पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता पर प्रकाश डालिए |

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 ‘पृथ्वीराज रासो’ की ऐतिहासिक, तथ्य तो हैं, पर उसके साथ अनेक काल्पनिक घटनाओं और पात्रों का वर्णन भी है, जो एक काव्यग्रंथ होने के कारण स्वाभाविक है । प्रक्षेप की समस्या से इस महान ग्रंथ की जटिलता बढ़ गई है ।

पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता

चन्द वरदाई कृत ‘पृथ्वीराज रासो’ हिंदी का प्रथम महाकाव्य है । दुर्भाग्य से इस ग्रंथ का कलेवर कालक्रम से अनेक प्रक्षेपकारों द्वारा कलुषित हुआ है । इसमें अनेक घटनाएँ और पात्र हैं, जो ऐतिहासिक नहीं लगते । दूसरी महत्त्वपूर्ण बात है – इसकी भाषा की विविधरूपता । अनेक स्थानों पर प्रयुक्त भाषा बहुत बाद की लगती है । तीसरी बात है – इसके आकार में परिवर्तन । इसके अनेक 1 संस्करण मिलते हैं ।

सबसे बड़ा ग्रंथ 2500 पृष्ठों का है । उसमें 61 समय (अध्याय) हैं । लघुतम संस्करण में छन्द संख्या तीन सौ के लगभग है । इसलिए विद्वानों में इस ग्रंथ की प्रमाणिकता को लेकर काफी विवाद रहा है । संक्षेप में इस विवाद पर विचार कर लेना प्रासंगिक होगा ।

क) कुछ विद्वान जिनमें मुख्यत: कर्नल टॉड, मिश्रबंधु, श्यामसुन्दर दास तथा मोहनलाल विष्णुलाल पाण्डेय का नाम लिया जा सकता है – ‘रासो’ को प्रामाणिक मानते हैं ।

ख) कुछ लोग सर्वथा अप्रामाणिक मानते हैं । ये लोग न तो चन्द को पृथ्वीराज का समकालीन मानते हैं और न ही रचना को उसके समय की मानते हैं । क्योंकि इसकी अनेक घटनाएँ इतिहास से मेल नहीं खाती । रामचन्द्र शुक्ल, म मो गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, डा. बूलर, रामकुमार वर्मा आदि

ग) तीसरा वर्ग यह मानता है कि ग्रंथ की रचना और कवि पृथ्वीराज के समकालीन थे । परंतु बाद में ग्रंथ में अनेक लोगों ने जोड़ -घटाव किया है । इसलिए उसका मूल रूप विकृत हुआ है । डा. सुनीति कुमार चटर्जी, हजारी प्रसाद द्विवेदी, अगरचन्द नाहटा आदि इसी वर्ग में आते हैं ।

अप्रामाणिकता मानने के कारण 

अनेक इतिहासविरोधी घटनाओं का समावेश ‘रासो’ ग्रंथ में है । शिलालेख, ताम्रपत्र, ‘पृथ्वीराज विजय’ ग्रंथ में उल्लिखित अनेक घटनाओं का ‘रासो’ में भ्रांतिपूर्ण वर्णन है । जब ‘रासो’ का प्रकाशन रायल एशियाटिक सोसायटी आफ बैगाल,’ ने रासो की छपाई शुरू की थी, तभी डा. बूलर को पृथ्वीराज विजय’ नामक ग्रंथ की एक खंडित प्रति मिली जिसमें वर्णित घटनाएँ ‘रासो’ में वर्णित घटनाओं की अपेक्षा ज्यादा इतिहास सम्मत थी । तब बूलर ने ‘रासो’ का प्रकाशन रोक दिया और ऐतिहासिक खोज की ओर ध्यान दिया ।

खोज से पता चला कि ‘रासो’ में दिए गए अधिकांश नाम और चौहान, चालुक्य तथा परमार वंश के राजाओं के तथ्य प्राचीन ग्रंथ और शिलालेखों आदि से मेल नहीं खाते । चौहानों को रासो’ में अग्निवंशी’ माना गया है, जबकि उन्हे सूर्यवंशी कहा गया था । पृथ्वीराज की माता का नाम, उनका वंश, पुत्र आदि का नाम भी इतिहास और पृथ्वीराज विजय’ से भिन्न है ।

