तुलसीदास के दार्शनिक विचारों पर प्रकाश डालिए ।
तुलसीदास के दार्शनिक विचारों पर :— तुलसीदास हिंदी के ऐसे विलक्षण कवि हैं जिन्होंने राम कथा के भीतर अपने दार्शनिक मंतव्य का भी अत्यंत रसात्मक वर्णन किया है। जब हम तुलसीदास जैसे भक्त कवि की दार्शनिक चेतना पर विचार कर रहे हैं तो हमें मुख्य रूप से तीन- -चार बातों पर अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। जिस ईश्वर की वे उपासना कर रहे हैं, उसका स्वरूप क्या है?
जिस जगत् में रहकर वे भक्तिकाव्य का प्रणयन कर रहे हैं, उसके बारे में उनके क्या विचार हैं? प्राचीन एवं मध्यकालीन दर्शन में जीव और माया के संबंध में बहुत कुछ कहा गया है, तुलसी का इस संबंध में क्या मत है? और अंत में यह कि ब्रह्म, जगत, जीव-माया आदि पर विचार करते हुए उनके दर्शन का कौन-सा स्वरूप पाठकों के सामने उभरता है। आइए संक्षेप में हम इस पर विचार करें ।
ब्रह्म का उभयात्मक स्वरूप (तुलसीदास के दार्शनिक)
तुलसी सगुणोपासक राम भक्त कवि के रूप में जाने जाते हैं मगर तुलसी-साहित्य का विद्यार्थी यह लक्ष्य किये बिना नहीं रहेगा कि निर्गुण-सगुण, ब्रह्म के जो दो स्वरूप हैं, के द्वंद्व को लेकर तुलसी को विकट संघर्ष करना पड़ा है। अपने इष्टदेव के स्वरूप को निर्दिष्ट करते हुए तुलसी अगुण (निर्गुण) और सगुण ब्रह्म के दो स्वरूपों की चर्चा करते हैं और दोनों को परस्पर विरोधी न मानकर तत्वतः एक मानते हैं। कबीर ने निर्गुण ब्रह्म की उपासना करते हुए भी उसे “राम” कहकर सम्बोधित किया । तुलसी ने “दशरथ अजिर विहारी” राम की उपासना करते हुए भी उसे कबीर के निर्गुण ब्रह्म तक पहुंचाया है।
बल्कि तुलसी ने “रामचरितमानस” की रचना ही इस शंका को दूर करने के लिए की है कि मनुष्य रूप में दिखाई पड़ने वाले राम ब्रह्म कैसे हो सकते हैं? कौसल्या-दशरथ के प्रांगण में विहार करने वाले राम का तुलसी ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम-रोम प्रति बेद” कहते हैं और इस तरह भगवान् राम और ब्रह्म राम की एकता का प्रतिपादन करते हैं।
तुलसी का मानना है कि सगुण और निर्गुण में कोई भेद नहीं है – “सगुनहि अगुनहि नहि कछु भेदा | गावहिं मुनि पुरान बुध बेद।” आशय यह है कि हमारे मुनि, पुराण, विद्वान और वेद अगुण – सगुण में कोई भेद नहीं मानते। इसे स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि जो निर्गुण है वही सगुण कैसे हैं?
