पहिलें घनआनन्द सींची सुजान कहीं बतियाँ | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद |
पहिलें घनआनन्द सींची सुजान कहीं बतियाँ अति प्यार-पगीं ।
अब लाय बिपेश की लाय बलाय बढ़ाय बिसास दगानि-दगी ।
अंखियाँ दुखियानि कुबानि परी न कहूँ लगैं कौन घरी सुलगी ।
मति दौरि थकी न लहै ठिक ठौर अमोही के मोह-मिठास ठगी |
पहिलें घनआनन्द सींची
प्रसंग :— यह पद्य रीतिमुक्त कवि घनानन्द – विरचित ‘सुजानहित’ में से उद्धृत किया गया है। प्रिय के निष्ठुर हो जाने पर हर प्रेमी उस घड़ी को कोसा करता है जब उससे पहली बार आँखें चार हुई थीं। आलोच्य पद्य में भी प्रेमी जन की इसी प्रकार की पश्चाताप भरी मानसिकता का चित्रण करते हुए कवि कह रहा है
व्याख्या :— उस चतुर सुजान या प्रिय ने पहले तो खूब बना सँवारकर, अत्यधिक सुन्दर और प्रेमभाव से भरी हुई मीठी-मीठी बातें भी कहीं । अर्थात्, मीठी-मीठी बातें करके प्रेम जताने और निभाने के वायदे किए, पर वह अपनी उन बातों पर स्थिर नहीं रह सका।
अब विश्वासघात रूप दागों से मेरे तन-मन को बुरी तरह से दागकर उसने मेरे तन-मन में वियोग की आग बुरी तरह से सुलगा दी है। इस प्रकार मेरे जीवन के लिए निभाने के वायदे किए, पर फिर मुँह तोड़ लिया। इस कारण मेरे लिए प्रिय के वियोग की आग में जलते रहना एक भयावह मुसीबत बन कर रह गया है। अब मेरी दशा बहुत ही दयनीय एवं कष्टदायक हो गई हैं। क्योंकि मेरी आँखों को तो हर समय प्रिय को देखते रहने की बुरी आदत पड़ चुकी थी, पर अब वह दिखाई ही नहीं देती।
सो मैं अपनी आँखें कहीं और लगाने की चेष्टा करती हूँ, पर ये आँखें अन्यत्र कहीं लगती या ठहरती ही नहीं। पता नहीं किस बुरी घड़ी में ये आँखें पहली बार उस निर्मोही प्रिय से लगी थीं कि अब इन्हें इतना कष्ट झेलना पड़ रहा हैं। मेरी बुद्धि दौड़-दौड़कर अर्थात् तरह-तरह के प्रयत्न कर-करके थक-हार गई है कि ये आँखें कुछ दूसरा ध्यान करें, पर नहीं, उस विश्वास घाती प्रिय के रूपमाधुर्य और मीठी बातों से ठगी गई ये आँखें अब और कहीं लगती ही नहीं। एक पल भी चैन नहीं पाती।
विशेष
1. प्रेम में पड़े सच्चे प्रेमी की मानसिकता और प्रिय दर्शन की प्यासी आँखों का सजीव, यथार्थ और मार्मिक वर्णन किया गया है।
2. ‘अति प्यार-पगी’, ‘बिसास दगानि दगी’, ‘कौन घरी सुलगी’ और ‘मोह मिठास ठगी’ जैसी कहावतों का उचित, सार्थक एवं प्रभावी प्रयोग किया गया है।
3. आँखों की विकारता का यथार्थ चित्रण विशेष दर्शनीय है।
4. पद्य में यमक, अनुप्रास, रूपक अनन्वय आदि कई अलंकारों का सार्थक एवं सौन्दर्य – प्रभाव-वर्द्धक प्रयोग किया गया है।
5. भाषा माधुर्य गुण से संयत, सतत प्रवाहमयी, संगीतात्मक, चित्रमय एवं मुहावरेदार हैं। यमक अनुप्रास की धन भाषा में विशेष उल्लेख्य है।
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