दुख – धूम की धूंधरि मैं घनआनन्द जौ यह जीव | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद |
दुख – धूम की धूंधरि मैं घनआनन्द जौ यह जीव घिरयौ घुटि है।
मनभावन मीत सुजान सों नातो लग्यौ तनकौ न तऊ टुटि है।
धन जीवन प्रान को ध्यान रहौ, इक सोच बच्यौऽब सोउन लुटि है।
धुरि आस की पास उसास गरें जु परी सुभरे हू कहा छुटि हैं ।
दुख – धूम की धूंधरि मैं
प्रसंग :— यह पद्य कवि घनानन्द विरचित ‘सुजानहित’ से लिया गया है। उसमें कवि ने प्रेम के बन्धन की दृढ़ता का वर्णन किया है। प्रेम का बंधन साँस रहते नहीं टूटता। वह तो प्राणों के साथ ही जाता है, यह भाव प्रकट करते हुए कवि कह रहा है
व्याख्या :— कविवर घनानन्द कहते हैं कि जो कोई भी प्राणी प्रेमजन्य दुखरूपी धुँए के धुँधलके में घिर या फंस जाता है, उसका दम तो घुटता है। उसे घुट-घुटकर जीने की विवशता ढ़ोनी पड़ती है। इसी प्रकार मन को भाने वाले प्रिय सुगमता से ले प्रेम का नाता एक बार जुड़ गया है। वह अब विषम से विषम स्थिति पड़ने पर भी तनिक सा भी टूट नहीं सकता। अर्थात् सुजान से प्रेम का नाता हर हाल में निभाना अब जीवन की प्राथमिक अनिवार्यता हैं। उसे प्रेमिका के जीवन और प्राणों की धुरी को जो अब बाकी रह गया है
उसका सोच अब किसी भी कीमत पर छूट और लुट नहीं सकता। अर्थात् प्रेमिका के प्रेम-चिन्तन को छोड़ और भुला पाना कितना असम्भव कार्य है। क्योंकि उससे मिलन की आशा रूपी फंदा जो पूरी तरह कसकर गर्दन के चारों ओर पड़ गया है, वह मरने पर भी भला केसे छूट सकता है। अर्थात् प्रिय मिलन की आशा का जीते-जीद परित्याग कर पाना कतई सम्भव नहीं है ।
विशेष
1. सच्चे प्रेमी मन की दृढ़ता का यह अनेकविध वर्णन प्रभावी तो बन ही पड़ा है, अनुवरणीय भी है और प्रेरणादायक भी।
2. प्रेम में तरह-तरह की सम्भावनाएँ बना करती है, वर्णन से स्पष्ट है।
3. पद्य में रूपक, अनेकविध अनुप्रास सव्याख्या आदि विविध अलंकारों की योजना सुन्दर बन पड़ी है।
4. पद्य की भाषा सजीव, संगीतात्मक एवं प्रसादगुण से संयत है।
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