार्वती मंगल’ (iii) “वैराग्य संदीपनी’ (iv) रामलला नहछू तथा (v) बरवैरामायण का एकत्र संकलन), ‘श्री रामाज्ञा’, ‘संकटमोचन’, “विनय-पत्रिका’, ‘हनुमानबाहुक’ तथा ‘कृष्णावली’ | मिश्र बंधुओं ने ‘हिंदी नवरत्न’ में तुलसीदास के पच्चीस ग्रंथों का उल्लेख किया है। नागरी प्रचारिणी सभा के विवरण में तुलसीदास के पैंतीस ग्रंथों की सूचना दी गई है।
माताप्रसाद गुप्त ने तुलसीदास के नाम से मिलने वाली रचनाओं की संख्या 39 तथा प्रामाणिक रचनाओं की संख्या बारह बतलाई है। उन्होंने ‘वैराग्य संदीपनी’ को बारह की सूची से बाहर रखा है तथा उसमें ‘हनुमानबाहुक’ को शामिल किया है। उदयभानु सिंह ‘हनुमानबाहुक’ को ‘कवितावाली’ के अंतर्गत शामिल करते हुए बारह प्रामाणिक रचनाओं में ‘वैराग्य संदीपनी’ को भी शामिल किया है। तुलसीदास की प्रामाणिक रचनाएँ हैं-
(i) ‘वैराग्य संदीपनी’ (ii) ‘रामाज्ञाप्रश्न’ (iii) ‘रामलला नहछू’ (iv) ‘जानकी मंगल’ (v) ‘रामचरितमानस’ (vi) ‘पार्वती मंगल’ (vii) ‘गीतावली’ (‘पदावली रामायण’) (viii) ‘कृष्णगीतावली’ (ix) ‘दोहावली’ (x) ‘बरवैरामायण’ (xi) ‘विनय-पत्रिका’ (रामगीतावली) तथा (xii) ‘कवितावली’ | आगे तुलसीदास की इन रचनाओं का परिचय दिया जा रहा है।
वैराग्य संदीपनी : ‘वैराग्य संदीपनी’ को माताप्रसाद गुप्त ने प्रामाणिक रचनाओं में शामिल नहीं है। पं. रामनरेश त्रिपाठी इसे तुलसीदास की पहली रचना मानते हैं। उदयभानु सिंह ने तुलसीदास के जीवन में आसक्ति से वैराग्य की ओर मुड़ने की लोक मान्यता तथा रचना शैली और विचारधारा में प्रौढ़ता के अभाव के आधार पर इसे तुलसीदास की प्रारंभिक रचना माना है।
उनके अनुसार ‘वैराग्य संदीपनी’ संवत् 1626-27 (1569-70 ई.) के लगभग की रचना है। इसमें वैराग्य के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। तुलसीदास के समन्वय भावना की प्रथम झलक इस कृति में प्राप्त होती है। इसमें उन्होंने सगुण निर्गुण में कोई भेद नहीं माना है। तुलसीदास का जीवन परिचय
रामाज्ञाप्रश्न : यह रचना ‘वैराग्य संदीपनी’ के बाद की है। इसका अनुमानित रचनाकाल संवत् 1627-28 (1570-71 ई.) है। इसकी भाषा ब्रजभाषा है। इसकी रचना शकुन विचारने के लिए की गई थी। ‘रामाज्ञाप्रश्न’ में सात सर्गों में राम की कथा कही गई है। इसमें सीता निर्वासन का प्रसंग शामिल किया गया है जिसे ‘रामचरितमानस’ में छोड़ दिया गया है।
रामलला नहछू : इस कृति का अनुमानित रचनाकाल संवत् 1628-29 (1571-72 ई.) है। ‘रामलला नहछू’ सोहर शैली में लिखी गई 20 चतुष्पदियों की छोटी सी रचना है जिसमें मांगलिक अवसर पर नख काटने के रिवाज को शृंगारिकता के साथ व्यक्त किया गया है। माताप्रसाद गुप्त ने इसे विवाह का नहछू माना है जबकि रामजी तिवारी का मत है कि ‘रामलला नहछू विवाह के अवसर का नहछू न होकर यज्ञोपवीत के अवसर का है क्योंकि विवाह के समय राम अयोध्या में थे ही नहीं।’ यह रचना अवधी में लिखी गई है।