ठीक उसी प्रकार जैसे जल और हिम उपल यानी ओला एक हैं, अलग नहीं – जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल विलग नहि जैसें । ” निर्गुण ब्रह्म ही सगुण रूप धारण करता है, क्यों? तुलसी कहते हैं कि जो ब्रह्म निर्गुण, अरूप, अदृश्य और अजन्मा है वही भक्तों के प्रेमवश सगुण हो जाता है- “अगुन अरूप अलग अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई ।” निर्गुण-सगुण के इस अभेद संबंध को तुलसी प्रकृति के रमणीय वातावरण को चित्रित करते वक्त भी नहीं भूलते। “मानस” के किष्किंधाकांड में शरत् ऋतु का वर्णन है।
तुलसी कहते हैं कि नदी-तालाब निर्मल जल से भरे हैं। उसमें कमल फूले हुए हैं। फूले हुए कमल से परिपूर्ण तालाब किस प्रकार शोभायमान हो रहा है, फूले कमल सोह सर कैसा । निरगुण ब्रह्म सगुन भएँ जैसा।”
आशय यह है कि जिस तालाब में कमल फूले हुए न हों, वह निर्गुण ब्रह्म की तरह है। जिस राम को तुलसी अगुन, अरूप, अलख, अजन्मा, सच्चिादानंद बताते हैं, उन्हीं राम के सौंदर्य पर स्वयं मुग्ध होते हुए दूसरों को भी मुग्ध होते दिखाते हैं। अयोध्याकांड में तुलसी ने राम की वंदना करते हुए उन्हें “नीलाम्बुज श्यामल कोमलांग” कहा है तथा उनके अंक-प्रत्यंग की शोभा का मनोहारी चित्रण करते हुए वे मानों कभी अघाते ही नहीं हैं।
तुलसी ने ब्रह्म के अगुण और सगुण दोनों रूपों को अपने काव्य में क्यों प्रतिष्ठित किया है? तुलसी का मानना है कि मनुष्य का ज्ञान सीमित है, इसलिए वह जितना जानता है या जान सकता है वह पूर्ण का अंश मात्र ही हो सकता है। वे उदाहरण देते हुए कहते हैं कि आग दिखायी भी पड़ती है और लकड़ी के अन्दर अव्यक्त भी रहती है – “एक दारूगत देखिए एकू। पावक सम जुग ब्रह्म विवेकू।”
वस्तुतः ब्रह्म का पूर्णता परोक्ष और प्रत्यक्ष की एकता में हैं क्योंकि जिसे हम देखते हैं वह न देखे जाने वाले (अदृश्य, अव्यक्त ) से अलग नहीं, उससे अभिन्न है। इसीलिए तुलसी के राम अन्तर्यामी और बहिर्यामी दोनों है। ज्ञानियों के लिए अंतर्यामी और भक्तों के लिए बहिर्यामी ।
तुलसी की दृष्टि में विशुद्ध तत्वज्ञान के लिए ब्रह्म निर्गुण और अव्यक्त कहा गया है पर उपासना के लिए उसका सगुण रूप ही प्रामाणिक और स्वीकार्य कहा गया है। उपासकों के लिए ब्रह्म का सगुण रूप इसीलिए प्रामाणिक है कि निर्गण में अज्ञा किसी प्रकार के भ्रम की गंजाईश हो सकती है परन्त उसके सण रूप में न तो कोई भ्रम की स्थिति है और न छल हो सकता है? ब्रह्म के सौंदर्य, शक्ति और शील की चरमावस्था ही तो भक्तों के अंतःकरण में भक्ति के रसात्मक रूप में प्रतिष्ठित होती है।
जगत् के स्वरूप पर विचार
जगत् के स्वरूप को लेकर भी भक्त कवियों में मतभेद रहे हैं। मतभेद का मुद्दा यह है कि जगत् सत्य है या मिथ्या ? “विनयपत्रिका” के एक प्रसिद्ध पद में तुलसी कहते हैं कि हे केशव, यह जगत् तुम्हारी विलक्षण रचना है जिसे देखकर मन ही मन समझता हूँ, पर कुछ कहा नहीं जाता?
केशव! कहि न जाइ का कहिए ।
देखत तव रचना विचित्र अति, समुझि मनहिं मन रहिए ।
( विनय पत्रिका, पद संख्या 111 )
इस पद में जगत् की विचित्रता की व्याख्या करते हुए अंत में वे जगत् संबंधी जो विवाद है, उसको उपस्थित करते हुए कहते हैं:
कोउ कह सत्य झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोउ मानै ।
तुलसीदास परिहरै तीनि भ्रम, सो आपन पहिचानै।।
अर्थात् कोई तो जगत् की इस रचना को सत्य कहते हैं, और कोई-कोई मिथ्या । इतना ही नहीं किसी-किसी के मत में यह सत्य और मिथ्या दोनों का सम्मिश्रण है। तुलसीदास कहते हैं कि जो इन तीनों भ्रमों से छुटकारा पाता है, वही वास्तविक स्वरूप को पहचान सकता है। इससे स्पष्ट है कि तुलसी जगत् संबंधी इन तीनों व्याख्या को अमान्य ठहराते हैं जिसका मतलब है कि यह संसार न तो सत्य है, न झूठ और न ही सत्य और झूठ का सम्मिश्रण।
तुलसी के लिए संसार को दृश्य रूप में सत्य मानने का सवाल ही नहीं । तुलसी की दृष्टि में अज्ञानियों एवं अहंकारियों को ही जगत् की दृश्य सत्ता सत्य रूप में दिखायी पड़ती है। यह जगत् पारमार्थिक रूप में ही सत्य है । जिस रूप में यह दिखायी पड़ता है। उस रूप में तो यह मिथ्या ही है। “मानव” के उत्तरकांड में तुलसी ने संसार की वृक्ष के रूप में कल्पना की है और संसार रूपी, वृक्ष को नमस्कार किया है- “संसार- बिटप नमामहे ।” लेकिन यह संसार रूपी वृक्ष कैसा है?