रासो’ में पृथ्वीराज की माता का नाम कमला और अनंगपाल की कन्या बताया गया है, जो सही नहीं है । रासो’ में जयचन्द को अनंगपाल का नाती और राठोरवंशी बताया गया, जो गलत है । शिलालेखों में जयचन्द को गहड़वार क्षत्रिय कहा गया है । रासो’ में वर्णित जयचन्द के साथ शत्रुता, संयोगिता स्वयंवर आदि घटनाएँ भी असंभव लगती हैं । पृथ्वीराज द्वारा गुजरात के राजा भीम का वध भी सही नहीं है, क्योंकि राजाभीम के दानपत्र से पता चलता है कि वह पृथ्वीराज के बाद ५० वर्ष जीवित था । इसी प्रकार शहाबुद्दीन द्वारा समरसिंह का वध और पृथ्वीराज द्वारा सोमेश्वर का वध भी अनैतिहासिक है ।

2. रासो’ में दी गई तिथियाँ भी अशुद्ध हैं, जो इस रचना के काल-वैषम्य के उदाहरण हैं । ‘रासो में दिए गए संवत् और ऐतिहासिक संवत् में लगभग 100 सालों का अंतर है । पृथ्वीराज के जन्म आ मृत्यु इतिहास के अनुसार संवत् 1218 और 1258 हैं, जबकि रासो’ में 1115 और 1158 दिए गए हैं ।

शहाबुद्दीन की मृत्यु संवत् 1263 में हुई थी, लेकिन रासो’ के अनुसार वह सवंत् 1139 है । इतिहास में शहाबुद्दीन का वध गक्खरों द्वारा हुआ था । रासो में यह पृथ्वीराज के शब्दवेधी बाण द्वारा गया लिखा है । आबू पर भीम चालूक्य का आक्रमण शहाबुद्दीन के साथ पुण्डरीक का युद्ध आदि की तिथियाँ भी अशुद्ध हैं ।

प्रश्न उठता है कि क्या ऐसी भूलें नायक पृथ्वीराज के किसी समकालीन और संबंधित कवि द्वारा हो सकती हैं ?

3. भाषा की कसौटी पर तो रासो’ सबसे ज्यादा अप्रामाणिक रचना लगती है । ग्रंथ में अरबीफारसी के इतने अधिक शब्द हैं, जो उस समय हिंदू -मुसलमानों के प्रारंभिक संपर्क में अपनाए गए हों ऐसा संभव नहीं लगता । इसमें अनुस्वारान्त शब्द भरे पड़े हैं, उसका कोई कारण नहीं जान पड़ता । प्राकृत और अपभ्रंश शब्दों की गलत-सलत रूपावलियाँ तथा नई और पुरानी विभक्तियों का मिश्रण विचित्र भाषिक रूप प्रस्तुत करता है । पता नहीं कितने लेखकों ने कितने समय तक इस रचना में प्रक्षेप भरे हैं।

4. सबसे बड़ी बात है कि ग्रंथ के रचना-काल के संबंध में कोई निश्चिय नहीं हो पाता । गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने इसकी रचना हम्मीर काव्य के बाद सवंत् 1600 के आसपास माना है । महाराणा रामसिंह के नौ चौकी बांध के शिलालेख संवत् 1730 में उल्लेख आया है । महाराणा अमरसिंह ने बिखरे ‘रासो’ का संकलन तैयार किया था । हरप्रसाद शास्त्री कहते हैं कि इसका रचनाकाल सं. 1455 हो सकता है । मोतीलाल मनारिया इसका काल 1788 सवंत् मानते हैं । अतः संप्रति प्राप्त रासो’ ग्रंथ का निर्माण इसी समय हुआ होगा । इसके साथ यह संभावना भी है कि ग्रंथ पहले रचित हुआ है, उसका आज यह रूप है ।

प्रामाणिकता के पक्ष में :