जानकी मंगल : इसका अनुमानित रचनाकाल संवत् 1629-30 (1572-73 ई.) है। अवधी भाषा ६) है। अवधी भाषा में लिखी गई ‘जानकी मंगल’ में राम एवं सीता के विवाह को चित्रित किया गया है। इसमें होता है परशुराम-प्रसंग ‘रामचरितमानस’ से भिन्न है। इसमें परशुराम का मिलन राम से तब होता है जब शादी के पश्चात बारात अयोध्या लौट रही होती है। तुलसीदास का जीवन परिचय
रामचरितमानस : ‘रामचरितमानस’ संपूर्ण हिंदी वाङ्मय की सर्वश्रेष्ठ कृत्तियों में से एक है। अवधी भाषा में लिखी गई इस प्रबंधात्मक कृति के रचनाकाल का जिक्र तुलसीदास ने स्वयं कर दिया है। तुलसीदास ने इसके लेखन का प्रारंभ संवत् 1631 (1574 ई.) में किया। इसके लेखन का कार्य दो वर्ष, सात महीने तथा छब्बीस दिन में पूरा हुआ।
‘रामचरितमानस’ में सात कांडों बालकांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किंधाकांड, सुंदरकांड, लंकाकांड तथा उत्तरकांड में राम की कथा कही गई है। कांडों की यह संख्या, नाम और क्रम तुलसीदास की अन्य कई रचनाओं में भी है। इस कृति में तुलसीदास ने ‘नानापुराणनिगमागमसम्मतं’ भक्ति निरूपण के साथ ही पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक जीवन की मर्यादा एवं आदर्श को प्रस्तुत किया है। इनके अतिरिक्त लोक जीवन के सांस्कृतिक पक्ष के समुच्चय को भी तुलसीदास ने अपनी इस महान रचना में पिरोया है।
पार्वती मंगल : यह कृति संवत् 1643 (1586 ई.) में लिखी गई। इसकी भाषा अवधी है तथा इसमें पार्वती एवं शिव के विवाह की कथा कही गई है।
गीतावली : ‘गीतावली’ का रचनाकाल संवत् 1630 से 1670 (1573 ई. से 1613 ई.) के बीच है। इसे ‘पदावली रामायण’ के रूप में भी जाना जाता है। यह प्रगीतात्मक मुक्तक काव्य है जिसमें रामकथा आधारित गीतों को संगृहीत किया गया है। इसमें संगृहीत गीत विभिन्न रागरागिनियों पर आधारित है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, “गीतावली की रचना गोस्वामी जी ने सूरदास जी के अनुकरण पर की है।
बाललीला के कई एक पद ज्यों के त्यों ‘सूरसागर’ में भी मिलते हैं, केवल ‘राम’ ‘श्याम’ का अंतर है। उत्तरकांड में जाकर सूर पद्धति के यो गर गया है। जिन स अतिशय अनुकरण के कारण उनका गंभीर व्यक्तित्व तिरोहित-सा हो गया है। जिस रूप राम को उन्होंने सर्वत्र लिया है, उनका भी ध्यान उन्हें नहीं रह गया । ‘सूरदास’ में जिस प्रकार गोपियों के साथ श्रीकृष्ण हिंडोला झूलते हैं, होली खेलते हैं, वही करते राम भी दिखाए गए हैं।
राम की नखशिख शोभा का अलंकृत वर्णन भी सूर की शैली पर बहुत-से पदों में त लगातार चला गया है। सरयूतट के इस आनंदोत्सव को आगे चलकर रसिक लोग क्या रूप देंगे इसका ख्याल गोस्वामी जी को न रहा।’
