प्रीतम सुजान मेरे हित के निधान कहौ | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद | - Rajasthan Result

प्रीतम सुजान मेरे हित के निधान कहौ | कविता की संदर्भ सहित व्याख्या | सुजानहित | घनानंद |

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प्रीतम सुजान मेरे हित के निधान कहौ, कैसे रहें प्रान जौ अनखि अरसाय हौ ।

तुम तौ उदार दीन-हीन आनि परयौ द्वार, सुनियै पुकार याही कौ लौं तरसाय हौ ।

चातक है रावरो अनोखे मोह आवरौ, सुजान रूप बाबरो बदन दरसाय हौ ।

बिरह नसाय दया हिये मैं बसाय आय, हाय कब आनन्द को घन बरसाय हौ । (२४)

प्रीतम सुजान मेरे हित

प्रसंग : यह पद्य कविवर घनानन्द की रचना ‘सुजानहित’ में से लिया गया है। प्रेमी का मन चातक बनकर अपने प्रिय का नाम रटता रहता है। हर समय प्रिय-दर्शन की अभिलाषा में भरा-पूरा और मुखरित रहा करता है। व्याख्येय पद्य में कुछ इसी प्रकार के भाव एवं विचार प्रकट करते हुए कवि घनानन्द कह रहे हैं

 

व्याख्या : हे मेरे प्रेम के भण्डार या आधार प्रिय सुजान। यदि तुम इस प्रकार हठ पर अड़े रहोगे तो मेरे प्राण कैसे रह पाएँगे, यह बात मुझे तुम ही बता दो। अर्थात् तुम्हारे प्रेम और मानने के अभाव में मेरे प्राण कभी भी इस शरीर में नहीं रह सकते, यह एक तत्य है ।

हे प्रियतमे ! तुम तो बड़े ही उदार स्वभाव वाली हो। मैं हर प्रकार से दीन-हीन हूं, इसलिए तुम्हारी प्रेम भरी दृष्टि के प्रभाव से अपनी दीन-हीनता दूर करने की इच्छा लेकर तुम्हारे द्वार पर आ पड़ा हूं। अब दया करके मेरे विरही मन की पुकार सुनकर मेरी तरफ ध्यान दो। कब तक मेरे प्रति निष्ठुर बनकर मुझे इस तरह सताती और तरसाती रहोगी। मेरा मन तो तुम्हारे विलक्षण प्रेम रूपी स्वरित नायक के बादल के लिए तरसता, व्याकुल होता हुआ चातक-समय है। अपने मस्त सौंदर्य की एक झलक इस प्यासे चातक को अवश्य दिखा दो। वह उसे पाने के लिए, तुम्हारे दीदार के लिए जाने कब से व्याकुल होकर तड़प और तरस रहा है।

कविवर घनानन्द कहते हैं कि कब तुम अपने मन में मुझ व्याकुल के प्रति दया का भाव भरकर, मुझे अपने मन में बसाकर, अपना दर्शन देकर आनन्दरूपी बादलों की वर्षा कब तक करोगे? अर्थात् तुम्हारी प्रेम दयाभरी दृष्टि ही मेरी सारी व्याकुलता दूर कर आनन्द की सृष्टि कर सकती है।

विशेष

1. प्रेमीजन की विरह व्यथाजन्य हीनता का भाव विशेष द्रष्टव्य है। उसकी विनती भरा स्वर भी उल्लेख्य है।

2. इस पद्य का अध्यात्म परक या भक्तिपरक अर्थ भी सहज ही लगाया जा सकता है। ‘चातक’ प्यास का परम्परागत काव्यरूढ़ि के रूप में प्रयोग किया गया है।

3. ‘आनन्द को घन’ पद में कवि का नाम तो है ही, स्वति नायक के बादल का भी संकेत है, जोचातक की रूढ़ि के प्रयोग को सार्थक बनाता है।

4. पद्य में उपमा, रूपक, उदाहरण और अनुप्रास अलंकार है। विप्रलम्भ का भाव और रूप भी स्पष्ट अब देखा जा सकता है।

5. भाषा माधुर्य गुणात्मक, प्रवाह और चित्रमयी होने के साथ-साथ संगीतात्मक भी है।

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