तुलसी कहते हैं कि यह संसार रूपी पेड़ अनादि है यानी सनातन (शाश्वत ) है, अव्यक्त जिसकी जड़ है, चार त्वचा (छाल) है, छः तने हैं, पचीस शाखाएँ हैं, अनेक पत्ते और बहुत से फूल हैं, कटु और मधुर इसके दो फल हैं, लताएँ जिसकी आश्रिता है। इस तरह नित-नूतन रहने वाले एवं पल्लवित पुष्पित संसार- वृक्ष को हम नमस्कार करते हैं ।
अव्यक्त मूलमनादि तरू त्वच चारि निगमागम भने ।
षटकंध शाखा पंचबीस अनेक पर्न सुमन घने ।।
फल जुगल विधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे।
पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामि है। ।
तुलसी की दृष्टि में यह संसार जो नित-नूतन और पल्लवित-पुष्पित है और नमस्कार योग्य है वह इसलिए कि इसकी जड़ अव्यक्त है। चूंकि इसकी जड़ अव्यक्त में है इसीलिए यह भी शाश्वत यानी अनादि है। ऐसी स्थिति में यह संसार सत्य है, मिथ्या नहीं। अतः यह जाने बिना कि “राम” नाम रूपी अव्यक्त इस संसार की जड़ है, इसे झूठा कहना व्यर्थ है ।
अहंकार, काम क्रोध, लोभ, मोह, मद, विषय-वासना में फंसे मनुष्य को संसार जिस रूप में सच दिखलाई पड़ता है, वह सही नहीं है । वे वस्तुतः अव्यक्त की जड़ से विहीन संसार – वृक्ष को जो मिथ्या है, सत्य मान रहे हैं। तुलसीदास ने अपने राम से बार-बार प्रार्थना की है और कहा है कि तुम्हारे बिना यह संसार अत्यंत भयानक और दुःखदायी है। यह तभी सुखमय है जब तुम्हारी कृपा से समता दया, विवेक, जीव-प्रेम का भाव जाग्रत हो । इसीलिए तुलसीदास विनयपत्रिका में अपने प्रभु से कृपा की याचना करते हैं
‘अस कछु समुझि परत रघुराया।
बिनु तव कृपा दयालु, दास-हित, मोह न छूटै माया ।
तुलसी कहते हैं कि – अहंकार आदि दुर्गुणों में फंसे हुए व्यक्ति को संसार जैसा दिखायी पड़ता है, वह असत्य है। इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि संसार की सत्ता है ही नहीं । तुलसी की दृष्टि में जगत रामरूप में वंदनीय है, “मैं-मोर” वाले रूप में नहीं। “मैं-मोर” की भावना से मुक्त होकर ही जीव यहां सुख पा सकता है। यदि “जड़ चेतन जग जीव जत, सकल राममय” माना ‘ जाय तो यह सभी वंदनीय है
जड़ चेतन जग जीत जत, सकल राममय जानि ।
बन्दऊँ सबके पद कमल, सदा जो जुग पानि ।।
कहना न होगा कि संसार के प्रति तुलसी की धारणा की जो व्याख्या की गयी है, उसमें न तो संसार अपने दृश्य रूप में सत्य है और न ही पूरी तरह मिथ्या |
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