1. पृथ्वीराज चौहान का चरित किसी काव्य के नायक बनने के लिए उपयुक्त है, क्योंकि वह वीरों का शिरोमणि था । उसके चरित्र में धीरोदात्त नायक के सभी गुण विद्यमान थे । वह एक ऐसा ऐतिहासिक पात्र है, जिसने साहस और वीरत्व के साथ विदेशी आक्रमण का मुकाबला किया । रासो में प्रसंग आता है जब कविपत्नी यह प्रश्न करती है कि क्या आप किसी मनुष्य को काव्यनायक बनायेंगे, तब कवि ने जवाब दिया कि पृथ्वीराज का चरित्र किसी देवता से कम नहीं ।

2. अक्सर काव्य में कल्पना का प्रयोग होता है । अनेक पात्र और घटनाएँ विशेष प्रयोजन से कल्पित की जाती हैं । अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन भी होता है । ऐसे में उनके मूल उद्देश्य अधिक स्पष्ट होते हैं।

3. अनेक लेखकों द्वारा अनगिनत क्षेपक अंश इस महान ग्रंथ में संयोजित हो गए हैं । इसी कारण उनमें ऐतिहासिक भ्रांतियाँ आ गई हैं । भाषा की विविधता का कारण भी यही है ।

4. कुछ विद्वानों ने ऐतिहासिक भूलों के बचाव किए हैं । अधिकतर यह माना गया है कि पृथ्वीराज के जीवन काल में ही कवि चन्द वरदाई द्वारा यह ग्रंथ रचित हुआ । उसका मूलरूप लघु ही था । वह जाली नहीं था । रासो की जो लघुतम प्रति मिली है, उसीसे अधिकांश शंकाओं का समाधान हो जाता है । विद्वानों ने उसे मूल रूप स्वीकार किया है 1 इस प्रति में अनेक भ्रांतियों का निराकरण हो जाता है – –

5. राजपूत कुलों की उत्पत्ति आबू के अग्निकुंड से होने की कथा सुजान चरित्र, हम्मीर काव्य, पुष्कर तीर्थ आदि में मिलती है ।

6. वंशावली के संबंध भी यह देखा गया है कि पृथ्वीराज विजय’ और रासो में कुछ थोड़े से नामों के अंतर हैं।

7. अनंगपाल और पृथ्वीराज के संबंध की अशुद्धि इस प्रति में भी है ।

8. संयोगिता विवाह प्रसंग का वर्णन सभी प्रतियों में समान रूप से मिलता है । यह बड़ा काव्यात्मक और मार्मिक भी है।

9. पृथा का विवाह और शहाबुद्दीन समरसिंह युद्ध का उल्लेख इस प्रति में नहीं है ।

निष्कर्ष :

ऐसे अनेक तर्क प्रामाणिकता के पक्ष – विपक्ष में दिए जा सकते हैं । दिए जाते हैं । लेकिन निस्संदेह पृथ्वीराज रासो’ एक अमूल्य काव्यग्रंथ है । इसकी काव्यात्मकता ही इसकी लोकप्रियता का कारण रहा है । निश्चित रूप से पृथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि चन्द ने इसे लिखा । बाद में पुत्र जल्हण को दिया । जल्हण ने इसे पूरा करने के लिए अनेक अंश जोड़े । संभवत: दूसरे लोगों ने भी इस स्थिति का लाभ उठाया और अनेक प्रक्षेप भर दिए । इससे ग्रंथ का स्वरूप ही बिगड़ गया । हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस विषम स्थिति का वर्णन निम्न शब्दों में किया है ||

“इस निरर्थक मंथन से जो दुस्तर धन-राशि तैयार हुई है, उसे पार करके साहित्यिक रस तक पहुँचना हिंदी साहित्य के विद्यार्थी के लिए असंभव-सा व्यापार हो गया है ।”

परंतु इसके बावजूद उन्होंने स्वयं संपादन करके रासो’ का एक संस्करण प्रकाशित किया है । उसे वे मूल ग्रंथ के निकट मानते हैं ।

 

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