कृष्णगीतावली : इसका रचनाकाल संवत् 1643 से 1660 (1586 ई. से 1603 ई.) के बीच है। इसमें कृष्ण के जीवन संबंधी गीतों को संगृहीत किया गया है। दोहावली : दोहावली स्वतंत्र ग्रंथ नहीं है। इसमें संगृहीत दोहे तुलसीदास की अन्य रचनाओं से भी लिए गए हैं। इस ग्रंथ के दो दोहे “वैराग्य संदीपनी’ से लिए गए हैं, 35 दोहे ‘रामाज्ञाप्रश्न’ से तथा 85 दोहे ‘रामचरितमानस’ से। इस ग्रंथ में कुल 573 दोहे हैं। इस प्रकार इस ग्रंथ के शेष 451 दोहे स्वतंत्र रूप से रचे गए हैं।
“वैराग्य संदीपनी’ में ही इसके दो दोहे मिलने के कारण ऐसा माना जाता है कि इसकी रचना तुलसीदास की रचनात्मकता के प्रारंभिक दिनों से जीवन के अंतिम दिनों तक चलती रही। अतः इसका रचनाकाल संवत् 1626 से संवत् 1680 (1569 से 1623 ई.) माना गया है। ‘दोहावली’ में विषयों की विविधता है। इसमें राम के विलक्षण व्यक्तित्व, भक्ति के स्वरूप, नाम महिमा, सामाजिक आचार-व्यवहार, नीति, धर्म आदि से संबंधित दोहे संकलित किए गए हैं। तुलसीदास का जीवन परिचय
बरवैरामायण : बरवैरामायण’ की जो प्रतियाँ पाई गई हैं उसमें पाठ-भेद ज्यादा है और एकरूपता नहीं है। माताप्रसाद गुप्त का मानना होती है जिन्हें तुलसीदास अंतिम रूप नहीं दे से अधिक रूप प्राप्त होते हैं।” इस रचना में सात कांड में विभाजित है ।
विनय-पत्रिका : ‘विनय-पत्रिका’ भी ‘गीतावली’ की तरह लंबे कालखंड में रची गई कृति है। ब्रजभाषा में लिखी गई इस कृति को बहुधा ‘रामगीतावली’ के नाम से भी जाना जाता है। इसका रचनाकाल संवत् 1631 से 1679 (1574 से 1622 ई.) के बीच है। ‘विनय-पत्रिका’ मुक्तकों का संग्रह है, इन मुक्तकों के माध्यम से तुलसीदास ने अपना आत्मनिवेदन प्रभु श्रीराम को अर्पित किया है। इस कृति में राम के प्रति उनके अनन्य प्रेम तथा दैन्य भक्ति की सघन अभिव्यक्ति हुई है।
‘विनय-पत्रिका’ में मुख्य रूप से तुलसीदास की आत्माभिव्यक्ति व्यक्त हुई है। रामजी तिवारी ने इसमें तत्कालीन मुगल राजव्यवस्था की शैली को रेखांकित करते हुए लिखा है, “गोस्वामी जी द्वारा अपनाई गई पत्रिका-प्रेषण की इस प्रणाली में मुगलकालीन दरबारी सभ्यता का प्रभाव भी लक्षणीय है, इसमें सात ड्योढ़ियों को पार करने, अंगरक्षकों को प्रसन्न करने और महारानी की अनुकंपा प्राप्त करने का अपना महत्व था।” इस कृति की रचना ब्रजभाषा में हुई है। तुलसीदास का जीवन परिचय तुलसीदास का जीवन परिचय
कवितावली : ‘कवितावली’ भी लंबी अवधि की रचना है। इसका रचनाकाल संवत् 1631 से 1680 (1574 ई. से 1623 ई.) के बीच है। इसके कुछ संस्करणों में ‘हनुमानबाहुक‘ भी शामिल है, हालाँकि गीताप्रेस से प्रकाशित ‘कवितावली’ में ‘हनुमानबाहुक’ शामिल नहीं है। यह मुक्तकों का संग्रह है। इसकी भाषा ब्रजभाषा है तथा यह सात कांडों में विभाजित है। “कवितावली’ में रामभक्ति से संबंधित मुक्तकों के साथ तुलसीदास का आत्मोल्लेख भी मौजूद है। ‘कवितावली’ के उत्तरकांड के कुछ मुक्तकों में तत्कालीन सामाजिक जीवन में आम लोगों की दीनता, प्रभावशाली चित्रण हुआ है। अभावग्रस्तता तथा उस समय फैली महामारी का प्रभावशाली चित्रण हुआ है। तुलसीदास का जीवन परिचय
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